Saturday, October 23, 2010

क्या कसूर है जो उसे टी. बी. हुई?


''कभू-कभू अइसे लगत है कि अब नई बचहूं। पीरा के मारे चल नइ सकव। बइठे मं घलो पीरा होथे । रात-रात भर नींद नइ परत हे। एक महीना ले दवा खात हों, तभो ले पीरा नइ माड़त हे। ''  यह कहना है कलाबाई बैगा का। वह स्पाइन (रीढ  की हड्‌डी) टी.बी. की मरीज है। इन दिनों वह अपने मां-बाप के घर औरापानी में हैं। ससुराल कुरदर गांव में उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है।

छत्तीसगढ में बिलासपुर जिले की कोटा तहसील का एक पहाडी गांव है औरापानी। कोटा से आगे सेमरिया तक पक्की सडक है और फिर 3-4 किलोमीटर कच्ची सडक। उस पर हाल ही में मिट्‌टी डाली गई है। जिस दिन हम वहां गए उस दिन सुबह हल्की बारिश हुई थी। इस कारण गाडी के चक्कों में मिट्‌टी चिपक रही थी और गाडी चलाना मुशिकल हो रहा था। 

गांव में घुसते ही पहला घर कलाबाई के मां-बाप का है। कलाबाई से यह मेरी दूसरी मुलाकात थी। दो दिन पहले वह अपने पति के साथ गनियारी जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र में जांच कराने के लिए आई थी लेकिन उस समय उसे रीढ  की हड्‌डी और पेट में असहनीय दर्द था। उससे बात करना मुशिकल हो रहा था। वह बैठ भी नहीं पा रही थी। 

कलाबाई की उम्र  22 वर्ष है। वजन करीब 35 किलो। वह 8 वीं तक पढी है। उसकी दो लडकिया हैं, एक है महेश्वरी (2 साल) और रीतू (4 माह)। बीमारी से पहले वह सभी तरह के काम कर सकती थी। घर के काम से लेकर बाहर मजदूरी करने जाती थी। उसके पति के मां-बाप नहीं होने के कारण घर में कोई दूसरा सहारा नहीं है। 

अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए उसे और पति को काम करना पडता था। वे दोनों मिलकर मानसून के मौसम में मिलकर 100-150 रू कमा लेते थे। लेकिन अब कलाबाई स्पाइन टी.बी. (टयूबर क्लोसिस) से पीडित है। हालांकि गांव में उसके परिवार के लोग कहते हैं कि उसे कोई बीमारी नहीं है। वह नाटक कर रही है।

टी़ बी. दो प्रकार की होती है। एक पल्मोनरी टी बी यानी फेफडे की और दूसरी नॉन पल्मोनरी टी. बी.। यानी शरीर के अन्य भागों में पायी जाने वाली टी. बी. जैसे त्वचा, पेट के हिस्से में, दिमाग व हडि्‌डयों में पायी जाने वाली टी. बी.। सबसे ज्यादा संक्रामक फेफडे वाली टी.बी. होती है। इसमें रोगी छींकता है या खांसता है, उसके माध्यम से टी. बी. का कीटाणु माइको बैक्टीरिया ट्‌यूबर क्लोसिस हवा में छोडता है। जिससे पास में बैठा व्यक्ति जैसे ही सांस लेता है, वह शरीर में प्रवेश कर जाता है।

जन स्वास्थ्य सहयोग के  प्रमुख डॉ. योगेश जैन का कहना है कि हमारे देश में 14 वर्ष की उम्र तक 70 प्रतिशत लोगों में टी.बी. का बैक्टीरिया प्रवेश कर जाते हैं। पर जरूरी नहीं है कि सब लोग टी.बी. की बीमारी से पीडित हों। इससे गरीब ही ज्यादा बीमार होते हैं। क्योंकि उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। कुपोषण होता है। कलाबाई भी उसी से पीडित है। उनका कहना है कि अगर कलाबाई के कुपोषित  शरीर पर 4 माह पहले बच्चे पैदा करने का बोझ न पडता तो वह टी. बी. की शिकार न होती।  

