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जनगढ़ सिंह श्याम का चित्र |
भारत भवन के खुलने में थोड़ी देर थी। मैं पास ही बड़ी झील के किनारे पत्थरों पर बैठ गया। दूर-दूर तक नीला पानी। नजरें जहां तक जातीं पानी ही पानी। दूर सफेद बगुलों की टोलियां बैठी हुर्इ। बहुत ही खूबसूरत नजारा।
भारत भवन में दोपहर 1 बजे गए और 3 बजे तक रहे। इस दौरान वहां के कुछ कलाकारों, कर्मचारियों व चित्रकला के विधार्थियों से मुलाकात की। पेंटिंग्स व मूर्तिकला तो देखी ही। मुकितबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन व अज्ञेय के कविता पोस्टर भी पढ़े। मुकितबोध के हस्तलिखित पत्र व कविताएं पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
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जनगढ़ सिंह श्याम का चित्र |
जे जे स्कूल बाम्बे से निकले तुषार मूर्ति बनाने के लिए मिटटी को तैयार कर रहे थे। वह कुछ समय के लिए इस स्टूडियो में मूर्तिकला सीख रहे हैं। इसी प्रकार एक युवती जिसने एक महिला की मूर्ति की बनार्इ थी, उसकी मुंदी आंखें को खोल रही थी और कानों को आकार दे रही थी।
यहां लोहे, पीतल, मिटटी व अन्य धातुओं से बनी मूर्तियों की प्रदर्शनी लगी हुर्इ है, जो यहां एक नए वातावरण का निर्माण करती हैं। ऐसा लगता है, झील से जो हवा इनसे टकराती है, जिससे एक नर्इ ध्वनि निकलती है, वह सुरीली व मोहक है।
रूपंकर में चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी जिसमें जनगढ़सिंह श्याम, जो मंडला के आदिवासी कलाकार थे और भारत भवन से जुड़े हुए थे, के चित्र भी थे। जनगढ़ की स्मृति इसलिए भी आत्मीय है क्योंकि उन्होंने मेरी कहानी के लिए चित्र बनाए थे। यह कहानी वर्ष 1984 में एक पत्रिका में छपी थी।

जे. स्वामीनाथन की चिडि़या और पहाड़ तो देखे ही रजा की विराट बिन्दु से भी साक्षात्कार हुआ। स्वामीनाथन भारत भवन के शुरूआत से जुड़े और उन्होंने उसे एक आकार दिया। सतपुड़ा की पहाडि़यों में जब मैं अपने बेटे के साथ पक्षियों को विचरण करते देखता हूं, स्वामीनाथन की याद यक ब यक आ जाती है। उनकी स्मृति तबसे मेरे मानसपटल पर अंकित है जब वे गैस पीडि़तों के साथ सड़क पर उतर आए थे।
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जे. स्वामीनाथन का चित्र |
आज मुझे कलागुरू विष्णु चिंचालकर की भी याद आ गर्इ, जिन्होंने मुझे देखना सिखाया। एक कलादृषिट दी, जिसे मैं अपने लेखन के जरिए सामने लाने की कोशिश करता रहा हूं। वे कबाड़ से जुगाड़ से बेहतर कृतियों को सृजित कर देते थे। ऐसा मैंने यहां के कलाकारों को बताया। मुझे आष्चर्य हुआ कि उन्होंने कलागुरू विष्णु चिंचालकर का नाम नहीं सुना था।
दीपावली के बाद लगने वाले मढर्इ मेले, मोरपंख से बनी ढालें, देवताओं के चबूतरा, त्रिशूल, शादी-विवाह के समय लगने वाले खम्भ, घड़े, हाथी और मिटटी के बैलों को प्रदर्शित किया गया है।
चित्रकला कभी लोकमानस में व्याप्त थी। कुम्हारों की घड़े व सुराहियों पर अंकित चित्र, भितित चित्र, तुलसी कोट व घर के आले व आलमारियों में चित्रकारी, लकडि़यों के दरवाजों पर नक्काशियां जनसाधारण में आम बात थी। आदिवासियों में यह अब भी शेष है।
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जे. स्वामीनाथन का चित्र |
बढ़िया।
ReplyDeleteअच्छा आलेख परन्तु इसे थोड़ा और गहराई से लिखो भाई भारत भवन और यहाँ की बाकी गतिविधियाँ प्रकाशन और एक नाटक जगत जो इसे देश में ज्यादा प्रसिद्धि देता है...............बहरहाल बढ़िया है............
ReplyDeleteसंदीप नाईक.......
ReplyDeleteJanGarh Singh ke chitro ki pradarshani hamein bhi dikhane ke liye dhanyawad. Apki tippani ki yeh chitra aadivasi sanskriti ki katha kehte hain, bahut pasand aayi.