Thursday, November 9, 2017

विकल्प खोजने वाले विचारक

किशन जी (किशन पटनायक) का स्मरण करते ही कितनी ही बातें खयाल में आती हैं। उनकी सादगी, सच्चाई और आदर्शमय जीवन की, दूरदराज के इलाकों की लम्बी यात्राओं की, राजनीति के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की कोशिशों की और उनके ओजस्वी व्याख्यानों की, जहां लोग चुपचाप उनके भाषणों को सुनते रहते थे।

किशन जी की याद और उन पर लिखना इसलिए जरूरी नहीं है कि वे हमारे प्रेरणास्त्रोत थे, हम उनके निकट थे, वे तो थे ही। पर उनका स्मरण इसलिए भी जरूरी है कि आज किशन जी होते तो सामयिक घटनाओं और परिस्थिति पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करते। शायद इसे बताना नामुमकिन है कि वे फलां घटना पर क्या कहते। पर उनकी जो दृष्टि थी, उनका जो नजरिया था सोचने का, उसको समझने से हमारी दृष्टि साफ हो सकती है, कुछ रोशनी मिल सकती है।

किशन जी के व्यक्तित्व और विचार पर बात करूं, इससे पहले उनके बारे में कुछ बातें दोहराना उचित होगा। जैसे किशन जी सिर्फ 32 साल की उम्र में 1962  में संबलपुर (ओड़िशा) लोकसभा के सदस्य बने थे। राममनोहर लोहिया के सहयोगी थे। लोहिया के गुजर जाने के बाद उनके साथियों में भी सत्ता के लिए छटपटाहट दिखी, बिखराव हुआ। इस सबको देखते हुए समाजवादी आंदोलन से उनका मोहभंग हो गया था और फिर उन्होंने मुख्यधारा की राजनीति का एक सार्थक विकल्प बनाने की लगातार कोशिश की थी। लोहिया विचार मंच, समता संगठन, जनांदोलन समन्वय समिति और समाजवादी जन परिषद बनाकर नीचे से जनशक्ति को संगठित कर नई राजनीति को गढ़ने का प्रयास करते रहे।

वे कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी करते रहे। राममनोहर लोहिया के साथ मैनकाइन्ड के सम्पादक मंडल में काम किया।  उन्होंने सामयिक वार्ता नामक मासिक पत्रिका 1977 से शुरू की जो अब भी वाराणसी से निकल रही है। 
 
किशन जी का कोई घर नहीं था, न कोई जमीन, न संपत्ति और न ही कोई बैंक बैलेंस। न उन्होंने लोकसभा सदस्य के नाते पेंशन ली। 60 वर्ष की आयु के बाद रेलवे का पास लिया था। उन्होंने अपनी जरूरतें बहुत ही सीमित कर ली थी। लेकिन सामाजिक बदलाव की चाह में रात-दिन लगे रहते थे।
किशन जी से मेरा संपर्क 80 के दशक में हुआ। मुझे लगातार उनसे मिलने, बात करने और साथ में यात्रा करने का मौका मिलता रहा। लिंगराज भाई और सुनील भाई के माध्यम से मैं लगातार किशन जी के संपर्क में रहा। वे मितभाषी थे और समय के बहुत पाबंद। अक्सर बैठकों में पीछे बैठते थे और सबको चुपचाप सुनते रहते थे और अंत में बोलते थे।

वे गांधी- लोहिया की धारा को आगे ले जाने वाले मौलिक चिंतक थे। उनका सारा राजनैतिक चिंतन किसी सामयिक घटनाओं से उपजा हुआ था। वे लगातार देश भर में घूमते थे, सोचते और लिखते थे। उनसे प्रभावित होने वालों का दायरा बड़ा था जिसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं से लेकर पत्रकार, अफसर,साहित्यकार,शिक्षाविद् और समाजशास्त्री थे।  

किशन जी मुख्यधारा की राजनीति का विकल्प खड़ा करना चाहते थे क्योंकि उनका मानना था कि सभी राजनीतिक पार्टियों की नीतियां एक सी हैं, पर अलग-अलग होने का स्वांग करती हैं। जनसाधारण की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं। लेकिन इसकी बहुत जल्दी में नहीं थे। वे कहते थे विकल्प जल्दी में तैयार नहीं होते हैं, इसमें सालों लगते हैं। और अगर जल्द खड़े हो भी जाएं तो जल्द ढह जाते हैं। इसका उन्हें जनता पार्टी की सरकार का अनुभव भी था।

