छत्तीसगढ में बिलासपुर जिले की कोटा तहसील का एक पहाडी गांव है औरापानी। कोटा से आगे सेमरिया तक पक्की सडक है और फिर 3-4 किलोमीटर कच्ची सडक। उस पर हाल ही में मिट्टी डाली गई है। जिस दिन हम वहां गए उस दिन सुबह हल्की बारिश हुई थी। इस कारण गाडी के चक्कों में मिट्टी चिपक रही थी और गाडी चलाना मुशिकल हो रहा था।
गांव में घुसते ही पहला घर कलाबाई के मां-बाप का है। कलाबाई से यह मेरी दूसरी मुलाकात थी। दो दिन पहले वह अपने पति के साथ गनियारी जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र में जांच कराने के लिए आई थी लेकिन उस समय उसे रीढ की हड्डी और पेट में असहनीय दर्द था। उससे बात करना मुशिकल हो रहा था। वह बैठ भी नहीं पा रही थी।
कलाबाई की उम्र 22 वर्ष है। वजन करीब 35 किलो। वह 8 वीं तक पढी है। उसकी दो लडकिया हैं, एक है महेश्वरी (2 साल) और रीतू (4 माह)। बीमारी से पहले वह सभी तरह के काम कर सकती थी। घर के काम से लेकर बाहर मजदूरी करने जाती थी। उसके पति के मां-बाप नहीं होने के कारण घर में कोई दूसरा सहारा नहीं है।
अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए उसे और पति को काम करना पडता था। वे दोनों मिलकर मानसून के मौसम में मिलकर 100-150 रू कमा लेते थे। लेकिन अब कलाबाई स्पाइन टी.बी. (टयूबर क्लोसिस) से पीडित है। हालांकि गांव में उसके परिवार के लोग कहते हैं कि उसे कोई बीमारी नहीं है। वह नाटक कर रही है।
टी़ बी. दो प्रकार की होती है। एक पल्मोनरी टी बी यानी फेफडे की और दूसरी नॉन पल्मोनरी टी. बी.। यानी शरीर के अन्य भागों में पायी जाने वाली टी. बी. जैसे त्वचा, पेट के हिस्से में, दिमाग व हडि्डयों में पायी जाने वाली टी. बी.। सबसे ज्यादा संक्रामक फेफडे वाली टी.बी. होती है। इसमें रोगी छींकता है या खांसता है, उसके माध्यम से टी. बी. का कीटाणु माइको बैक्टीरिया ट्यूबर क्लोसिस हवा में छोडता है। जिससे पास में बैठा व्यक्ति जैसे ही सांस लेता है, वह शरीर में प्रवेश कर जाता है।
जन स्वास्थ्य सहयोग के प्रमुख डॉ. योगेश जैन का कहना है कि हमारे देश में 14 वर्ष की उम्र तक 70 प्रतिशत लोगों में टी.बी. का बैक्टीरिया प्रवेश कर जाते हैं। पर जरूरी नहीं है कि सब लोग टी.बी. की बीमारी से पीडित हों। इससे गरीब ही ज्यादा बीमार होते हैं। क्योंकि उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। कुपोषण होता है। कलाबाई भी उसी से पीडित है। उनका कहना है कि अगर कलाबाई के कुपोषित शरीर पर 4 माह पहले बच्चे पैदा करने का बोझ न पडता तो वह टी. बी. की शिकार न होती।
चिकित्सक टी. बी. होने का एक कारण कुपोषण को मानते हैं। इस इलाके में लोगों के भोजन में भात (चावल) प्रमुख होता है लेकिन उसके साथ दाल नहीं होती। जन स्वास्थ्य सहयोग के द्वारा 400 परिवारों में किए जा रहे अध्ययन के अनुसार सिर्फ 16 प्रतिशत परिवार ही ऐसे हैं, जो सप्ताह भर दाल का स्वाद चख सकते है। 20 प्रतिशत परिवार सप्ताह में एक बार ही दाल जुटा पाते हैं। जबकि 9 प्रतिशत परिवारों को भात के साथ आलू, भाजी और खट्टा खाना पडता है। यह माना जा चुका है कि कुपोषण के साथ गरीबी का गहरा संबंध है। भारत में प्रोटीन संबंधी कुपोषण है। इस अध्ययन में आधे परिवार 200 टीबी से पीडित थे। यह अध्ययन अभी जारी है।
भारत में दालों की उपलब्धता भी कम होती जा रही है। ऐसा सांखयकीय आंकडे भी बताते हैं। 1951 में देश में एक औसत व्यक्ति को खाने एक दिन में खाने के लिए 60.7 ग्राम दाल उपलब्ध थी जो 2007 में घटकर 35.5 ग्राम रह गई है। गरीबों में दाल की उपलब्धता कम है, यह उपयुक्त अध्ययन बताता है।