चिकित्सक टी. बी. होने का एक कारण कुपोषण को मानते हैं। इस इलाके में लोगों के भोजन में भात (चावल) प्रमुख होता है लेकिन उसके साथ दाल नहीं होती। जन स्वास्थ्य सहयोग के द्वारा 400 परिवारों में किए जा रहे अध्ययन के अनुसार  सिर्फ 16 प्रतिशत परिवार ही ऐसे हैं, जो सप्ताह भर दाल का स्वाद चख सकते है। 20 प्रतिशत परिवार सप्ताह में एक बार ही दाल जुटा पाते हैं। जबकि 9 प्रतिशत परिवारों को भात के साथ आलू, भाजी और खट्‌टा खाना पडता है।  यह माना जा चुका है कि कुपोषण के साथ गरीबी का गहरा संबंध है। भारत में प्रोटीन संबंधी कुपोषण है। इस अध्ययन में आधे परिवार 200 टीबी से पीडित थे। यह अध्ययन अभी जारी है। 
भारत में दालों की उपलब्धता भी कम होती जा रही है। ऐसा सांखयकीय आंकडे  भी बताते हैं। 1951 में देश में एक औसत व्यक्ति को खाने एक दिन में खाने के लिए 60.7 ग्राम दाल उपलब्ध थी जो 2007 में घटकर 35.5 ग्राम रह गई है। गरीबों में दाल की उपलब्धता कम है, यह उपयुक्त अध्ययन बताता है।

गांव में लोग भात (चावल) के सब्जी खाते हैं। अधिकांश सब्जी में आलू होता है। गरीब होने के कारण फल, अंडे या मांस भी उनके भोजन में नहीं होता। कलाबाई कहती है कि जब पैसा ही नइ हे, तो अंडा से कहां से लावो,।  

हालांकि वह इलाज के लिए देर से पहुंची। पहले वह बैगाई (झाड़-फूंक) करवाती रही। झोला छाप डॉक्टर (फर्जी डॉक्टर) से इलाज करवाती रही। जब पूरी तरह लाचार हो गई। खटिया पर पड  गई तब जन स्वास्थ्य सहयोग गनियारी पहुंची। अब गनियारी अस्पताल में  उसका इलाज पिछले 2 माह से चल रहा है।

चूंकि दवा का असर धीरे-धीरे होता है। इसलिए एक तो कलाबाई को अब तक दर्द से राहत नहीं मिल पाई है। उसे दोनों पैरों में दर्द होता है। वह चल नहीं पाती है। देर तक बैठ भी नहीं सकती। ज्यादा देर बैठे रहने में सांस लेने में दिक्कत होती है।  खडे होने से ही थोडी राहत मिलती है लेकिन ज्यादा देर खडे भी नहीं रह सकती। वह कहती है कि हडडी कोमल होवउ नइ करे, लकडी कस कडकत हे।

चिकित्सकों का कहना है कि टी.बी. मरीज को स्वस्थ होने के लिए पोषण की स्थिति ठीक होनी चाहिए। साथ ही परिवार और समाज का भी सहयोगात्मक रवैया होना चाहिए। मरीज को बहुत ज्यादा मानसिक परेशानी होगी तो उसकी हालत में सुधार जल्द नहीं हो पाएगा। कलाबाई को अपने बच्चों व अपने भविष्य के बारे में गहरी चिंता है। कभी-कभी उसका पति दूसरी शादी की बात भी करता है। 

कुल मिलाकर, बीमारी से वह तो खुद परेशान है ही, घर की माली हालत भी बिगडती जा रही है। पहले वह घर का, खेती-किसानी का, जंगल से तेंदूपत्ता तोडना, महुआ लाना आदि सब काम करती थी। वह बांस के बर्तन बनाती थी।  बैगा जनजाति के ये लोग बांस के बर्तन बनाते हैं। 

