इस वर्ष खाली रह गया तालाब, यह शीर्षक था एक दीवार अखबार का, जो सतपुड़ा पर्वतीय क्षेत्र के एक छोटे से गांव के स्कूली बच्चों ने तैयार किया था। रंग-बिरंगी स्याही से हस्तलिखित अखबारों को जब मैंने देखा तो देखता ही रह गया। हरे-भरे खेत, जंगल, मोर, शेर, नदी, नहर और तालाब के सुंदर चित्रों ने मन मोह लिया। यह दीवार अखबार बच्चों ने तीन दिनी कार्यशाला के बाद बनाए थे।
2 से 4 दिसंबर तक चली मीडिया कार्यशाला के आखिरी दिन बच्चों की टोलियों ने 9 दीवार अखबार बनाए। इसके पहले उन्होंने अपने आसपास के मुद्दों की पहचान और लेखन की बारीकियों को जानने की कोशिश की। मेरी स्कूली बच्चों के साथ यह दूसरी कार्यशाला थी। ग्रामीण पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए कार्यशालाओं का पूर्व अनुभव था।
बच्चों ने खबर बनाने से लेकर संपादन तक सभी काम खुद किए। संपादक के नाम चिट्ठी और साक्षात्कार की सावधानियों को समझा। कार्यशाला में 6 वीं से लेकर 8 वीं तक के करीब 40 बच्चों ने भाग लिया। यह कार्यशाला मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में पिपरिया के पास समनापुर में हुई। यह कार्यशाला एकलव्य संस्था के सहयोग से की गई।
दूसरे दिन बच्चों की टोलियों ने गांव और खेत-खलिहान में जाकर ग्रामीणों से साक्षात्कार लिए। अपने ही बच्चों को नई भूमिका में देखकर ग्रामीणों को सुखद आश्चर्य हुआ। खेती-किसानी, जंगली जानवर, गांव के परंपरागत रोजगार, पशुपालन, बिजली-सड़क की दैनंदिन समस्याएं आदि विषयों पर जानकारी एकत्र की। एक टोली को गांव की कुछ महिलाओं के सवालों का भी सामना करना पड़ा, जो किसी पत्रकार के लिए आम बात है। लेकिन इन बच्चों के लिए यह नई और परेशानी की बात थी।
आम तौर पर स्कूलों मंे छुट्टी के लिए आवेदन पत्र और पत्र लेखन भी याद करवाया जाता है। लेकिन यहां बच्चों ने अपने मन से गांव की समस्याओं पर संपादक के नाम पत्र लिखे। यद्यपि उनकी भाषा में अनगढ़पन और अशुद्धियां थी लेकिन उनमें नयापन था। एक सपाट और सीधी सादी बात थी। उन्होंने बारिश से होने वाली अड़चनों और लड़कियों के लिए जरूरी हाईस्कूल की मांग को अपनी लेखनी का विषय बनाया। राहड (अरहर) दाल के कम उत्पादन के कारण गिनाए।
अगर हम भाषागत त्रुटियों को नजरअंदाज कर दें तो इन बच्चों की सोच और कल्पनाओं का दायरा बड़ा है। गांव से लेकर देश-दुनिया की समस्याओं को उन्होंने अपनी खबरों में जगह दी। अपने स्कूल के खेल मैदान के गड्ढे से लेकर बारिश कम होने जैसी खबरों को प्रमुखता दी। खेल मैदान की स्थानीय समस्या है तो बारिश कम होने का संबंध मौसम परिवर्तन से जोड़ा जा सकता है, जो दुनिया में चिंता का कारण बना हुआ है। दालों के महंगे दामों की चर्चा हो रही है। यह पूरा इलाका दालों के लिए प्रसिद्ध है। नर्मदा कछार की उपजाऊ मिट्टी में पैदा हुई तुअर की दालें मशहूर हैं। यहां बच्चों ने राहड (अरहर )में इल्ली और नगदी फसलों के कारण उसके रकबे में कमी की खबर को प्रमुखता दी।
