Wednesday, December 16, 2009

स्वास्थ्य के क्षेत्र में जंगल में जल रही है नई लालटेन

डगनिया की बिरसाबाई और मिनका बाई एक कपडे की गुड़िया और गुड्डे को गोद में लिए बैठी हैं। गोबर से लिपे-पुते एक दहलाननुमा बडे कमरे में करीब 40 महिलाएं उन्हें देख रही हैं। वे आपस में बातें भी कर रही हैं। अपने-अपने अनुभव साझा कर रही हैं। यहां कोई गुडडे-गुड़िया का खेल नहीं हो रहा है और ना ही कठपुतली का कोई नाच। दरअसल, ये महिलाएं जचकी कैसे करवाई जाए और जचकी करवाने में क्या-क्या दिक्कतें आ सकती हैं, इस पर बात कर रही हैं। ये सभी महिलाएं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के अचानक अभयारण्य के दूरदराज के गांव बम्हनी में एक स्वास्थ्य प्रशिक्षण शिविर में शामिल थीं, जहां अब तक पहुंचने के लिए कोई सड़क मार्ग नहीं है। जब सड़क नहीं है तो आने-जाने के लिए कोई सुविधा हो, यह सवाल व्यर्थ है। जबकि अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छी यातायात व्यवस्था जरूरी है।

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के कोटा-लोरमी विकासखंड में पिछले एक साल से गांवों में दाई का काम करने वाली महिलाओं का प्रशिक्षण का काम किया जा रहा है। जन स्वास्थ्य सहयोग ने इस काम की जिम्मेदारी ली है। दो वर्ष पूर्व "( 24 अक्टूबर, 2007 ) करीब 40 महिलाओं का अचानक अभयारण्य के अंदर के गांव बम्हनी में दो दिवसीय प्रशिक्षण किया गया। इस प्रशिक्षण में भाग लेने वाली लगभग पूरी महिलाएं अनपढ़ थीं लेकिन अनुभवहीन नहीं। उन्हें इस काम में बरसों का अनुभव था जिससे आगे वे यहां सीखने आई थीं। जन स्वास्थ्य के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र से जुडीं डा. रमनी उन्हें प्रशिक्षण दे रही थीं। जन स्वास्थ्य केन्द्र बिलासपुर जिले में एक सरकारी संस्था है जो स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनूठा कार्य कर रही है। वह कम कीमत में बेहतर इलाज के साथ दूरस्थ गांवों में भी अपनी सेवाएं दे रही है।

उनके अनुसार आजकल अस्पताल में ही जचकी करवाने पर जोर दिया जा रहा है लेकिन दूरदराज के गांवों के लोग अस्पताल तक कैसे पहुंचे? यहां पहुंचने तक सड़क नहीं है और ना ही कोई वाहन। फिर अगर किसी भी तरह कोई वाहन कर भी लिया जाए तो बारिश के दिनों में बाढ समस्या है और सामान्य दिनों में भी गर्भवती महिलाओं के लिए जचकी और हैजा जैसी गंभीर स्थिति में अस्पताल तक पहुंचने तक भी अनहोनी की आशंका बनी रहती है। यानी यहां के लोगों को न अस्पताल की सुविधा है और ना ही नर्स उपलब्ध है। इसलिए हमने परंपरागत दाईयों का प्रशिक्षण की व्यवस्था की है जिससे गर्भवती महिला और उसके नवजात शिशु को बचाया जा सके।
डा. रमनी का कहना है कि हमारे यहां मातृत्व मृत्यु दर ज्यादा है। (आंकडों के हिसाब से प्रसव के दौरान महिलाओं की मृत्यु दर वर्ष 2001- 03 में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ मिलाकर प्रति एक लाख बच्चों के जन्म पर 379 थी, जबकि राष्ट्रीय औसत 301 था।) गर्भवती महिलाओं की मौत कई कारणों से हो सकती है। प्राय: प्रसव के दौरान अधिक रक्तस्त्राव, संक्रमण और ब्लड प्रेशर आदि से मौतें होती हैं। उन्होंने कहा कि अगर प्रसव के समय मां मर जाती है तो उसका बच्चा भी कुछ समय बाद मर जाता है। यानी इन दोनों को कैसे बचाया जाए, यह चुनौती है।

