Saturday, September 14, 2013

विज्ञान और जनांदोलन को जोड़ने वाली शख्सियत

जब मैं पिछले साल विनोद रैना जी से मिला था और उनके साथ में पचमढ़ी गया था तब मुझे जरा भी भान नहीं था कि यह हमारी आखिरी मुलाकात होगी। उन्होंने मुझसे कहा था कि अब इंटरनेट के माध्यम से मिलते रहेंगे।

परसों जब 12 सितंबर को भोपाल से सचिन जैन का एसएमएस मिला कि विनोद रैना जी नहीं रहे तो विश्वास ही नहीं हुआ। उनका दिल्ली में उसी दिन (12 सितंबर की) शाम को निधन हो गया। हालांकि कुछ दिन पहले एकलव्य के साथी गोपाल राठी ने खबर दी थी कि विनोद भार्इ कैंसर से पीडि़त हैं।

आज वे नहीं हैं तब उनके बारे में सोचने पर मेरे मानस पटल पर उनकी कर्इ छवियां बन-बिगड़ रही हैं। लेकिन जो छवि उनकी पहचान  थी वो उनकी घनी दाढ़ी, गोल चश्मा और सदाबहार मुस्कान। और गर्मजोशी से मिलना।

मेरा उनसे काफी पुराना परिचय है। करीब 30-32 साल पुराना। जब वे होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के सिलसिले में किशोर भारती संस्था आया करते थे।

उस समय बनखेड़ी से किशोर भारती तक पहुंचने के लिए कोर्इ वाहन नहीं चलते थे तो बनखेड़ी से साइकिल से जाना पड़ता था। अक्सर विनोद भार्इ भी साइकिल से आते थे।

उन दिनों होशंगाबाद विज्ञान का पाठयक्रम विकसित हो रहा था और विनोद भार्इ जैसे शिक्षाविद  और वैज्ञानिक उसे विकसित करने में योगदान दे रहे थे। अक्सर जब मैं वहां जाता था तब वहां देखता था कि कोसम वृक्षों के नीचे बैठकर मीटिंग हो रही है। शिक्षक, शिक्षाविद और विभिन्न विषयों के जानकर विज्ञान के प्रयोग करते रहते थे। उनमें से एक विनोद रैना भी थे।

बाद में जब एकलव्य बना तो विनोद रैना ही उसे बनाने और चलाने वालों में प्रमुख थे। उन्होंने भले ही दिल्ली विष्वविधालय से षिक्षा हासिल की हो लेकिन सही मायनों में उनकी कर्मस्थली मध्यप्रदेश ही बना रहा।

वैज्ञानिक और शिक्षाविद होने के साथ-साथ उनकी पर्यावरण व जनांदोलनों में गहरी रूचि थे। उनका सामाजिक सरोकार से जुड़ाव अंत तक बना रहा। यधपि मैंने उनके साथ औपचारिक रूप से काम नहीं किया लेकिन उनका स्नेह व प्रोत्साहन हमेशा मिलता रहा।

छात्र जीवन में मेरा पहला लेख एकलव्य से प्रकाशित बाल पत्रिका चकमक के पहले अंक में उन्होंने ही छापा था। यह 1985 की बात है। जबकि उन्हें उस समय के हमारे शिक्षकों की नाराजगी का सामना करना पड़ा था।

वे हमेशा जनांदोलनों में विज्ञान की भूमिका देखते थे। जहां भी जनांदोलन उभरते थे, वे अपना समर्थन देते। विनोद भार्इ की मौजूदगी ऐसे आंदोलनों को एक अलग आयाम देती थी। वे मुझे पिछले 25 सालों में कर्इ जगह जनांदोलन में टकराए।

चाहे वह बड़े बांधों के खिलाफ नर्मदा बचाओ का आंदोलन हो या सुदूर छत्तीसगढ़ में लोहे की खदानों के मजदूरों का आंदोलन, चाहे वह भोपाल के गैस पीडि़तों का आंदोलन हो या फिर होशंगाबाद के विस्थापित आदिवासियों का आंदोलन। वे सभी जगह सक्रिय रहे। वे उनमें शामिल तो होते ही थे बल्कि शोध व जानकारी एकत्र कर आंदोलनों को मजबूती प्रदान करते थे। चाहे वह बड़े बांधों के खिलाफ नर्मदा बचाओ का आंदोलन हो या सुदूर छत्तीसगढ़ में लोहे की खदानों के मजदूरों का आंदोलन, चाहे वह भोपाल के गैस पीडि़तों का आंदोलन हो या फिर होशंगाबाद के विस्थापित आदिवासियों का आंदोलन। वे सभी जगह सक्रिय रहे। वे उनमें शामिल तो होते ही थे बल्कि शोध व जानकारी एकत्र कर आंदोलनों को मजबूती प्रदान करते थे। वे किसी भी मुददे की तह में जाकर उसे समझते और फिर जनता के सामने तार्किक ढंग से अपने अनूठे अंदाज में रखते थे, जो कि एक वैज्ञानिक की शैली  होती है।