कलाबाई भी झउआ (टोकनी), खरेटा (बडी झाडू,) सूपा, पंखा, खुमरी (छातानुमा बांस से बनाई जाती है) आदि बनाती थी और इन्हें बेचकर जो पैसा मिलता था उससे घर का खर्च चलता था। बीमार होने के बाद वह यह काम नहीं कर सकती। सब काम छूट गया है। एक तो अब कोई कमाई का स्त्रोत भी नहीं है। दूसरी इलाज और जांच के लिए गनियारी और बिलासपुर आने-जाने में खर्च भी होता है। एम आर आई की जांच के कराने के लिए उसे दो-तीन बार बिलासपुर भेजा गया। पर वहां की मशीन खराब है।

इस कारण उसे यह चिंता खाए जा रही है कि आखिर वह ठीक होगी या नहीं? बच्चों का आगे क्या होगा? उसे क्या बीमारी है, इसके बारे में उसे ठीक से मालूम नहीं है। दूसरी तरफ पति तेजूराम भी पूरी तरह उसके साथ नहीं है। कभी-कभार वह शराब पीकर उसके साथ गाली-गलौच करता है। पूरी देखभाल की जिम्मेदारी कलाबाई के मां-बाप पर आ गई है। जबकि वे भी यह सोचकर परेशान है कि आखिर कलाबाई कब तक ठीक होगी ?

टी बी मरीजों के उपचार में लगे चिकित्सकों का मानना है कि कलाबाई पूरी तरह स्वस्थ हो जाएगी। बशर्ते ये कि टी.बी. की दवा पूरी अवधि 9 माह तक नियमित ले। उसे धीरज रखना चाहिए और दवा लेते रहना चाहिए। मैं कला के घर से लौटते समय सोच रहा था कि बैगा आदिम जनजाति है। कलाबाई भी बैगा है। छत्तीसगढ  सरकार ने बैगा विकास प्राधिकरण भी बनाया है। उसका बडा बजट है। क्या कलाबाई जैसे जरूरतमंद मरीजों को उससे मदद नहीं मिल सकती? बैगाओं के जीवन स्तर को सुधारा नहीं जा सकता? उनकी पोषण की स्थिति को नहीं सुधारा जा सकता? 

कलाबाई की दोनों बेटियों को कभी इस स्थिति से न गुजरने पडे, क्या यह सुनिशचत हो सकता है? जन स्वास्थ्य सहयोग के एक चिकित्सक की टिप्पणी अविस्मरणीय है कि आखिर कलाबाई का क्या कसूर है, जो उसे टी बी हुई। क्या उसका गरीब होना तो नहीं? उन्होंने कहा टी. बी. कीटाणुओं से बढकर गरीबी की बीमारी है।

Tuesday, September 7, 2010

दम तोड़ रही हैं सतपुडा की नदियां

आमतौर पर जब कभी नदियों पर बात होती है तो ज्यादातर वह बड़ी नदियों पर केंद्रित होती है। लेकिन इन सदानीरा नदियों का पेट भरने वाली छोटी नदियों पर हमारा ध्यान नहीं जाता, जो आज अभूतपूर्व संकट से गुजर रही हैं। अगर हम नजर डालें तो पाएंगे कि कई छोटी-बडी नदियां या तो सूख चुकी हैं या फिर बरसाती नाले बनकर रह गई हैं। गांव-समाज के बीच से तालाब, कुंए और बाबडी जैसे परंपरागत पानी के स्रोत तो पहले से ही खत्म हो गए हैं। अब इन छोटी नदियों पर आए संकट से बडी नदियां तो प्रभावित हो ही रही हैं। जनजीवन के साथ पशु-पक्षी और वन्य- जीवों को भी परेशानी का सामना करना पड  रहा है।

देश-दुनिया में नदियों के किनारे ही सभ्यताएं पल्लवित-पुष्पित हुई है। जहां जल है, वहां जीवन है। लेकिन आज नदियां धीरे-धीरे दम तोड  रही हैं। नदियों का प्रवाह अवरूद्ध  हो रहा है। वर्षों पुरानी नदी संस्कृति खत्म रही है। उनमें पानी नहीं हैं,  पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखने वाली रेत नहीं है। सतपुडा अंचल की बारहमासी सदानीरा नदियां या तो सूख गई है या बारिश में ही  उनकी जलधारा प्रवाहित होती हैं, फिर टूट जाती है। उनके किनारे लगे हरे-भरे पेड  और उन पर रहने वाले पक्षी भी अब नजर नहीं आते। यानी पानी बिना सब सून।