जंगली सुअरों से फसलों का नुकसान, यह केवल एक गांव की नहीं बल्कि पूरे सतपुड़ा पर्वतीय क्षेत्र की समस्या है। शेर बचाने के लिए तो देश में काफी चिंता जताई जा रही है लेकिन जंगली जानवरों खासकर सुअरों से किसानों की फसलों को बचाने के लिए कोई आवाज नहीं है। जबकि इन क्षेत्रों में बहुत ही मामूली और गरीब किसान हैं। प्रकृति के नजदीक रहने वाले आदिवासी हैं, जो बहुत ही कम संसाधनों में अपना गुजारा करते हैं। लेकिन उनके जंगल से निस्तार पर कई तरह की रोक है।
2 से 4 दिसंबर तक चली मीडिया कार्यशाला के आखिरी दिन बच्चों की टोलियों ने 9 दीवार अखबार बनाए। इसके पहले उन्होंने अपने आसपास के मुद्दों की पहचान और लेखन की बारीकियों को जानने की कोशिश की। मेरी स्कूली बच्चों के साथ यह दूसरी कार्यशाला थी। ग्रामीण पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए कार्यशालाओं का पूर्व अनुभव था।
बच्चों ने खबर बनाने से लेकर संपादन तक सभी काम खुद किए। संपादक के नाम चिट्ठी और साक्षात्कार की सावधानियों को समझा। कार्यशाला में 6 वीं से लेकर 8 वीं तक के करीब 40 बच्चों ने भाग लिया। यह कार्यशाला मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में पिपरिया के पास समनापुर में हुई। यह कार्यशाला एकलव्य संस्था के सहयोग से की गई।
दूसरे दिन बच्चों की टोलियों ने गांव और खेत-खलिहान में जाकर ग्रामीणों से साक्षात्कार लिए। अपने ही बच्चों को नई भूमिका में देखकर ग्रामीणों को सुखद आश्चर्य हुआ। खेती-किसानी, जंगली जानवर, गांव के परंपरागत रोजगार, पशुपालन, बिजली-सड़क की दैनंदिन समस्याएं आदि विषयों पर जानकारी एकत्र की। एक टोली को गांव की कुछ महिलाओं के सवालों का भी सामना करना पड़ा, जो किसी पत्रकार के लिए आम बात है। लेकिन इन बच्चों के लिए यह नई और परेशानी की बात थी।
आम तौर पर स्कूलों मंे छुट्टी के लिए आवेदन पत्र और पत्र लेखन भी याद करवाया जाता है। लेकिन यहां बच्चों ने अपने मन से गांव की समस्याओं पर संपादक के नाम पत्र लिखे। यद्यपि उनकी भाषा में अनगढ़पन और अशुद्धियां थी लेकिन उनमें नयापन था। एक सपाट और सीधी सादी बात थी। उन्होंने बारिश से होने वाली अड़चनों और लड़कियों के लिए जरूरी हाईस्कूल की मांग को अपनी लेखनी का विषय बनाया। राहड (अरहर) दाल के कम उत्पादन के कारण गिनाए।
अगर हम भाषागत त्रुटियों को नजरअंदाज कर दें तो इन बच्चों की सोच और कल्पनाओं का दायरा बड़ा है। गांव से लेकर देश-दुनिया की समस्याओं को उन्होंने अपनी खबरों में जगह दी। अपने स्कूल के खेल मैदान के गड्ढे से लेकर बारिश कम होने जैसी खबरों को प्रमुखता दी। खेल मैदान की स्थानीय समस्या है तो बारिश कम होने का संबंध मौसम परिवर्तन से जोड़ा जा सकता है, जो दुनिया में चिंता का कारण बना हुआ है। दालों के महंगे दामों की चर्चा हो रही है। यह पूरा इलाका दालों के लिए प्रसिद्ध है। नर्मदा कछार की उपजाऊ मिट्टी में पैदा हुई तुअर की दालें मशहूर हैं। यहां बच्चों ने राहड (अरहर )में इल्ली और नगदी फसलों के कारण उसके रकबे में कमी की खबर को प्रमुखता दी।
