Saturday, November 27, 2010

रेत में नाव नहीं चलेगी

नर्मदा तीरे कार्तिक की पूर्णिमा पर सांडिया में मेला लगता है,यह ज्ञात था। देखने की इच्छा थी, वह हाल ही में  पूरी हुई। इस मौके पर जगह-जगह मेलों का आयोजन होता है। नर्मदा और दूधी नदी के संगम पर केतोघान में और नर्मदा और तवा के संगम पर बांद्राभान समेत अनेक जगह मेले लगते हैं। पिपरिया में रहने के कारण बार-बार नर्मदा के दर्शन हुए हैं। लेकिन मेलों का आनंद ही कुछ और है।

पूर्णिमा के दो-तीन पहले से ही सरै भरते ( साष्टांग लेटकर नर्मदा तक जाना ) हुए श्रद्धालु मिलने लगे थे। एक दिन पहले तो रात भर हर-हर नर्मदे का जयकारा करते हुए नर्मदा जाने वालों का तांता लगा रहा। पैदल, साइकिल, मोटर साइकिल, टेक्टर-ट्राली और चार पहिया वाहनों से जनधारा नर्मदा की ओर बहती रही।

सुबह-सवेरे गोपाल भाई यानी गोपाल राठी का फोन आ गया। सांडिया मेले में चलना है, तैयार हो जाओ। मैं अपने बेटे के साथ मोटर साइकिल से निकल पड़ा। गोपाल भाई के साथ उनकी पत्नी यानी भाभी जी भी थीं। साथ चले। सड़क पर भारी भीड़। तेज गति से वाहन दौड़ रहे थे।

पिपरिया से सांडिया  की दूरी करीब 20 किलोमीटर है। नर्मदा अमरकंटक से उद्गमित होकर इसी इलाके से होकर गुजरती है। हम कुछ दूर चले होंगे कि हमारे एक मित्र कृष्णमूर्ति मिल गए। वे कृषि वैज्ञानिक हैं। लेकिन उनका यह परिचय अधूरा है। वे इस इलाके की संस्कृति में गहरे रचे-बसे हैं और उसके जानमकार हैं। उन्होंने आल्हा की तर्ज पर एक प्रसिद्ध कृति के सृजन में योगदान दिया है।

गोपाल भाई थोड़ी दूर गाड़ी चलाते फिर रूक जाते। थकते वे नहीं थे लेकिन श्रद्धालुओं की भीड़ देखकर उत्साहित हो रहे थे। उनमें बाल-सुलभ कौतूहल है, जो उन्हें सदैव उत्साह से भर देता है। मेलों का उद्देश्य भी यही रहा है। ग्राम्य जीवन की धीमी गति और जटिलता में हाट-मेलों से नये उत्साह का संचार हो जाता है। जो कई दिनों तक बना रहता था।

सांडिया के रास्ते में मुझे बैलगाड़ी नहीं दिखी लेकिन इसके थोड़ा ऊपर केतोघान के मेले में बैलगाड़ियों का जाम लगा देखा है। मेले के लिए बैलों की साज-सज्जा देखते ही बनती है। उन्हें नहलाना, रंगना और मुछेड़ी ( रंग-बिरंगी रस्सियां बांधना ) बांधना, यह सब मेले की तैयारी का हिस्सा हुआ करते थे। हालांकि उस मेले में गए भी वर्षों हो गए। लेकिन याद ऐसी ताजी है जैसी कल की ही बात हो।

अब हम मेले में पहुंच गए हैं। श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ रही है। स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढे और साधु महात्मा मेले में घूम रहे हैं। रंग-बिरंगी दूकानें लगी हैं। मुझे बच्चों की चीजों ने आकर्षित किया। ढमढमा, बांसुरी, रंगीन पन्नी के चश्मा, कागज की चकरी, रंग-बिरंगे गुब्बारे मन मोह रहे थे। मिठाईयों की दूकानों में जलेबी, मोती-चूर के लड्डू और नमकीन देखकर मुंह में पानी आ रहा था। जगह-जगह भंडारे लगे थे जिनमें श्रद्धालु भोजन कर रहे थे।

नर्मदा मेलों में पहले भोजन का मतलब बाटी और भर्ता हुआ करता था। लेकिन आज अधिकांश भंडारों में पूड़ी-सब्जी और खिचड़ी परोसी जा रही थी। हमने भी यही भोजन किया। हमारे मित्र श्रीगोपाल गांगूडा ने गन्ना खिलाया, जिसे हमने घूम-घूमकर खाया।

लौटते समय नौका विहार का कार्यक्रम बना। हम नाव में सवार हो गए। नर्मदा में पानी बहुत कम था। केंवटों ने कुछ दूर तो नाव को धकेला। फिर चप्पू चलाने लगे। हमारी नजरें दूर-दूर तक फैले तट पर फैल गईं-शांत, और अनुपम छटा बिखेरती  नर्मदा।

कितने ही इसके दर्शन मात्र से तर जाते हैं। डुबकी लगाते हैं। मनोकामना लेकर आते हैं। हम भी उसके स्पर्श मात्र से धन्य हो रहे थे।

करीब एक फर्लांग की दूरी तय की होगी कि केंवट बोल पड़ा- नाव आगे नहीं जाएगी, पानी कम है, रेत में नाव नहीं चलेगी। हमें थोड़ी निराशा हुई। मैंने कुछ लोगों से इस पर बात की तो पता चला कि हर साल पानी कम होते जा रहा है। जगह-जगह टापू भी निकल आए हैं।

लौटते-लौटते सारंगी बजाते सूरदास की धुन मोहित कर गईं। हम खड़े होकर देखते रहे। मिट्टी के खिलौने की दूकान दिखी। बेटे ने तोता, घोड़ा, सिर पर घड़ा रखे पनहारिन, हाथ चक्की आदि खरीदीं। कृष्णमूर्ति ने कहा- वर्षों बाद बहुत मजा आ गया।

रास्ते में मैं सोच रहा था कि नर्मदा घाटी में कई बांध बनाए जा रहे हैं। कोयला बिजलीघर के प्रोजेक्ट आ रहे हैं।  नर्मदा की सहायक नदियां दम तोड़ रही हैं। क्या नर्मदा के बहाव के साथ पल्लवित-पुष्पित हमारी संस्कृति को हम बचा पाएंगे? क्या हमारी आगे आनेवाली पीढ़ियां नर्मदा के सौंदर्य और संस्कृति के दर्शन कर पाएंगे?

2 comments:

  1. मेले के सैर कराने के लिए शुक्रिया।

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  2. नरेंद्र मौर्यDecember 1, 2010 at 12:31 AM

    सांडिया मेले की इस यात्रा ने पुरानी स्मृतियों को ताजा कर दिया। लगता है हम सभी दोस्त किसी मेले में जल्दी टकराने वाले हैं। बहरहाल मेले की याद दिलाने के लिए शुक्रिया।

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