इसलिए जब समता संगठन बना तो यह घोषणा की गई कि हम दस साल तक चुनाव नहीं लड़ेंगे। इसके पीछे शायद अपने कार्यकर्ताओं को आदर्शों, सिद्धांत में दीक्षित करना और नीचे से हाशिये के समुदायों की जनशक्ति को संगठित करना होगा। साथ ही अगर लम्बे समय तक कोई भी कार्यकर्ता और नेतृत्व आदर्शमय जीवन जिएगा तो सत्ता में आने के बाद वह जल्द भ्रष्ट भी नहीं हो पाएगा, यह भी रहा होगा।

किशन जी प्रभाव से देश के अलग-अलग कोनों में कई युवा अपना कैरियर छोड़कर राजनीति से समाज परिवर्तन के लक्ष्य में लग जुट गए। जिसमें ओडिशा,मध्यप्रदेश,बिहार,उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और केरल जैसे राज्यों में कई साथी, समर्थक और सहानुभूति रखने वाले बरसों तक काम करते रहे।

किशन जी  की एक खास बात यह है कि वे सामाजिक और राजनैतिक कार्यकर्ताओं की समस्याओं से हमेशा चिंतित रहते थे। एक बार कानपुर में कार्यकर्ताओं की समस्याओं पर बोलते-बोलते उनका गला रुंध गया था। वे चाहते थे कार्यकर्ताओं के लिए समाज जीवन निर्वाह में मदद करे।

इसका अच्छा प्रयोग समता भवन बरगढ़( ओडिशा) में किया भी, जहां कई कार्यकर्ता बहुत ही न्यूनतम सुविधाओं में रहते थे और समाज के निचले तबके की समस्याओं पर आंदोलन करते और संगठन को मजबूती प्रदान करते। इस खपरैल वाला समता भवन कार्यकर्ताओं के लिए तीर्थ स्थान की तरह हो गया था, जहां से हमेशा प्रेरणा और अच्छाई मिलती है। ओडिशा के लिंगराज भाई ने किशन जी से प्रभावित होकर कैरियर छोड़ा और आज वे ओडिशा के साथ देश भर में किसानों  और आदिवासियों की समस्याओं को लेकर काम कर  रहे हैं।

हाल के वर्षों में वैकल्पिक राजनीति का शब्द का इस्तेमाल काफी हो रहा है। इसके सूत्रधार किशन पटनायक ही थे। अगर वैकल्पिक राजनीति में एक वैकल्पिक राजनैतिक संस्कृति नहीं बनेगी, जो लम्बे समय तक जमीनी काम करने और सिद्धांत व आदर्शमय जीवन से आती है। धीरज और आदर्शों पर दृढ़ता से आती है। अगर ऐसा नहीं होगा तो राजनैतिक दलों की विकल्प की चाह सत्ता मिलते ही खत्म हो जाती है। जैसे समाजवादी नाम वाले दलों का समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है, सिर्फ नाम ही बचा है। उनका समाजवाद सत्ता तक ही सीमित है।

किशन जी की उपस्थिति बौद्धिकता की चमक देती थी। उनमें गहरी अन्तरदृष्टि थी। वे आर-पार देख लेते थे। वे एक शिक्षक की भांति प्याज के छिलकों की तरह किसी भी विषय की परतें खोलते चलते थे और जनता मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहती थी। उनकी दुनिया बड़ी थी। वे समाजवादी चिंतक तो थे पर उससे भी आगे वैकल्पिक शक्तियों को एक सूत्र में पिराने वाले संगठनकर्ता भी थे। उनमें स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास की झलक देख सकते थे।

उन्होंने कई ऐसे मुद्दों को अपने चिंतन के केन्द्र में रखा जिस पर अक्सर बात भी नहीं होती है। विस्थापन, खनन, भुखमरी, किसानों की समस्य़ा, दलितों और आदिवासियों के सवाल, नर-नारी समता और राजनीति में मूल्यों का ह्रास, बुद्धिजीवी, समाज, सभ्यता और पत्रकारिता जैसे कई मुद्दों पर उनके विचार प्रासंगिक है। कालाहांडी की भूख का मुद्दा उन्होंने बहुत जोर-शोर से उठाया था। किशन जी वैकल्पिक राजनीति के सूत्रधार थे। किशन जी अब नहीं हैं। 27 सितंबर 2004 को वे हमारे बीच से चले गए। पर उनके विचार हमेशा राह दिखाते रहेंगे जिनसे भविष्य में वैकल्पिक राजनीति गढ़ी जा सकेगी।   

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