यहां सड़क से लगे एक मैदान में मढ़ई-मेला लगा हुआ है। दूर से ही हमें सबसे पहली झलक ढालों की दिखी। यहां गांगो की मड़िया (मंडप) थी, जहां पड़िहार (पूजा करने वाले )मौजूद थे।गांगो की मूर्ति विराजमान थी। यह मड़िया इमली की टहनियों व पत्तों से बनी थी। ढाल लंबे बांस के एक सिरे पर मोर पंख से छतरीनुमा बनाई जाती है। ये ढालें करीब 15-20 फीट लंबी होती हैं। इन्हें लेकर लोग नाचते-गाते मंढई में आते हैं। अहीर नृत्य इसका मुख्य आकर्षण का केन्द्र होता है। इसमें विशेष वेश-भूषा में ढाल के साथ अहीर नाचते हुए चलते हैं। बाद में ढालें लेकर वे गांगो की मूर्ति के आसपास चक्कर लगाते हैं।
मढ़ई में ढालों के आने का सिलसिला जारी है। मेले में काफी भीड़ जुट रही है। दूरदराज के गांव के लोग बैलगाडियों से भी आए हैं, जिनकी बैलगाड़ी विशाल पीपल पेड़ नीचे खड़ी हैं। बैल काफी सजे-धजे हैं। उन पर रंग-बिरंगे मुहरनुमा छापे दिखाई दे रहे थे।
जैसे-जैसे शाम ढल रही थी मेले की रौनक बढ़ती जा रही थी। तेज रोशनी वाले बल्बों की रोशनी चमक रही थी। आदिवासी युवक-युवतियां व बच्चों की टोलियां इधर-उधर घूम रही थीं। यहां मिठाईयों की दूकान थी। मिट्टी के सुंदर खिलौने थे जिनमें तोता, गाय-बैल आदि शामिल थे। गुब्बारे व खिलौने बिक रहे थे। उमंग और उत्साह का माहौल था।
कार्तिक अमावस्या यानी दीपावली के अगले दिन से ही मढ़ई-मेला का सिलसिला शुरू हो जाता है पूर्णिमा तक चलता है। मुख्य रूप से गोंड आदिवासी इसे बड़े धूमधाम से मनाते हैं। गजेटियर के अनुसार गांगो तेलिन की याद में यह त्यौहार मनाया जाता है। वह एक बड़ी जादूगरनी थी। यहां गांगों की पूजा करने वाले बिसराम का कहना है कि ढाल देवी का प्रतीक है। यहां हम गांगो की पूजा करते हैं।
हमारे ज्यादातर तीज-त्यौहार कृषि से जुड़े हुए हैं। मढ़ई का भी इससे जुड़ाव है। जब धान की नई फसल आ जाती है और उनके घरों में अनाज आ जाता है तब वे खुशियां मनाते हैं। यह समृद्धि और खुशहाली का मौका होता है। दीपावली खुशियां बांटने का त्यौहार है।
इस मौके पर घर की लिपाई-पुताई और उसमें रंग-रोगन किया जाता है। शाम को गाय-बैल की पूजा की जाती है। उनकी सार (उन्हें बांधने का स्थान ) में दीये जलाए जाते हैं। और दूसरे दिन उन्हें रंग दिया जाता है।
मेले में अब सभी ढालें आ चुकी हैं और पड़िहार आपस में बातें कर रहे हैं। दूकानों पर काफी भीड़ है। लोग मिठाईयां खरीद रहे हैं। सिंघाड़ा और पींड (कंद-मूल) खरीद रहे हैं। इधर-उधर जाते समय धक्का-मुक्की हो रही है। अब घर जाने का समय हो गया है। पर हमारा लौटने का मन नहीं कर रहा है। कई साल बाहर रहने के बाद अपने इलाके की मढ़ई में जाना और देखना बहुत ही मजेदार था।
मेले का ब्यौरा पढ़कर बहुत अच्छा लगा । विकल्प के खींचे चित्र आकर्षक हैं ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगा विवरण पढ़कर. जबलपुर से इतना पास होकर भी कभी जा न पाये.
ReplyDeleteमड़ई मेले के बारे में बेहतरीन जानकारी देने के लिए शुक्रिया .
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