Wednesday, November 15, 2017

हमेशा नेपथ्य में रहते थे अशोक जी


अशोक जी, यानी अशोक सेकसरिया, लेकिन हम सब उन्हें अशोक जी कहते थे. उनकी बहुत सी यादें हैं, मेरे मानस पटल पर.
 फोन पर लगातार बातें तो होती रहती थी,मिला भी तीन-चार बार. लेकिन जब भी मिला बहुत स्नेह मिला.


जब सामयिक वार्ता, दिल्ली से इटारसी आ गई, लगातार उनसे फोन पर चर्चा होती रही.यह सिलसिला आखिर तक बना रहा. 

आखिरी मुलाकात उनके घर कोलकाता में 26  जून 2014 को हुई,जब मैं अपने बेटे विकल्प के साथ मिलने गया था.  दोपहर के दो बजे होंगे. वे अपने कमरे में बिस्तर पर बैठे कुछ पढ़ रहे थे.बिस्तर पर और उसके आसपास किताबें फैली हुई थी. वे कहने लगे- मेरे एक मित्र मिलने आने वाले हैं- बाबा मायाराम. मैंने कहा- मैं ही हूं बाबा. वे  बोले- अरे, देखिए, मायाराम मेरी याददाश्त कुछ कमजोर हो गई है। लेकिन मैं  उनके घर 6 घंटे रहा, उनकी याददाश्त बहुत अच्छी थी, उन्हें सब कुछ याद था.

उन्होंने बताया कि वे दो बार केसला गए हैं. एक बार 1982 में और दूसरी बार  किशन जी ( किशन पटनायक) की किताबों का संपादन करने। पहली बार जब गए थे तब
सुनील भाई बांसलाखेड़ा में रहते थे. वहां पहुंचने के लिए नदी पड़ती थी.
उसमें बहुत पानी था और हमें उसे पार करने में भींगना पड़ा था. शायद बरसात
के दिन थे. यह जंगल के बीच में बहुत ही रमणीक जगह थी.

मैंने उन्हें शांति निकेतन के बारे में बताया. वहां मैे फाइन आर्ट में
अपने बेटे के एडमिशन के लिए गया था. एक घटना सुनाई. मैंने उन्हें बताया
कि एक महिला बस में चढ़ी, मैं भी उसी बस में था. महिला ने कंडक्टर को बस
में चढ़ते ही बता दिया- मेरे पास पैसे नहीं हैं. कंडक्टर ने कहा- कोई बात
नहीं। उन्होंने ध्यान से सुना और मुझे बताया- उनके एक परिचित भी गरीब
हैं, जो कुछ दूर पैदल चलते है, फिर बस पकड़ते हैं. जिससे थोड़े पैसे बच
जाते हैं. मैंने कहा- अशोक जी मध्यप्रदेश में बिना पैसे टिकट चलना
मुश्किल है. कंडक्टर पीट कर भगा देगा.

अशोक जी सामयिक वार्ता की शुरूआत से जुड़े थे. लेकिन मेरा ज्यादा संपर्क
हाल ही में तब हुआ जब सामयिक वार्ता इटारसी आ गई. सुनील भाई उनसे लगातार
संपर्क रखते थे. जब हम वार्ता के नये अंक बारे में सोचते थेअशोक जी की
राय लेते थे. कभी किसी विषय पर अनिर्णय की स्थिति में होते थे, उनकी राय
लेते थे. किसी शब्द के अर्थ पर अटकते थे, उनसे पूछते थे. जितना सरल
हिन्दी में लिखते थे, उसकी कोई सानी नहीं है. सहज और सटीक.

वे शब्दों के अर्थ ढूढ़ने उस समय तक जुटे रहते थे, जब तक संतुष्ट न हो
जाते. उस दिन भी अलका सरावगी ने उन्हें फोन कर बताया था कि उनके घर में
कोई बीमार है. बीमारी का नाम भी बताया था, वे लगातार शब्दकोश में उस
बीमारी के बारे में तलाश करते रहे. साथ में हमसे बात करते रहे.मेरे बेटे
ने उनका स्कैच बनाया. वे मुस्कराए और कहा लगातार स्कैच बनाते रहो. मेरे
कमरे का भी बनाओ. किताबों को दिखाते हुए कहा.