उन्होंने कहा कि हालांकि अनपढ़ होने के कारण महिलाओं को सीखने में कुछ समय लगता है लेकिन वे सीखकर उसका इस्तेमाल कर रही है, यह उम्मीद बंधाता है। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि अतरिया की महिला सरपंच गर्भवती थी और उन्हें प्रसव पूर्व बहुत रक्तस्त्राव हो रहा था जब इसकी खबर गांव की दाई सूनी बाई को लगी तो उन्होंने प्रशिक्षण में सीखी तकनीक अपनाकर उनका रक्तस्त्राव को रोका और उन्हें गनियारी अस्पताल भेजकर उनका इलाज करवाया जिससे जच्चा-बच्चा दोनों की जान बच सकी।

इसी प्रकार दाईयों को बुखार नापना, खून की कमी की पहचान, पेशाब में संक्रमण और गर्भावस्था के समय होनेवाली समस्याओं से अवगत कराया जाता है। चूंकि बुखार नापने के लिए थर्मामीटर पढने में दिक्कत होती है इसलिए इसके लिए एक विशेष प्रकार का थर्मामीटर बनवाया गया है जिसमें पढ़ने की जरूरत नहीं रहती। इस थर्मामीटर में लाल-हरे रंगों को देखकर बुखार नापा जा सकता है। इसी प्रकार प्रसव के समय समयावधि का पता लगाने के लिए दाईयों को घड़ी देखना सिखाया जा रहा है।

स्वास्थ्य कार्यकर्ता मंजू ने कहा कि दाईयां महिलाओं के प्रसव के समय सभी काम करती हैं। पहले नाल काटने का काम सुईन करती थी अगर वह किसी काम से गांव से बाहर चली गई तो बच्चे बिना नाल कटे हुए हफते भर तक पडे रहते थे जिससे संक्रमण का खतरा बना रहता था। फिर उन्हें जो अनाज और पैसे आदि देना पडता था, वह भी बच जाता है। उन्होंने कहा कि हमारी दाईयां दिन हो या रात, बारिश हो या बाढ, सदैव काम करती हैं। अब गांवों में इस पर विचार किया जा रहा है कि जिस प्रकार बाल काटने के लिए नाई का और गाय चराने के लिए राउत का अनाज तय होता है उसी प्रकार दाई के लिए भी गांव वालों की ओर से व्यवस्था होना चाहिए।

यह प्रशिक्षण शिविर शहरों में होने वाली कार्यशालाओं से अलग था। यहां कोई भाषण देने या ज्ञान के आदान-प्रदान की जल्दबाजी नहीं है। यहां प्रशिक्षक एक बात को बार-बार समझाने के लिए तत्पर हैं। ये न सिर्फ़ अपनी पढाई को दाईयों को देने के लिए उतावले हैं बल्कि उनसे भी कई बातें सीखने के लिए लालायित हैं। ये महिलाएं प्रसव के दौरान होनेवाली दिक्कतों का अभिनय भी करके बता रही थी जिससे माहौल नोरंजक हो जाता था। बुजुर्ग महिलाएं जब गर्भवती महिला के बच्चे की धडकन सुन रही थी तब उनके चेहरे पर बाल सुलभ मुस्कान तैर रही थी।

बम्हनी की फगनी बाई, बाबूटोला की मयाजो, जगती बाई, जकडबांधा की मिलाजू, ठुमरी और गुलिया बाई ने प्रशिक्षण के बारे में कहा कि उन्हें दस्ताने मिल गए। चशमा मिल गया। अंधेरे के लिए टार्च की व्यवस्था की जा रही है। गर्भवती महिलाओं की हर माह जांच की जाती है। उनके नवजात शिशुओं के लिए नए कपडे दिए जाते हैं। फिर बम्हनी में क्लिनिक है, गंभीर स्थिति के लिए गनियारी में अस्पताल है। यह सब हमारे लिए बहुत सुभीता हो गया है। कुल मिलाकर, जन स्वास्थ्य की पहल अंधेरे में आशा की नई किरण की तरह है

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