Tuesday, October 30, 2012

सतपुड़ा मेरी खिड़की पर


पिछले कुछ महीनों से पिपरिया से इटारसी टे्रन से आना-जाना हो रहा है। इस दौरान कर्इ लोगों से साक्षात्कार होता है। इनमें सब्जी वाले, दूध वाले, मूढगटठा (जलाऊ लकड़ी) व बकरियों के लिए पतितयां ले जाने वाली महिलाएं आदि शामिल होते हैं। इसके अलावा, निर्माण मजदूर, नौकरी पेशा वाले, कालेज के छात्र छात्राएं और स्कूली बच्चे होते हैं।

खिड़की से बाहर देखो तो और भी खूबसूरत नजारा दिखार्इ देता है। फिल्म की रील की तरह चलचित्र दौड़ते दिखार्इ देते हैं। कभी सतपुड़ा की हरी-भरी पहाडि़यां दिखती हैं तो कभी खेतों में हिरण और चिंकारा कुलांचे भरते दिखते हैं। कभी रंग-बिरंगी साडि़यों में महिलाएं काम करते हुए दिखती हैं तो कभी खेतों में निंदार्इ-गुड़ार्इ लोग दिख जाते हैं। कभी छोटे-छोटे नदी नाले तो कभी दूर-दूर तक खेतों में लहलहाती फसलें।

सोहागपुर में पलकमती नदी के पुल से पान के बरेजे दिखते हैं। यहां के बंगला पान बहुत फेमस हैं। यह बहुत पुराना कस्बा है। यहां पुरानी तहसील हुआ करती थी। इसके बारे में एक कहावत है कि पढ़े न लिखे, सोहागपुर रहन लगे। यह कहावत इसलिए भी है कि यहां पर कचहरी में केस लड़े जाते थे। इसके लिए वकीलों की जरूरत होती थी। सोहागपुर में पुरानी तहसील हुआ करती थी।

यहां कुछ नौकरी पेशा वाले, कोर्ट-कचहरी के कारण पढ़े-लिखे लोग रहते होंगे। यहां की सुराहियां, मिटटी के बर्तन व दुर्गा की मूर्तियां प्रसिद्ध हैं। खुरचन नामक मिठार्इ भी खास है। यहां पहले कपड़ा रंगार्इ का उधोग भी हुआ करता था। साडियां प्रिंट होती थी। घरों में चरखे चलते थे। कपड़ा रंगार्इ अब सिर्फ यादों में है। अब तो पलकमती नदी भी कचरे से पट गर्इ है।

सोहागपुर से चले तो गुरमखेड़ी फिर बागरा तवा स्टेशन आता है। बागरा के कबेलू की प्रसिद्धि थी। यहां कबेलू के भटटे हैं। पर अब लेंटर वाली छतों की वजह से इनकी मांग कम है।

बागरा से सतपुड़ा की हरी-भरी पहाडि़यां मेरी खिड़की के नजदीक आ जाती हैं। जिसके लिए मैं हमेशा खिड़की की सीट पर ही बैठना पसंद करता हूं, जो कर्इ बार मिल जाती है। इन पहाडि़यों को देखकर इसी क्षेत्र के मशहूर कवि भवानी प्रसाद मिश्र की कविता खुद ब खुद याद आ जाती है- सतपुड़ा के घने जंगल, ऊंघते अनमने जंगल।

आगे चले तो बोबदा यानी गुफा के अंदर से टे्रन गुजरती है। यह काफी लंबा है और इसमे घुप्प अंधेरा रहता है। बच्चे व युवा यहां जोर-जोर से कूका (आवाज) लगाते हैं। इसके बारे में मशहूर लेखक भारतेन्दु हरिशचंद्र ने अपने यात्रा वृत्तांत में जिक्र किया है। तवा पुल पर तवा नदी का मनोहारी दृष्य देखते ही बनता है। नीचे नाव चलती दिखार्इ देती हैं। जाल डाले मछुआरे बैठे रहते हैं। तवा बांध भी दिखार्इ देता है।

सोनतलार्इ से स्कूली लड़के-लड़कियां टे्रन में सवार होते हैं, जो गुर्रा में उतर जाते हैं। वे ट्रेन से अप-डाउन करते हैं। बड़ी संख्या में कालेज जाने वाली लड़कियां जाती हैं। यहां से मूढगटठा वाली महिलाएं भी चढ़ती हैं। इन महिलाओं को पहले जंगल जाना पड़ता है, सूखी लकडि़यां बीनना-काटना पड़ता है। फिर वे इटारसी या सोहागपुर या पिपरिया बेचने लाती है। इनमें से कर्इ ऐसी हैं जो अपने घर के लिए भी लकडि़यां लाती हैं, क्योंकि शहरों में जलाउ लकड़ी महंगी है।