जब मैंने उन्हें बताया मैं इंदौर में पढ़ा हूं, वे पूछने लगे होमी दाजी
के बारे में. होमी दाजी, मशहूर मजदूर नेता होने के साथ लोकसभा सदस्य रह
चुके हैं. उन्होंने कला गुरू विष्णु चिंचालकर को भी याद किया. 
उन्होंने कहा कि गुरूजी के दोस्तों को भी याद किया जिसमें कुमार गंधर्व भी थे. 

अशोक जी, हमेशा अपने आपको पीछे रखते थे. अपने नाम से नहीं लिखते थे. उनकी
कहानियों की किताब भी उनके मित्रों ने प्रकाशित करवाई, बिना उनकी जानकारी
के. वे सामयिक वार्ता में भी रामफजल ने नाम से लिखते थे.

उन्होंने कई लोगों को तराशा बनाया.कईयों को लेखक बनाया. ऐसे लोगों को भी
जिनका लिखने- पढ़ने की दुनिया से वास्ता नहीं था. बेबी हालदार इसका अच्छा
उदाहरण है, जो एक कामवाली महिला थी, जिसे प्रोत्साहित कर अशोक जी ने ही
एक विख्यात लेखक बना दिया. आज उसकी किताब- आलो आंधारि बेस्टसेलर है.
छुपकर सृजन करना अशोक जी के ही बस का था, वे बिरले इंसान थे, हमारे बीच
जब हर आदमी प्रचार का आजन्म भूखा है.

उनकी सहजता और सरलता अपना बना लेती थी. उनकी जैसी सादगी और
सिद्धांतनिष्ठा की आज बहुत जरूरत है. वे एक उम्मीद थे,इसलिए हमेशा ऐसे
लोगों से घिरे रहते थे जो कुछ करना चाहते हैं. कुछ नया सोचते हैं, जो कुछ
सीखना चाहते हैं. हमें अब बात करते उनसे 5-6 घंटे हो गए थे. इस बीच हमने
तीन चार चाय पी. वे दरवाजे तक छोड़ने आए- फिर बात होगी- मायाराम। सुनील
भाई के बाद अशोक जी का जाना, मेरे लिए बहुत बड़ा सदमा है.
संजय भारती के घर आज अशोक जी को याद किया जा रहा है. कल अलका सरावगी ने
भी बताया था. हम हमेशा उनको याद करते रहेंगे और उनकी राह पर चलते रहेंगे.
उनको शत्- शत् प्रणाम!

(यह संस्मरण मैंने 2015 में लिखा था. 29 नवंबर को उनकी पुण्यतिथि है)

Friday, November 10, 2017

वैचारिक जड़ता के खिलाफ पृथ्वी मंथन

भारत में वैश्वीकरण के असर पर पर्यावरणविद् आशीष कोठारी और असीम श्रीवास्तव की नई किताब आई है- पृथ्वी मंथन। यह किताब बताती है भारत में वैश्वीकरण से क्या हो रहा है, कहां हो रहा है और इसका देश के बड़े तबके पर क्या असर हो रहा है। और जबसे यह  प्रक्रिया चली है तबसे अब तक जो विकास हो रहा है, जिस गति से हो रहा है, उसका सामाजिक और पर्यावरणीय क्या कीमत चुकाई जा रही है।

लेखकद्व देश के प्रमुख पर्यावरणविद् हैं। आशीष कोठारी, पर्यावरणविद् होने के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता भी रहे हैं। लेखकद्व ने वैश्वीकरण को एक विदेशी अर्थशास्त्री के हवाले से वैश्वीकरण पर लिखा है कि आप एक ऐसे पिल्ले की कल्पना कीजिए जिसे एक खास तरह की खुराक खिलाई जा रही है। इस खुराक की वजह से उसके शरीर की बढ़त इस तरह विकृत हो जाती है कि उसकी एक टांग तो बहुत तेजी से बढ़ती है और बाकी तीन टांगें छोटी-बड़ी रह जाती हैं। इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक लोग इससे वंचित रह जाते हैं और कुछ ही लोगों को इसका फायदा होता है।