जंगली सुअरों से फसलों का नुकसान, यह केवल एक गांव की नहीं बल्कि पूरे सतपुड़ा पर्वतीय क्षेत्र की समस्या है। शेर बचाने के लिए तो देश में काफी चिंता जताई जा रही है लेकिन जंगली जानवरों खासकर सुअरों से किसानों की फसलों को बचाने के लिए कोई आवाज नहीं है। जबकि इन क्षेत्रों में बहुत ही मामूली और गरीब किसान हैं। प्रकृति के नजदीक रहने वाले आदिवासी हैं, जो बहुत ही कम संसाधनों में अपना गुजारा करते हैं। लेकिन उनके जंगल से निस्तार पर कई तरह की रोक है।
स्कूली शिक्षा से बाहर देश के बहुत ही कम भाग्यवान बच्चे हैं जिन्हें जानने-सीखने का मौका मिलता है। मौजूदा शिक्षा सिर्फ परीक्षा में कंठस्थ करके उगल देने पर जोर देती है। ठूंस-ठूंस कर ज्ञान की घुट्टी पिलाने से बच्चे शिक्षा से जुड़ते नहीं है, उससे दूर छिटकते हैं। इसमें सोचने-समझने का मौका नहीं मिलता। अपने आसपास के परिवेश से जुड़ना और सीखना। नई-नई चीजों को देखना, उनका अहसास करना और अपने शब्दों में व्यक्त करना, यह भी शिक्षा का एक माध्यम है, ऐसी कोशिश करना फालतू माना जाता है। लेकिन वास्तव में यह भी शिक्षा का एक माध्यम है। इसका एक आयाम है किसी भी चीज को समग्रता में देखना। समाचार बनाने में खबर के सभी पहलुओं को शामिल किया जाता है, जिससे बच्चे किसी खबर के सभी पहलुओं से परिचित हो
छोटी उम्र में ही बच्चे बहुत कुछ सीखते-समझते हैं, यह सर्वज्ञात है। लेकिन यही कीमती समय उनका नीरस और उबाऊ शिक्षा में चले जाते हैं। अगर इस अवधि में उन्हें हम आसपास के वातावरण से जानने-सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। प्रकृति को गुरू मानकर उससे सीखा जाए, और इनसे सीखकर उन्हें शब्दों में ढाला जाए तो बेहतर शिक्षा मिल पाएगी। शिक्षा का एक और एक माध्यम है स्कूली पाठ्यक्रम के अलावा कई तरह की किताबें। किताबों की सैर करना और उनमें गोतें लगाना, शिक्षाप्रद और आनंददायी होता है।
इसी प्रकार, लेखन एक रचनात्मक काम है। उससे बच्चों का भाषाई और लेखन कौशल विकसित होता है, जो शिक्षा का भी एक महत्वपूर्ण आयाम है। जिन बच्चों ने इस कार्यशाला में भाग लिया, उनकी भाषा और वाक्य विन्यास कमजोर था। इसके बावजूद उन्होंने खड़ी बोली में लिखा और जहां उन्हें वे शब्द नहीं मिले, स्थानीय बोली में वाक्य बनाएं। यही कार्यशाला की विशेषता थी। अगर इस तरह की गतिविधियां स्कूलों में और स्कूल के बाहर निरंतर की जाएं तो मौजूदा शिक्षा की स्थिति में सुधार होगा। और शिक्षा के प्रति बच्चों का उनका नजरिया भी बदलेगा। उन्हें पढ़ने में रूचि होगी और मजा भी आएगा।
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