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बारहनाजा |
चिपको आंदोलन से निकले विजय जड़धारी पिछले कई बरसों से बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े हुए हैं। सत्तर के दषक में यहां पेड़ों को कटने से बचाने के लिए अनूठा चिपको आंदोलन हुआ था जिसमें ग्रामीणों ने पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने के लिए देश-दुनिया में मिसाल पेश की थी। इस आंदोलन में महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। यह आंदोलन देश-दुनिया में प्रेरणा का स्त्रोत बना।
विजय जड़धारी इसी आंदोलन से जुड़े हुए थे। चूंकि वे गांव में रहते हैं इसलिए उन्होंने बहुत जल्द ही रासायनिक खेती के खतरे को भांप लिया और खेती बचाने के लिए देसी बीजों की परंपरागत खेती को पुनर्जीवित किया। उन्होंने कहा कि रासायनिक खेती की शुरूआत में कृषि विभाग के लोग मुफ्त में बीज किट दिया करते थे। उसमें रासायनिक खाद भी होता था। उससे उपज तो बढी, लेकिन बढ़ने के बाद क्रमशः धीरे-धीरे कम होती गई। जब हमने देसी बीजों की तलाश की तो हमें नहीं मिले। लेकिन हमारी देसी बीजों की तलाश जारी रही। अंततः हमें ऐसे किसान मिले जो मिलवां या मिश्रित खेती करते थे। बारहनाजा यानी बारह तरह के अनाज एक साथ बोते थे।
बारहनाजा में बारह अनाज ही हों, यह जरूरी नहीं। इसमें ज्यादा भी हो सकते हैं। दरअसल, बारहनाजा भोजन की सुरक्षा व पोषण के लिए तो उपयोगी है ही। साथ में खेती और पशुपालन के रिष्ते को भी मजबूत बनाता है। फसलों के अवषेष जो ठंडल, चारा व भूसा के रूप में बचते हैं, वे पशुओं के आहार बनते हैं। गाय-बैल के गोबर से ही भूमि की उर्वर शक्ति बढ़ती है।
यहां बारहनाजा में कौन-कौन से अनाज बोते हैं, यह जानना भी उचित होगा। कोदा (मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुट्टू, ), जोन्याला (ज्वार ), मक्का, राजमा, गहथ (कुलथ ), भटट, रैयास, उड़द, सुंटा, रगडवास, गुरूंया, तोर, मूंग, भंजगीर, तिल, जख्या, सण, काखड़ी आदि।
बारहनाजा का एक फसलचक्र है। यहां की लगभग 13 प्रतिशत भूमि सिंचित है और 87 प्रतिशत असिंचित। सिंचित भूमि में ज्यादा विविधता नहीं है। जबकि असिंचित भूमि में विविधतायुक्त बारहनाजा दलहन, तिलहन आदि की विविधतापूर्ण खेती होती है। इसमें मिट्टी बचाने का भी जतन होता है। इसलिए फसल कटाई के बाद वे खेत को पड़ती छोड़ देते हैं। जमीन को पुराने स्वरूप में लाने की कोशिश की जाती थी। अब तो एक वर्ष में तीन-तीन चार फसलें ली जा रही हैं। मिट्टी-पानी का बेहिसाब दोहन किया जा रहा है।
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विजय जडधारी |
उतेरा में एक साथ बोने वाले अनाज जैसे धान, ज्चार, कोदो, राहर और तिल्ली। उतेरा पद्धति के बारे में किसानों की सोच यह है कि अगर एक फसल मार खा जाती है तो उसकी पूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है। जबकि नकदी फसल में कीट या रोग लगने से या प्राकृतिक आपदा आने से पूरी फसल नष्ट हो जाती है जिससे किसानों को भारी नुकसान होता है। उतेरा की खास बात यह भी है कि इसमें मिट्टी का उपजाऊपन खत्म नहीं होता। कई फसलें एक साथ बोने से पोषक तत्वों का चक्र बराबर बना रहता है। अनाज के साथ फलियोंवाली फसलें बोने से नत्रजन आधारित बाहरी निवेषों की जरूरत कम पड़ती है। फसलों के डंठल तथा पुआल उन मवेशियों को खिलाने के काम आते हैं जो जैव खाद पैदा करते है। इस प्रकार मनुष्यों को खेती से अनाज, पशुओं को भोजन और मिट्टी का उपजाऊपन भी उतेरा अक्षुण्ण है।
यानी हमें टिकाऊ खेती की ओर बढ़ना होगा। पर्यावरण और मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। मेढबंदी व भू तथा जल संरक्षण के उपाय करने होंगे। हमारी खेती में मानव की भूख मिटाने के साथ पर्यावरण संरक्षण व समस्त जीव-जगत के पालन का विचार भी था। जो बेतहाशा रासायनिक खादों के साथ गुम होता जा रहा है। इसलिए हमें टिकाऊ खेती को अपनाने की जरूरत है। बीज बचाओ आंदोलन का यह प्रयास सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।
(लेखक विकासात्मक मुद्दो पर लिखते है)
18 फरवरी,2010, जनसत्ता नयी दिल्ली मै प्रकाशित.
12 मई, 2010, द पायोनिएर दिल्ली में प्रकाशित.
आप का लेख ताजी हवा के झोंके की तरह है।
ReplyDeleteआभार।
क्या आप विजय जी का पता और सम्पर्क मुझे भेज सकते हैं ?
'बीज बचाओ आन्दोलन' और उसके प्रणेता के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा। 'बारहनाजा' की संकल्पना भी मुझे नहीं पता थी। जानकारी के लिये आभार।
ReplyDelete@गिरिजेशराव
ReplyDeleteविजय जडधारी,
बीज बचाओ आन्दोलन,
डाकखाना-नागडी, टिहरी गढ़वाल,
उत्तराखंड- 249175
बाबा मायाराम जी को बधाई। आपकी यह पोस्ट खतरे की खेती शीर्षक से दैनिक जनसत्ता के आज 18 फरवरी 2010 में पेज 6 पर समांतर स्तंभ में प्रकाशित हुर्इ है। जिससे आपके लेख की गुणवत्ता और महत्ता दोनों स्वयंसिद्ध हैं।
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