विनोद रैना और एकलव्य संस्था का योगदान अमूल्य है क्योंकि उन्होंने विज्ञान को एक प्रयोगशाला से निकालकर एक सोच के रूप में पेश किया। सवाल उठाने और जिज्ञासा को किसी भी खोज और प्रयोग के लिए आवश्यक बताया। मौजूदा शिक्षा जो केवल रटकर परीक्षा में उगल देने की कला है उसे समझने व सीखने का माध्यम बताया।

 शिक्षकों और छात्रों के लिए विज्ञान को एक दिलचस्प विषय बनाया। बाल विज्ञान के छात्रों व षिक्षकों को खेत-खलिहानों में पतितयां पहचानने, प्रयोग के लिए मिटटी के नमूने एकत्र करते व खरपतवारों की पहचान करते देखा जा सकता था। ऐसा अदभुत दृश्य मेरे आंखों के सामने तैर रहा है क्योंकि मुझे भी इस विज्ञान को पढ़ने का मौका मिला है। हालांकि सरकार ने बेतुके आरोप लगाकर उस लोकप्रिय प्रयोग को बंद करवा दिया। पर इससे उसका महत्व किसी भी रूप में कम नहीं होता।

एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम की देश-दुनिया में सराहना हुर्इ। भारत की शिक्षा में यह अनूठा प्रयोग सरकारी स्कूलों में 30 साल तक चला जिससे विनोद रैना न केवल जुडे़ रहे बलिक उनकी इसमें प्रमुख भूमिका रही।

बाद में वे पीपुल्स साइंस मूवमेंट, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, वर्ल्ड सोशल फोरम और अनेक जनांदोलनों से जुड़े रहे। विनोद भार्इ की कमी हर जगह बनी रहेगी। लेकिन उनका काम और उनकी वैज्ञानिक सोच सदैव रास्ता दिखाती रहेगी।

संयोग है कि मैं उसी गांव का रहने वाला हूं, जहां किशोर भारती संस्था थी। होशंगाबाद के इसी गांव में आकर विनोद भार्इ ने एक अलग राह पकड़ ली जो दिल्ली जैसे महानगरों में न जाकर मध्यप्रदेश के दूरदराज के गांवों तक जाती थी। उन्होंने मध्यप्रदेश को अपना कार्यक्षेत्र  बनाया और यहां के स्कूलों में शिक्षा का काम किया जो मिसाल बन गया। ऐसे अनूठे व्यकितत्व के धनी विनोद भार्इ सदा हमारे दिलों में जिंदा रहेंगे।

3 comments:

  1. उनकी स्मृति को सादर नमन.

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  2. Thanks, Baba Mayaram,

    this is excellent tribute to Vinod, whom I also met in 1981 at Kishore Bharati, while on visit from IIT B for exposure to HSTP. I have known him since then and remained in touch with him through the NBA days and thereafter. I join you in this tribute.

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  3. बाबा भाई, आपने हमारे बीच विनोद भाई के कामों की झलक प्रस्तुत की |जैसा आप जानते हैं कि मैं तो शोभापुर का हूँ और मैंने तो होशंगाबाद विज्ञान पढ़ी है याँ यूँ कहें कि समझी है| मेरे लिए विनोद भाई वैसे ही हैं और रहेंगे कि जैसे मैंने किताब में कोई सिद्धांत लिखने वाले वैज्ञानिक को करीब से देख लिया हो| क्यूंकि अक्सर हम जो पढते हैं उसके सिद्धांत बनाने वालों को देख नहीं पाते हैं लेकिन यहां तो हमने उस वैज्ञानिक को ना केवल देखा, बल्कि उसे सुना, उससे बात की, उसे छू कर देखा, उसका आशीष और स्नेह पाया और वो भी दोस्त की तरह |

    विनोद भाई तुम बहुत याद आओगे ...... जब जब हम दिशा ज्ञान की बात करेंगे, जब जब हम मक्खी को अंडे देते देखने के लिए कोई कहानी तैयार कर रहे होंगे, जब-जब हम कानों में चम्मच लगाकर मंदिरों के घंटों की आवाज आवाज सुन रहे होंगे और जब-जब हम माचिस के डिब्बे से फोन की तरह बात कर रहे होंगे |

    10 अगस्त को बीजीवीएस के शिक्षा संवाद में उनसे गपशप हुई, शाम को उन्होंने मुझे कहा कि बात करें तो मैंने कहा कि प्रेस नोट बांटने जाना है | उन्हें कहा फिर जाओ ....नहीं पता था कि वो आखिरी मुलाकात है |

    सादर श्रद्धांजली

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