मध्यप्रदेश में सतपुड़ा पहाड  और जंगल कई छोटे-बडे नदी-नालों का उद्‌गम स्थल है। पहाड  और जंगलों में पेड  पानी को जडों में संचित करके रखते हैं और  धीरे-धीरे वह पानी रिसकर नदियों में जलधाराओं के रूप में प्रवाहित होता है। और एक्वीफर के माध्यम से संचित पानी भूजल में संग्रहीत होता है।

जंगल कम हो रहे हैं। कुछ वर्षों से बारिश कम हो रही है या खन्ड बारिश हो रही है । बार-बार सूखा पड रहा है। इसके अलावा, नदियों के तट पर बडी तादाद में ट्‌यूबवेल खनन किए जा रहे हैं। डीजल पंप से सीधे पानी को खेतों में लिफट करके सिंचाई की जा रही है। स्टापडेम बनाकर पानी को उपर ही रोक लिया जाता है, जिससे जलधारा आगे नहीं बढ  पाती। उद्योगीकरण और शहरीकरण बढ  रहा है। ज्यादा पानी वाली फसलें लगाई जा रही हैं। बेहिसाब पानी इस्तेमाल किया जा रहा है।

सतपुडा की दुधी, मछवासा, आंजन, ओल, पलकमती और कोरनी जैसी नदियां धीरे-धीरे दम तोड  रही हैं। देनवा में अभी पानी नजर आता है लेकिन उसमें भी साल दर साल पानी कम होता जा रहा है। तवा और देनवा में भी पानी कम है। अमरकंटक से निकलकर इस इलाके से गुजरने वाली सबसे बडी नर्मदा भी इसी इलाके से गुजरती है। इनमें से ज्यादातर नदियां नर्मदा में मिलती हैं। इनके सूखने से नर्मदा भी प्रभावित हो रही है।

अगर हम मध्यप्रदेद्गा के पूर्वी छोर पर होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले विभक्त करने वाली दुधी नदी की बात करें, तो नदियों के संकट को समझा जा सकता है। यह नदी कुछ वर्ष पहले तक एक बारहमासी सदानीरा नदी थी। दुधी यानी दूध के समान। साफ और स्वच्छ। छिंदवाड़ा जिले में महादेव की पहाडियों से पातालकोट से दुधी निकलती है और सांडिया से ऊपर खैरा नामक स्थान में नर्मदा में आकर मिलती है। यह नर्मदा की सहायक नदी है। पर आज दुधी में एक बूंद भी पानी नहीं ढूंढने से नहीं मिलता। बारिश के दिनों में ही पानी रहता है और अप्रैल-मई माह तक आते-आते पानी की धार टूट जाती है और रेत ही रेत नजर आती है।

 जहां कभी पानी होने के कारण नदी में जनजीवन की चहल-पहल होती थी, पशु-पक्षी पानी पीते थे। बरौआ- कहार समुदाय के लोग इसकी रेत में डंगरवारी तरबूज-खरबूज की खेती करते थे। धोबी कपडे धोते थे, मछुआरे मछली पकड ते थे, केंवट समुदाय के लोग जूट के रेशों से रस्सी बनाते थे। वहां अब सन्नाटा पसरा रहता है। नदी संस्कृति खत्म हो गई है। अब लोग नदी के स्थान पर हैंडपंप और ट्‌यूबवेल पर आश्रित हो गए हैं, जिनकी अपनी सीमाएं हैं।

इसी जिले के पिपरिया कस्बे से गुजरने वाली मछवासा नदी भी सूख चुकी है। सोहागपुर की पलकमती कचरे से पट गई है। इन नदियों में जो पानी दिखता है, वह नदियों का नहीं, शहरों की गंदी नालियों का है। पलकमती से ही पूरे सोहागपुर का निस्तार होता था। सोहागपुर का रंगाई उद्योग और पानी की खेती दूर-दूर तक मशहूर थे। अब यह खेती अपनी अंतिम सांसें गिन रही है।