गांव में लोग भात (चावल) के सब्जी खाते हैं। अधिकांश सब्जी में आलू होता है। गरीब होने के कारण फल, अंडे या मांस भी उनके भोजन में नहीं होता। कलाबाई कहती है कि जब पैसा ही नइ हे, तो अंडा से कहां से लावो,।
हालांकि वह इलाज के लिए देर से पहुंची। पहले वह बैगाई (झाड़-फूंक) करवाती रही। झोला छाप डॉक्टर (फर्जी डॉक्टर) से इलाज करवाती रही। जब पूरी तरह लाचार हो गई। खटिया पर पड गई तब जन स्वास्थ्य सहयोग गनियारी पहुंची। अब गनियारी अस्पताल में उसका इलाज पिछले 2 माह से चल रहा है।
चूंकि दवा का असर धीरे-धीरे होता है। इसलिए एक तो कलाबाई को अब तक दर्द से राहत नहीं मिल पाई है। उसे दोनों पैरों में दर्द होता है। वह चल नहीं पाती है। देर तक बैठ भी नहीं सकती। ज्यादा देर बैठे रहने में सांस लेने में दिक्कत होती है। खडे होने से ही थोडी राहत मिलती है लेकिन ज्यादा देर खडे भी नहीं रह सकती। वह कहती है कि हडडी कोमल होवउ नइ करे, लकडी कस कडकत हे।
चिकित्सकों का कहना है कि टी.बी. मरीज को स्वस्थ होने के लिए पोषण की स्थिति ठीक होनी चाहिए। साथ ही परिवार और समाज का भी सहयोगात्मक रवैया होना चाहिए। मरीज को बहुत ज्यादा मानसिक परेशानी होगी तो उसकी हालत में सुधार जल्द नहीं हो पाएगा। कलाबाई को अपने बच्चों व अपने भविष्य के बारे में गहरी चिंता है। कभी-कभी उसका पति दूसरी शादी की बात भी करता है।
कुल मिलाकर, बीमारी से वह तो खुद परेशान है ही, घर की माली हालत भी बिगडती जा रही है। पहले वह घर का, खेती-किसानी का, जंगल से तेंदूपत्ता तोडना, महुआ लाना आदि सब काम करती थी। वह बांस के बर्तन बनाती थी। बैगा जनजाति के ये लोग बांस के बर्तन बनाते हैं।
कलाबाई भी झउआ (टोकनी), खरेटा (बडी झाडू,) सूपा, पंखा, खुमरी (छातानुमा बांस से बनाई जाती है) आदि बनाती थी और इन्हें बेचकर जो पैसा मिलता था उससे घर का खर्च चलता था। बीमार होने के बाद वह यह काम नहीं कर सकती। सब काम छूट गया है। एक तो अब कोई कमाई का स्त्रोत भी नहीं है। दूसरी इलाज और जांच के लिए गनियारी और बिलासपुर आने-जाने में खर्च भी होता है। एम आर आई की जांच के कराने के लिए उसे दो-तीन बार बिलासपुर भेजा गया। पर वहां की मशीन खराब है।
इस कारण उसे यह चिंता खाए जा रही है कि आखिर वह ठीक होगी या नहीं? बच्चों का आगे क्या होगा? उसे क्या बीमारी है, इसके बारे में उसे ठीक से मालूम नहीं है। दूसरी तरफ पति तेजूराम भी पूरी तरह उसके साथ नहीं है। कभी-कभार वह शराब पीकर उसके साथ गाली-गलौच करता है। पूरी देखभाल की जिम्मेदारी कलाबाई के मां-बाप पर आ गई है। जबकि वे भी यह सोचकर परेशान है कि आखिर कलाबाई कब तक ठीक होगी ?
टी बी मरीजों के उपचार में लगे चिकित्सकों का मानना है कि कलाबाई पूरी तरह स्वस्थ हो जाएगी। बशर्ते ये कि टी.बी. की दवा पूरी अवधि 9 माह तक नियमित ले। उसे धीरज रखना चाहिए और दवा लेते रहना चाहिए। मैं कला के घर से लौटते समय सोच रहा था कि बैगा आदिम जनजाति है। कलाबाई भी बैगा है। छत्तीसगढ सरकार ने बैगा विकास प्राधिकरण भी बनाया है। उसका बडा बजट है। क्या कलाबाई जैसे जरूरतमंद मरीजों को उससे मदद नहीं मिल सकती? बैगाओं के जीवन स्तर को सुधारा नहीं जा सकता? उनकी पोषण की स्थिति को नहीं सुधारा जा सकता?
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