आर्थिक सुधार और वैश्वीकरण के नाम पर न केवल वे वंचित रह जाते हैं बल्कि तेज विकास दर के नाम पर उन्हें अपने ही घर-बार, जल, जंगल, जमीनों को भी छीना जा रहा है। बड़ी बड़ी परियोजनाओं के लिए गांवों को उजाड़ा जा रहा है। विशेष आर्थिक क्षेत्रो( स्पेशल इकोनामिक जोन- सेज) हो या कोई और योजना। खेती की जमीन ली जा रही है। जमीन के बदले जो मुआवजा मिल रहा है, वह नई पीढ़ी के जरिए बाजार में चला जाता है। किसान खाली हाथ रह जाता है। गांव ही नहीं विस्थापन की यह प्रक्रिया शहरों में भी चल रही है।

किताब में बताया गया है कि निवेश के नाम पर जो वित्तीय पूंजी भारत में आई उससे भारत में नई उत्पादन क्षमता और रोजगारों में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई उल्टे यहां के बाजारों से रिटर्न जरूर कमा लिया। और इस वित्तीय पूंजी जो शेयर बाजारों में लगी है, वह अगर वह निवेशकों को लाभदायक न लगे तो पलक झपकते ही लौट जाएगी। जो शुरूआत में कहा गया था कि सुधारों से भारतीय अर्थव्यवस्था, यहां के बाजार मजबूत होंगे, रोजगारों बढ़ेंगे वह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है। उद्योगपतियों की संख्या भी बढ़ी, उनका कारोबार भी बढ़ा, मुनाफा भी बढ़ा पर रोजगार सृजन नहीं हुए।

किताब में बताया गया है कि सभी क्षेत्रों में रोजगार कम हुआ है। कृषि क्षेत्र में भी मशीनीकरण व उद्योगीकरण के कारण रोजगार कम हुआ है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1983 से 2005 के बीच खेती में सक्रिय श्रम शक्ति 68 प्रतिशत से घटकर 56 प्रतिशत रह गई है। कृषि की स्थिति लगातार कमजोर होती गई है। इस बात के प्रमाणस्वरूप कई आंकड़े पेश जा सकते हैं। किसानों की आत्महत्याएं रुक नहीं रही हैं।

एक आंकड़ा बताता है कि 1993-94 और 2004-05 के बीच बेरोजगारी में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। एनएसएस के आंकड़े बताते हैं कि वार्षिक रोजगार वृद्धि दर 1983 से 1993 के बीच 2.34 प्रतिशत थी जो 1993-94 से 1999-2000 के बीच गिरकर मात्र 0.86 रह गई थी जबकि श्रमशक्ति वार्षिक 2 प्रतिशत से भी ज्यादा दर से बढ़ रही थी।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तेजी से हो रहा है। खनन तेजी से किया गया। विलासिता की वस्तुओं के लिए संसाधनों का दोहन बढ़ा पर इससे पर्यावरण का बड़ा नुकसान हुआ, जैव-विविधता नष्ट हुई और स्थानीय समुदायों की स्थायी आजीविका छीनी गई। उपभोक्तावाद के नाम पर कचरा संस्कृति बढ़ी जिससे जीवन दुश्वार हुआ। आयात-निर्यात खोलने से विदेशी सामानों से बाजार पट गए, खनिजों आदि का निर्यात बढ़ा, जिसके लिए भारी पर्यावरणीय कीमत चुकाई गई। इसके लिए सारे नियम ताक पर रखे गए।

