Thursday, April 15, 2010

बुनकरों की रोजी-रोटी का संकट

''मैंने हथकरघे पर कपड़ा बनाने का काम पिताजी से बचपन में सीखा और थोडा-बहुत अब भी करता हूं। लेकिन अब यह काम धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर है। इस बस्ती में पहले हर घर में हथकरघा (हैंडलूम) चलता था, अब सिर्फ एक-दो घरों में चलता है। हथकरघे बंद पडे हैं और उनमें धूल जमी हैं। लोग रोजगार की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं।'' यह कहना है मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर के एक बुनकर महेन्द्र कोस्टी का।

नरसिंहपुर जिला मुख्यालय है। यहां कोस्टी समुदाय के बुनकरों की बस्ती है। इस बस्ती में 20-25 परिवार हैं। अब यहां हथकरघों की खट-पट सुनाई नहीं पड ती है। कुछ समय पहले करतल ध्वनि की तरह आवाज गूंजा करती थी। गली-मोहल्लों में चहल-पहल होती थी। पुरुष हथकरघे पर बैठते थे और महिलाएं चरखा पर सूत की बाविन बनाती थी॥ जब बडे -बुजुर्ग काम से थोडा थक जाते थे तब बच्चे भी सीखने के लिहाज से हाथ आजमाया करते थे। जैसे बीस बरस पहले कैलाश ने अपने पिता के साथ करघा सीखा था। लेकिन आज वह फेरी लगाकर कपडा बेचता है क्योंकि करघा अब बंद हैं।

महेन्द्र कोस्टी कहते है कि यह घर बैठे का काम है और इसे करने में उन्हें बडा संतोष का अनुभव होता है। हाथ से होने वाली कताई-बुनाई हुनर व कौशल की मांग करती हैं, जिसमें वे दक्ष हैं। एक दिन में करीब 4-5 रजाईयों का कपडा तैयार कर लेते थे। लेकिन अब खाली हाथ हैं, काम नहीं है। सिर्फ ठंड के मौसम में करघे चलते हैं।

वे बताते है कि अब सूत महंगा हो गया। उसे जबलपुर और नागपुर से मंगाते है। और मशीनीकरण होने के कारण उनकी बुनी हुई रजाईयों की मांग कम हो गई। नई-नई डिजाईन का भी जमाना है। पावरलूम के कपड़ों से हम स्पर्धा नहीं कर सकते। इसलिए हमारी सरकार को मदद करनी चाहिए। हाल ही उन्होंने रेशम विभाग की मदद से साडियों बनाने का काम शुरू किया है, लेकिन उसमें भी सिर्फ मजदूरी ही मिलती है। अब नरसिंहपुर की तरह सिवनी, मंडला, छिंदवाडा, लोधीखेडा, सौसर आदि कई जगहों के बुनकरों की रोजगार की समस्या पैदा हो गई है।

यह काम स्वावलंबी हो सके, पूरी तरह बुनकरों के हाथ में हो, इसलिए सूत के लिए मिलों पर निर्भरता नहीं होनी चाहिए, यह गांधी जी की भी सोच थी। उन्होने यह समझ लिया था हाथ की बुनाई की आर्थिक सफलता के लिए जरूरी है कि कताई भी हाथ से ही हो।

हमने नगद फसलों से प्रेरित होकर खेती में फसलचक्र को बदल लिया है। अब स्थानीय स्तर पर कपास उपलब्ध नहीं है। हालांकि यहां के आसपास की जमीन नर्मदा कछार होने के कारण बहुत ही उपजाऊ है, जिसमें कपास की खेती संभव है। इसलिए बुनकरों को अब सूत सस्ते में उपलब्ध हो सके, यह प्रयास करना चाहिए। अन्यथा सूत महंगा होने मात्र से बुनकरों की कमर टूट जाती है। यद्यपि यहां सहकारिता का पुराना अनुभव ठीक नहीं है। लेकिन वह भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है।

हमारे देश में खेती के अलावा छोटे-छोटे परंपरागत ग्रामो द्योग व लघु कुटीर उद्योग धंधे हुआ करते थे जिनसे लोगों को रोजगार मिलता था। इन काम-धंधों का खत्म करने का सिलसिला अंग्रेजों के जमाने से ही शुरू हो गया था, जो अब भी जारी है। उन्होंने हमारे किसानों व बुनकरों की कमर तोड ने के बहुत प्रयास किए। आजादी के बाद हमने बडे-बडे उद्योग लगाने पर जोर दिया और उन्हें बढावा देने के लिए सब्सिडी भी दी गई। उन्हें आधुनिक भारत के मंदिर कहा गया। लेकिन छोटे घरेलू उद्योगों पर ध्यान नहीं दिया गया बल्कि उनकी उपेक्षा की और खत्म होने के लिए छोड दिया जिससे बेरोजगारी बढती चली जा रही है।

अर्थशास्त्री और समाजवादी विचारक श्री सुनील कहते है कि केवल खेती से ही देश के लोगों की जीविका नहीं चल सकती। खेती के पूरक के रूप में छोटे-मोटे काम धंधे भी जरूरी है। लेकिन हमने औद्योगिकीकरण के चलते बड़े उद्योगों को बढावा दिया है और छोटे उद्योगों को खत्म किया है। इससे इन उद्योगों का बाजार में कब्जा हो गया और उन्हें इन छोटे उद्योगों में लगे लोगों का सस्ता श्रम भी उपलब्ध हो गया।

बुनकरों की तरह लोहार, बढई, बंशकार, तेली, रंगरेज, मोची, भड भूजे आदि कई घरेलू काम-धंधे थे। धीरे-धीरे वे या तो खत्म हो गए, या फिर खत्म होने की कगार पर हैं। इस कारण बडी संखया में लोग बेरोजगार हो रहे हैं और उनकी रोजी-रोटी का संकट बढ ता जा रहा है।

जबकि गांधीजी का दावा था कि ''चरखा सर्वाधिक सस्ता, सहज, सस्ते और व्यावहारिक ढंग से हमारे आर्थिक क्लेश की समस्या का समाघान कर सकता है। यह राष्ट्र की समृद्धि का और इसलिए , स्वतंत्रता का प्रतीक है। वह वाणिज्यिक युद्ध का नहीं, अपितु वाणिज्यिक शांति का प्रतीक है।''

मशीनीकरण भी एक कारण है, जिससे लोग बडी संखया में बेरोजगार हो रहे हैं। हैंडलूम की जगह पावरलूम ने ले ली है। इसी प्रकार खेती में मशीनीकरण से बडे पैमाने में लोगों को खेती से अलग होना पड रहा है। खेत की जुताई से लेकर कटाई तक मशीनीकरण से काम होने लगा है जिससे लोगों को खेती में काम नहीं मिल पा रहा है। वहीं दूसरी ओर हरित क्रांति का भी संकट स्पष्ट रूप से सामने आ गया है। और हरित क्रांति वाले कई राज्यों में किसान अपनी जान दे रहे हैं।

देश के जाने-माने पत्रकार भारत डोगरा का मानना है कि आज दुनिया में जब जलवायु परिवर्तन एक चिंता का विषय का बना हुआ है, तब अनियंत्रित मशीनीकरण पर पुनर्विचार करना चाहिए। क्योंकि इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जलवायु बदलाव का संकट बढने का खतरा बढ गया है। इसलिए अब हथकरघा जैसे कामों को फिर से खडा करने की जरूरत है।