Tuesday, September 7, 2010

दम तोड़ रही हैं सतपुडा की नदियां

आमतौर पर जब कभी नदियों पर बात होती है तो ज्यादातर वह बड़ी नदियों पर केंद्रित होती है। लेकिन इन सदानीरा नदियों का पेट भरने वाली छोटी नदियों पर हमारा ध्यान नहीं जाता, जो आज अभूतपूर्व संकट से गुजर रही हैं। अगर हम नजर डालें तो पाएंगे कि कई छोटी-बडी नदियां या तो सूख चुकी हैं या फिर बरसाती नाले बनकर रह गई हैं। गांव-समाज के बीच से तालाब, कुंए और बाबडी जैसे परंपरागत पानी के स्रोत तो पहले से ही खत्म हो गए हैं। अब इन छोटी नदियों पर आए संकट से बडी नदियां तो प्रभावित हो ही रही हैं। जनजीवन के साथ पशु-पक्षी और वन्य- जीवों को भी परेशानी का सामना करना पड  रहा है।

देश-दुनिया में नदियों के किनारे ही सभ्यताएं पल्लवित-पुष्पित हुई है। जहां जल है, वहां जीवन है। लेकिन आज नदियां धीरे-धीरे दम तोड  रही हैं। नदियों का प्रवाह अवरूद्ध  हो रहा है। वर्षों पुरानी नदी संस्कृति खत्म रही है। उनमें पानी नहीं हैं,  पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखने वाली रेत नहीं है। सतपुडा अंचल की बारहमासी सदानीरा नदियां या तो सूख गई है या बारिश में ही  उनकी जलधारा प्रवाहित होती हैं, फिर टूट जाती है। उनके किनारे लगे हरे-भरे पेड  और उन पर रहने वाले पक्षी भी अब नजर नहीं आते। यानी पानी बिना सब सून।

मध्यप्रदेश में सतपुड़ा पहाड  और जंगल कई छोटे-बडे नदी-नालों का उद्‌गम स्थल है। पहाड  और जंगलों में पेड  पानी को जडों में संचित करके रखते हैं और  धीरे-धीरे वह पानी रिसकर नदियों में जलधाराओं के रूप में प्रवाहित होता है। और एक्वीफर के माध्यम से संचित पानी भूजल में संग्रहीत होता है।

जंगल कम हो रहे हैं। कुछ वर्षों से बारिश कम हो रही है या खन्ड बारिश हो रही है । बार-बार सूखा पड रहा है। इसके अलावा, नदियों के तट पर बडी तादाद में ट्‌यूबवेल खनन किए जा रहे हैं। डीजल पंप से सीधे पानी को खेतों में लिफट करके सिंचाई की जा रही है। स्टापडेम बनाकर पानी को उपर ही रोक लिया जाता है, जिससे जलधारा आगे नहीं बढ  पाती। उद्योगीकरण और शहरीकरण बढ  रहा है। ज्यादा पानी वाली फसलें लगाई जा रही हैं। बेहिसाब पानी इस्तेमाल किया जा रहा है।

सतपुडा की दुधी, मछवासा, आंजन, ओल, पलकमती और कोरनी जैसी नदियां धीरे-धीरे दम तोड  रही हैं। देनवा में अभी पानी नजर आता है लेकिन उसमें भी साल दर साल पानी कम होता जा रहा है। तवा और देनवा में भी पानी कम है। अमरकंटक से निकलकर इस इलाके से गुजरने वाली सबसे बडी नर्मदा भी इसी इलाके से गुजरती है। इनमें से ज्यादातर नदियां नर्मदा में मिलती हैं। इनके सूखने से नर्मदा भी प्रभावित हो रही है।

अगर हम मध्यप्रदेद्गा के पूर्वी छोर पर होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले विभक्त करने वाली दुधी नदी की बात करें, तो नदियों के संकट को समझा जा सकता है। यह नदी कुछ वर्ष पहले तक एक बारहमासी सदानीरा नदी थी। दुधी यानी दूध के समान। साफ और स्वच्छ। छिंदवाड़ा जिले में महादेव की पहाडियों से पातालकोट से दुधी निकलती है और सांडिया से ऊपर खैरा नामक स्थान में नर्मदा में आकर मिलती है। यह नर्मदा की सहायक नदी है। पर आज दुधी में एक बूंद भी पानी नहीं ढूंढने से नहीं मिलता। बारिश के दिनों में ही पानी रहता है और अप्रैल-मई माह तक आते-आते पानी की धार टूट जाती है और रेत ही रेत नजर आती है।

 जहां कभी पानी होने के कारण नदी में जनजीवन की चहल-पहल होती थी, पशु-पक्षी पानी पीते थे। बरौआ- कहार समुदाय के लोग इसकी रेत में डंगरवारी तरबूज-खरबूज की खेती करते थे। धोबी कपडे धोते थे, मछुआरे मछली पकड ते थे, केंवट समुदाय के लोग जूट के रेशों से रस्सी बनाते थे। वहां अब सन्नाटा पसरा रहता है। नदी संस्कृति खत्म हो गई है। अब लोग नदी के स्थान पर हैंडपंप और ट्‌यूबवेल पर आश्रित हो गए हैं, जिनकी अपनी सीमाएं हैं।

इसी जिले के पिपरिया कस्बे से गुजरने वाली मछवासा नदी भी सूख चुकी है। सोहागपुर की पलकमती कचरे से पट गई है। इन नदियों में जो पानी दिखता है, वह नदियों का नहीं, शहरों की गंदी नालियों का है। पलकमती से ही पूरे सोहागपुर का निस्तार होता था। सोहागपुर का रंगाई उद्योग और पानी की खेती दूर-दूर तक मशहूर थे। अब यह खेती अपनी अंतिम सांसें गिन रही है।


तवा और नर्मदा पर बांध बनाए गए हैं। उनसे सैकडों गांव विस्थापित हुए। जबसे बरगी बांध बना है तबसे तरबूज-खरबूज की खेती चौपट हो गई है। बरगी बांध १९९० में बन गया लेकिन उसकी नहरें आज तक नहीं बनी। इसलिए बांध में ज्यादा पानी रहता है तो छोड  दिया जाता है जिससे डंगरवारी बह जाती है। नर्मदा बांध बनने से उसमें मछलियां भी कम हो गई है।

हालांकि नर्मदा उसकी कई सहायक नदियों के सूखने के कारण वह बहुत कमजोर हो गई है। लेकिन हम इस सबसे नहीं चेत रहे हैं और पानी का बेहिसाब इस्तेमाल से पानी के स्रोतों को ही खत्म कर रहे है, जो शायद फिर पुनर्जीवित न हो सकें। अगर हमें बड़ी नदियों को बचाना है तो छोटी नदियों पर ध्यान देना होगा। छोटी नदियों का संरक्षण जरूरी है। अगर हम इन पर छोटे-छोटे स्टापडेम बनाकर जल संग्रह करें तो नदियां भी बचेंगी और खेती में भी सुधार संभव है।