क्या इस प्रक्रिया से गरीबी कम हुई। 2007-08  के सरकारी आर्थिक सर्वेक्षण में दावा किया गया है कि कुल आबादी में गरीबों का अनुपात 1993-94 में 36 प्रतिशत था जो 2004-05 में 27.5 प्रतिशत रह गया था। लेकिन सेनगुप्ता कमेटी के मुताबिक भारत के 77 प्रतिशत लोग प्रतिदिन 20 रूपए या उससे भी कम खर्चा कर पाते हैं।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी के हवाले से वैश्वीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट तरीके से बताया गया है कि विकास दर में इजाफे और  बढ़ती असमानता की प्रक्रियाएं समानांतर चलने लगती हैं। अमीरों के लिए चीजें तैयार करने के वास्ते बड़े-बड़े निगमों की जरूरत होती है और इस प्रक्रिया में वे गरीब देशों के ऐसे तबके को मोटी-मोटी तनख्वाह वाले रोजगार मुहैया कराते हैं जो उनके बढ़ते बाजार के उपभोक्ता बनेंगे। यह कारपोरेट संपदा रचने की एक विनाशकारी प्रक्रिया बन जाती है जिसमें दक्षिण से लेकर वाम तक एक नई राजनीतिक साझेदारी उभरने लगती है। 

औद्योगिकीकरण के जरिए प्रगति इस रास्ते की पहचान बन जाती है। मध्यवर्ग के जनमत निर्माता और मीडियाकर्मी एकजुट हो जाते हैं और केवल कभीकभार ही बेदखल किए गए लोगों की जायज मुआवजे की हल्की फुल्की आवाजें उठाते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि औद्योगिकीकरण के नाम पर होनेवाले जबर्दस्त विस्थापन और तबाही के हालात में सम्मानजनक वैकल्पिक रोजगार कैसे पैदा किए जाएं।

यह किताब मौजूदा अर्थव्यवस्था का तथ्यात्मक विश्लेषण ही नहीं करती बल्कि विकल्पों पर रोशनी भी डालती है। भोर की किरणें नामक भाग में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसमें बताया गया कि विकल्पों की कमी नहीं है। ओडिशा के डोंगरिया कौंध आदिवासियों ने नियमगिरी पहाड़ी को लेकर अपनी लड़ाई जीत ली है। स्थानीयकरण जो वैश्वीकरण का विलोम है। इस मान्यता पर आधारित है कि जो लोग संसाधनों के सबसे निकट रहते आए हैं उन्हीं के पास उन संसाधनों को संभालने का सबसे ज्यादा अधिकार होना चाहिए। प्राकृतिक स्वराज की अवधारणा के मूल्यों को विस्तार से बताया गया है। और भी कई उदाहरण हैं जो प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण करते हुए, पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाते हुए और आजीविका को सुरक्षित रखते हुए विकास किया जा सकता है। मुझे यह किताब पढ़ते हुए समाजवादी चिंतक किशन पटनायक की किताब विकल्पहीन नहीं है दुनिया की याद आई। बहरहाल, यह किताब ऐसे समय आई है जब विकास की चकाचौंध में विचार का संकट भी है। यह किताब वैचारिक जड़ता के खिलाफ भी है। 204 पृष्ठों की यह महत्वपूर्ण किताब राजकमल से वर्ष 2016 में प्रकाशित है।

(यह लेख सप्रेस से जारी हो चुका है)

  

रावल जी की याद

समाजवादी चिंतक और जन आंदोलनों के वरिष्ठ साथी ओमप्रकाश रावल जी की कल पुण्यतिथि है। 23 बरस बीत उनका निधन हुए, लेकिन उनकी स्मृति सदैव बनी रहती है।

लंबी कद काठी, सफेद कुर्ता पायजामा, चेहरे पर मोटी फ्रेम का चश्मा और स्मित मुस्कान उनकी पहचान थी। पुरानी लूना से शहर में कार्यक्रमों में इधर उधर जाना। बिल्कुल बिना तामझाम और दिखावे के, सहज।

सोचता हूं उन पर लिखूं, फिर यह भी कि क्या? दोहराऊ कि वे एक इंदौर के परसरामपुरिया स्कूल के प्राचार्च थे, जेपी और लोहिया से प्रभावित होकर मास्टरी छोड़ दी, मीसा में जेल गए, विधानसभा चुनाव में जीत गए, शिक्षामंत्री भी बने, लेकिन जल्द ही समझ गए कि व्यवस्था में एक व्यक्ति की सीमाएं हैं। मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और मुख्यधारा की राजनीति से नाता तोड़ जन संगठनों और जन आंदोलनों से जुड़ गए।