सतपुड़ा के इस होशगाबाद जिला भौगोलिक दृषिट से दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक है सतपुड़ा की जंगल पटटी व दूसरा है नर्मदा का कछार। रेल की पटरियां दोनों को विभक्त करती हैं। दक्षिण में सतपुड़ा की पहाडि़यां और उत्तर में नर्मदा का कछार। जंगल पटटी में मुख्य रूप से गोंड और कोरकू आदिवासी रहते हैं। और नर्मदा के कछार, जो काफी उपजाऊ माना जाता है, में अधिकांष गैर आदिवासी।

अक्सर टे्रन में कुछ पुराने मित्रों व जान-पहचान वाले लोगों से मुलाकात हो जाती है। कुछ समय पहले पिपरिया के होशगाबाद विज्ञान िशक्षण कार्यक्रम से जुडे़ रहे िशक्षक प्रेमशकर भार्गव व एम. एल. पटेल से मुलाकात हुर्इ। उन्होंने विज्ञान षिक्षण दौरान हुए अनुभव साझा किए।

होषंगाबाद विज्ञान षिक्षण कार्यक्रम की षुरूआत किषोर भारती व फें्रडस रूरल सेंटर रसूलिया ने की  थी। बाद में एकलव्य संस्था ने इस काम को व्यवसिथत ढंग से संभाला। एकलव्य ने विज्ञान षिक्षण के अलावा समाज में व खासतौर से बच्चों में किताबें पढ़ने की रूचि विकसित करने के लिए पुस्तकालय भी खोले। पिपरिया एकलव्य पुस्तकालय में जाता रहता हूं, जहां गोपाल राठी से मुलाकात होती है। वे बरसों से पुस्तकालय चला रहे हैं।

 कहा जा सकता है कि सफर में आनंद है, गंतव्य में नहंी। लेकिन गंतव्य पर  तो पहुंचना पड़ता है ही। पिपरिया स्टेषन पर उतरते ही दक्षिण में एक विशाल वृक्ष दिखता है, जिसमें लाखों की संख्या में परिन्दे का आशियाना है। वे उड़ते-उड़ते चहचहाते हुए उस पर कूदते-फांदते हैं। मैं सोचता हूं अगर ये पेड़ न रहे तो ये कहां जाएंगे?


Thursday, October 25, 2012

तोत्तो चान


तोत्तो चान बीस साल बाद फिर पढ़ रहा हूं। यह एक ऐसी जापानी लड़की की कहानी है कि जिसका स्कूल एक रेल के डिब्बे में लगता है। तोत्तो चान को उसकी अजीबोगरीब हरकतों व बाल सुलभ रूचियों की वजह से उसके पहले वाले स्कूल से निकाल दिया गया था। उसके मां-बाप को यह चिंता सताए जा रही थी कि अब कैसे पढेगी?


तभी उन्हें इस नए स्कूल का पता चला। तोत्तो चान अपनी मां के साथ इस स्कूल में दाखिले के लिए तो डरी-सहमी थी लेकिन वहां का माहौल देखते उसका डर धीरे-धीरे खुषी में बदल गया। उसे यह जानकर हैरानी हुर्इ कि उसका स्कूल एक रेल डिब्बे में है, किसी बिलिडंग में नहीं।

तोत्तो ने अपनी मां से सवाल पूछा कि हेडमास्टर हैं या स्टेशन मास्टर। तोत्तो ने ही जवाब दिया कि जब वे इतने रेल डिब्बों के मालिक हैं तो स्टेशन मास्टर हुए न।

हेडमास्टर जी ने तोत्तो की मां से कहा आप जा सकती है, मैं आपकी बेटी से बात करना चाहता हूं। पहले तोत्तो को लगा कि मैं क्या बात करूंगी। जब हेडमास्टर जी ने कहा कि  अब तुम अपने बारे में मुझे बताओ। कुछ भी, जो तुम बताना चाहो, सब कुछ। तोत्तो ने कहा जो मुझे अच्छा लगे बताउ। उसने जो कुछ कहा वह अनगढ़ था। कभी वह जिस रेलगाड़ी से आर्इ थी उसके बारे में बताती। कभी अपने पुराने स्कूल की सुंदर शिक्षिका के बारे में तो कभी यह कि अबाबील का घोंसला कैसा है?

पापा और मम्मी कैसे हैं? मास्टर जी पूछते जाते, फिर। वह बताती जाती। फिर उसने अपनी सुंदर फ्राक के बारे में बताया। जब खूब सोचने पर भी कुछ नहीं बोली तब मास्टर जी ने कहा तोत्तो चान अब तुम इस स्कूल की छात्रा हो।

अब स्कूल वह बड़े मजे से जाने लगी। दोपहर भोजन के बाद सैर करने जाती थी, यह उसे नर्इ चीज लगी। सैर करने जाते समय ही शिक्षक ज्ञान-विज्ञान की छोटी-छोटी चीजें बताते। फूल कैसे बनता है, स्त्रीकेसर व पुंकेसर क्या होता है।

यह किताब काल्पनिक नहीं है, बलिक ऐसा स्कूल सचमुच था, जिसे कोबाया ने बड़े जतन से बनाया था। जापान में तोत्तो अब एक मशहूर दूरदर्षन कलाकार के रूप में जानी जाती है, जिन्होंने यह किताब लिखी है। यह किताब बेस्ट सेलर है। अगली किस्त में तोत्तो के बारे में और जानिए...