रावल जी से मेरा परिचय 1988 में हुआ जब मैं इन्दौर में पढ़ने गया था। नईदुनिया में काम करता था। मैंने उनसे हास्टल में एडमिशन की सिफारिश चाही, उन्होंने और उनकी पत्नी कृष्णा रावल जी ने मुझे अपने घर ही रख लिया। बोले यही रहकर पढ़ो।

मैं रावल जी ( ओमप्रकाश रावल) के साथ बैठकर अखबार पढ़ता था। किताबें पढ़ता था। देश-दुनिया की घटनाओं पर बात होती थी। बड़े बांध और पर्यावरण पर उन दिनों उनकी खास नजर रहती थी।

रावल जी का जब मुख्यधारा की राजनीति से मोहभंग हुआ तो वे और सक्रिय हो गए। एक नई वैकल्पिक शक्ति को खड़ा करने के लिए। वे छोटे-छोटे संगठनों और आंदोलन को ताकत और समर्थन देने के लिए तत्पर रहने लगे। चाहे वह नर्मदा बचाओ आंदोलन की बड़े बांधों के खिलाफ लड़ाई हो या फिर भोपाल गैस पीड़ित संगठन की, चाहे वह छत्तीसगढ़ के खदान मजदूरों की लड़ाई हो या फिर होशंगाबाद व झाबुआ के आदिवासियों की, वे वहां जाते और उन मुद्दों पर लिखते।

जब मैं आज के समाजवादियों के कई संस्करण देखता हूं तो मुझे रावल जी की याद आ जाती है। उनकी सादगी, ईमानदारी और गरीबों के प्रति गहरी संवेदना की मिसालें याद आ जाती हैं। उनका घर जन संगठनों व आंदोलनकारियों का अड्डा हुआ करता था। वहां मेधा पाटकर, किशन पटनायक, स्वामी अग्निवेश से लेकर कई सामाजिक कार्यकर्ता आते थे, ठहरते थे और कई मुद्दों पर बातें चलती रहती थीं।

इन्दौर में गुरूजी (मशहूर चित्रकार विष्णु चिंचालकर ), महेन्द्र भाई ( सर्वोदय प्रेस सर्विस के सम्पादक), राहुल बारपुते ( नईदुनिया के सम्पादक) जैसी हस्तियां थी जो जन सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर गहरी रूचि लेते थे और सामाजिक कार्यकर्ताओं की चिंता करते थे और उनकी मदद करते थे। उनकी पीठ पर हाथ रखते थे। चिन्मय मिश्र, तपन भट्टाचार्य, सुभाष रानाडे और बसंत शित्रे आदि इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। रावल जी जैसी हस्तियों को न केवल याद रखने की जरूरत है बल्कि आज उनके विचार और व्यक्तित्व से कुछ सीखकर आगे काम करने की जरूरत है। 
( यह लेख मैंने इस साल फरवरी (2017) में उनकी पुण्यतिथि पर लिखा था)

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Thursday, November 9, 2017

विकल्प खोजने वाले विचारक

किशन जी (किशन पटनायक) का स्मरण करते ही कितनी ही बातें खयाल में आती हैं। उनकी सादगी, सच्चाई और आदर्शमय जीवन की, दूरदराज के इलाकों की लम्बी यात्राओं की, राजनीति के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की कोशिशों की और उनके ओजस्वी व्याख्यानों की, जहां लोग चुपचाप उनके भाषणों को सुनते रहते थे।

किशन जी की याद और उन पर लिखना इसलिए जरूरी नहीं है कि वे हमारे प्रेरणास्त्रोत थे, हम उनके निकट थे, वे तो थे ही। पर उनका स्मरण इसलिए भी जरूरी है कि आज किशन जी होते तो सामयिक घटनाओं और परिस्थिति पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करते। शायद इसे बताना नामुमकिन है कि वे फलां घटना पर क्या कहते। पर उनकी जो दृष्टि थी, उनका जो नजरिया था सोचने का, उसको समझने से हमारी दृष्टि साफ हो सकती है, कुछ रोशनी मिल सकती है।

किशन जी के व्यक्तित्व और विचार पर बात करूं, इससे पहले उनके बारे में कुछ बातें दोहराना उचित होगा। जैसे किशन जी सिर्फ 32 साल की उम्र में 1962  में संबलपुर (ओड़िशा) लोकसभा के सदस्य बने थे। राममनोहर लोहिया के सहयोगी थे। लोहिया के गुजर जाने के बाद उनके साथियों में भी सत्ता के लिए छटपटाहट दिखी, बिखराव हुआ। इस सबको देखते हुए समाजवादी आंदोलन से उनका मोहभंग हो गया था और फिर उन्होंने मुख्यधारा की राजनीति का एक सार्थक विकल्प बनाने की लगातार कोशिश की थी। लोहिया विचार मंच, समता संगठन, जनांदोलन समन्वय समिति और समाजवादी जन परिषद बनाकर नीचे से जनशक्ति को संगठित कर नई राजनीति को गढ़ने का प्रयास करते रहे।

वे कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी करते रहे। राममनोहर लोहिया के साथ मैनकाइन्ड के सम्पादक मंडल में काम किया।  उन्होंने सामयिक वार्ता नामक मासिक पत्रिका 1977 से शुरू की जो अब भी वाराणसी से निकल रही है। 
 
किशन जी का कोई घर नहीं था, न कोई जमीन, न संपत्ति और न ही कोई बैंक बैलेंस। न उन्होंने लोकसभा सदस्य के नाते पेंशन ली। 60 वर्ष की आयु के बाद रेलवे का पास लिया था। उन्होंने अपनी जरूरतें बहुत ही सीमित कर ली थी। लेकिन सामाजिक बदलाव की चाह में रात-दिन लगे रहते थे।
किशन जी से मेरा संपर्क 80 के दशक में हुआ। मुझे लगातार उनसे मिलने, बात करने और साथ में यात्रा करने का मौका मिलता रहा। लिंगराज भाई और सुनील भाई के माध्यम से मैं लगातार किशन जी के संपर्क में रहा। वे मितभाषी थे और समय के बहुत पाबंद। अक्सर बैठकों में पीछे बैठते थे और सबको चुपचाप सुनते रहते थे और अंत में बोलते थे।

वे गांधी- लोहिया की धारा को आगे ले जाने वाले मौलिक चिंतक थे। उनका सारा राजनैतिक चिंतन किसी सामयिक घटनाओं से उपजा हुआ था। वे लगातार देश भर में घूमते थे, सोचते और लिखते थे। उनसे प्रभावित होने वालों का दायरा बड़ा था जिसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर पत्रकार, अफसर,साहित्यकार,शिक्षाविद् और समाजशास्त्री थे।  

किशन जी मुख्यधारा की राजनीति का विकल्प खड़ा करना चाहते थे क्योंकि उनका मानना था कि सभी राजनीतिक पार्टियों की नीतियां एक सी हैं, पर अलग-अलग होने का स्वांग करती हैं। जनसाधारण की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं। लेकिन इसकी बहुत जल्दी में नहीं थे। वे कहते थे विकल्प जल्दी में तैयार नहीं होते हैं, इसमें सालों लगते हैं। और अगर जल्द खड़े हो भी जाएं तो जल्द ढह जाते हैं। इसका उन्हें जनता पार्टी की सरकार का अनुभव भी था।

इसलिए जब समता संगठन बना तो यह घोषणा की गई कि हम दस साल तक चुनाव नहीं लड़ेंगे। इसके पीछे शायद अपने कार्यकर्ताओं को आदर्शों, सिद्धांत में दीक्षित करना और नीचे से हाशिये के समुदायों की जनशक्ति को संगठित करना होगा। साथ ही अगर लम्बे समय तक कोई भी कार्यकर्ता और नेतृत्व आदर्शमय जीवन जिएगा तो सत्ता में आने के बाद वह जल्द भ्रष्ट भी नहीं हो पाएगा, यह भी रहा होगा।