Tuesday, October 23, 2012

एनिमल फार्म

इन दिनों मेरा इटारसी आना-जाना काफी हो रहा है। करीब डेढ़ घंटे ट्रन का सफर। खिड़की से लम्बवत सतपुड़ा की पहाडि़यां दिखार्इ देती हैं, जो बहुत भाती हैं। मेरे झोले में अखबार और किताबें रहती हैं, जिनसे मेरा सफर कब कट जाता है, पता ही नहीं चलता।
कल मैंने जार्ज आरवेल की मशहूर किताब एनिमल फार्म पढ़ी। यह अदभुत किताब है। रूसी क्रांति के असफल होने के बहुत पहले आर्इ इस किताब ने उथल-पुथल मचा दी थी। यह एक ऐसे फार्म की कहानी है जिस पर सुअरों के नेतृत्व में जानवरों ने कब्जा कर लिया था। इसे पहले मैनर फार्म कहा जाता था जिसे बाद में एनिमल फार्म का नाम दे दिया गया।
कहानी कुछ तरह शुरू होती है कि मेजर नाम के सुअर ने ऐसा सपना देखा कि इंसान ही जानवरों का शत्रु हैं और हर जानवर मित्र। जानवरों में एकता होना चाहिए।
मेजर की जल्द ही मौत हो जाती है, वह बूढ़ा हो चुका था। लेकिन उसके विचार को नेपोलियन, स्नोबाल, और स्क्वीलर नामक तीन युवा सुअरों ने एक विचारधारा का रूप दे दिया और इसका वाद भी बनाया-जानवरवाद।
इसके सात नियम भी बनाए गए। जिसमें एक-जो दो पैरों पर चलता हो, वह शत्रु है। दो, जो चार पैरों पर चलता हो या जिसके पंख हों, मित्र है। तीन, कोर्इ भी जानवर कपड़े नहीं पहनेगा। चार, कोर्इ भी जानवर बिस्तर पर नहीं सोएगा। पांच, कोर्इ भी जानवर शराब नहीं पिएगा। छह, एक जानवर दूसरे जानवर को नहीं मारेगा। सात, सभी जानवर समान है।
लेकिन धीरे-धीरे इन नियमों को सुअरों ने अपने लिए शिथिल कर लिया। जब ये सवाल उठा कि गायों के दूध का क्या होगा, उन्होंने इस सवाल को टाल दिया। बाद में पता चला कि दूध उनकी सानी में मिलाया जा रहा था। बूढ़ी घोड़ी को सजने-संवरने की इच्छा हुर्इ तो उसे गुलामी की निषानी बताया गया।
इन जानवरों की पढ़ार्इ-लिखार्इ की व्यवस्था की गर्इ, लेकिन सुअर तो पढ़ने-लिखने में दक्ष हो गए। दूसरे जानवर ज्यादा कुछ नहीं सीख पाए। इनमें से कुछ सिर्फ इतना ही सीख पाए कि वे नियम पढ़ सकें।
बाक्सर जो मेहनती घोड़ा था, उसे बूढ़ा होने पर बूचड़खाने भेज दिया गया। यह कहकर कि पशु चिकित्सालय इलाज के लिए ले जाया रहा है। नेपोलियन, जो फार्म का मुखिया था, उसे बाक्सर की बहुत चिंता है, ऐसा कहा गया। लेकिन वास्तव में उसे काटा जा चुका था।
इस बीच सुअरों की सुविधाओं में इजाफा होता गया। नेपोलियन ने अपने विरोधी सुअरों को रास्ते से अलग कर दिया। और वह खुद मुखिया बन जाता है। वे शराब पीने लगे। गददों पर सोने लगे। कपड़े अच्छे पहनने लगे। वे सब वो काम करने लगे जो उनके बनाए हुए नियमों के खिलाफ थे।
अंत में जब बहुत शोरगुल सुनार्इ देता है तो सब जानवर एकत्र हो जाते हैं खिड़की से जो देखते हैं उससे हैरान हो  जाते हैं। नेपोलियन एक आदमी के साथ ताष के पत्ते खेल रहा था। उसने अच्छी रंग-बिरंगी पोशाक पहने थी। कभी जानवर नेपोलियन को देखते कभी उस इंसान को, जो उसके साथ ताष खेल रहा था। दोनों में कोर्इ फर्क नजर नहीं आ रहा था।
यह पूरा उपन्यास रूसी क्रांति के बाद रूस की सिथति पर आधारित है। उपन्यास अदभुत, रोचक है और कसा हुआ है। इसे दुबारा पढ़ने का मन है।