किशन जी प्रभाव से देश के अलग-अलग कोनों में कई युवा अपना कैरियर छोड़कर राजनीति से समाज परिवर्तन के लक्ष्य में लग जुट गए। जिसमें ओडिशा,मध्यप्रदेश,बिहार,उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और केरल जैसे राज्यों में कई साथी, समर्थक और सहानुभूति रखने वाले बरसों तक काम करते रहे।

किशन जी  की एक खास बात यह है कि वे सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ताओं की समस्याओं से हमेशा चिंतित रहते थे। एक बार कानपुर में कार्यकर्ताओं की समस्याओं पर बोलते-बोलते उनका गला रुंध गया था। वे चाहते थे कार्यकर्ताओं के लिए समाज जीवन निर्वाह में मदद करे।

इसका अच्छा प्रयोग समता भवन बरगढ़( ओडिशा) में किया भी, जहां कई कार्यकर्ता बहुत ही न्यूनतम सुविधाओं में रहते थे और समाज के निचले तबके की समस्याओं पर आंदोलन करते और संगठन को मजबूती प्रदान करते। इस खपरैल वाला समता भवन कार्यकर्ताओं के लिए तीर्थ स्थान की तरह हो गया था, जहां से हमेशा प्रेरणा और अच्छाई मिलती है। ओडिशा के लिंगराज भाई ने किशन जी से प्रभावित होकर कैरियर छोड़ा और आज वे ओडिशा के साथ देश भर में किसानों  और आदिवासियों की समस्याओं को लेकर काम कर  रहे हैं।

हाल के वर्षों में वैकल्पिक राजनीति का शब्द का इस्तेमाल काफी हो रहा है। इसके सूत्रधार किशन पटनायक ही थे। अगर वैकल्पिक राजनीति में एक वैकल्पिक राजनैतिक संस्कृति नहीं बनेगी, जो लम्बे समय तक जमीनी काम करने और सिद्धांत व आदर्शमय जीवन से आती है। धीरज और आदर्शों पर दृढ़ता से आती है। अगर ऐसा नहीं होगा तो राजनैतिक दलों की विकल्प की चाह सत्ता मिलते ही खत्म हो जाती है। जैसे समाजवादी नाम वाले दलों का समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है, सिर्फ नाम ही बचा है। उनका समाजवाद सत्ता तक ही सीमित है।

किशन जी की उपस्थिति बौद्धिकता की चमक देती थी। उनमें गहरी अन्तरदृष्टि थी। वे आर-पार देख लेते थे। वे एक शिक्षक की भांति प्याज के छिलकों की तरह किसी भी विषय की परतें खोलते चलते थे और जनता मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहती थी। उनकी दुनिया बड़ी थी। वे समाजवादी चिंतक तो थे पर उससे भी आगे वैकल्पिक शक्तियों को एक सूत्र में पिराने वाले संगठनकर्ता भी थे। उनमें स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास की झलक देख सकते थे।

उन्होंने कई ऐसे मुद्दों को अपने चिंतन के केन्द्र में रखा जिस पर अक्सर बात भी नहीं होती है। विस्थापन, खनन, भुखमरी, किसानों की समस्य़ा, दलितों और आदिवासियों के सवाल, नर-नारी समता और राजनीति में मूल्यों का ह्रास, बुद्धिजीवी, समाज, सभ्यता और पत्रकारिता जैसे कई मुद्दों पर उनके विचार प्रासंगिक है। कालाहांडी की भूख का मुद्दा उन्होंने बहुत जोर-शोर से उठाया था। किशन जी वैकल्पिक राजनीति के सूत्रधार थे। किशन जी अब नहीं हैं। 27 सितंबर 2004 को वे हमारे बीच से चले गए। पर उनके विचार हमेशा राह दिखाते रहेंगे जिनसे भविष्य में वैकल्पिक राजनीति गढ़ी जा सकेगी।