तवा और नर्मदा पर बांध बनाए गए हैं। उनसे सैकडों गांव विस्थापित हुए। जबसे बरगी बांध बना है तबसे तरबूज-खरबूज की खेती चौपट हो गई है। बरगी बांध १९९० में बन गया लेकिन उसकी नहरें आज तक नहीं बनी। इसलिए बांध में ज्यादा पानी रहता है तो छोड  दिया जाता है जिससे डंगरवारी बह जाती है। नर्मदा बांध बनने से उसमें मछलियां भी कम हो गई है।

हालांकि नर्मदा उसकी कई सहायक नदियों के सूखने के कारण वह बहुत कमजोर हो गई है। लेकिन हम इस सबसे नहीं चेत रहे हैं और पानी का बेहिसाब इस्तेमाल से पानी के स्रोतों को ही खत्म कर रहे है, जो शायद फिर पुनर्जीवित न हो सकें। अगर हमें बड़ी नदियों को बचाना है तो छोटी नदियों पर ध्यान देना होगा। छोटी नदियों का संरक्षण जरूरी है। अगर हम इन पर छोटे-छोटे स्टापडेम बनाकर जल संग्रह करें तो नदियां भी बचेंगी और खेती में भी सुधार संभव है।

Wednesday, May 12, 2010

मीडिया शिक्षा का अभिनव प्रयोग

दिव्या, जानकी, दीक्षा, मनीषा,रामकुमार, गोविंद आदि स्कूली बच्चे हाथ में पेन-कापीलिए साक्षात्कार ले रहे थे। डापका गांव के पूर्व सरपंच लक्ष्मण प्रसाद मेहरा और कोरकू  रानी रेवाबाई अपने ही गांव के बच्चों को नई भूमिका में देखकर भाव विह्वल हो गईं। बच्चे सवाल पर सवाल किए जा रहे थे और गांव के लोग उन्हें सुखद आश्चर्य से देख रहे थे। यहां चाहे घरों में काम करती महिलाएं हों या खेत जाने वाले किसान,  दूकान पर बैठे दुकानदार हों या स्कूल के शिक्षक सबसे बच्चों ने सबके साक्षात्कार लिए।  अलग-अलग टोलियों में विभक्त बच्चे पेशेवर पत्रकारों की तरह चर्चा कर रहे थे।

यह दृश्य था मध्यप्रदेश में होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखंड के एक छोटे से गांव डापका का। यह गांव सतपुड़ा की घाटी की गोद में बसा है। यहां आदिवासी ज्यादा हैं। पिपरिया विकासखंड मुखयालय से यहां की दूरी लगभग १५ किलोमीटर है। यहां के बच्चे अखबार से ज्यादा परिचित नहीं हैं और न ही टेलीविजन पर समाचार सुनते हैं। गांव के लोगों की माली हालत अच्छी नहीं है। खेती-किसानी के अलावा वनोपज और जंगल से निस्तार होता है। कुछ लोग हम्माली के काम के लिए पिपरिया आते हैं।

इस गांव में हमने शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत एकलव्य संस्था के सहयोग से मीडिया कार्यशाला का आयोजन किया । स्कूली बच्चों के साथ मीडिया कार्यशाला का यह मेरा पहला प्रयोग था। इसके पहले मैं ग्रामीण पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ ऐसी कार्यशाला कर चुका हूं। कार्यशाला में माध्यमिक स्तर के ३५ बच्चे शामिल थे। यह कार्यशाला ७ मई से १० मई तक चली।

इस दौरान पहले दो दिनों में मीडिया के विभिन्न माध्यमों का बच्चों पर क्या असर होता है, खबर कैसे बनती है और उन्हें कैसे लिखा जाता है, इस पर चर्चा की गई।  संपादक के नाम पत्र और साक्षात्कार के लिए क्या-क्या तैयारी चाहिए, इस पर प्रकाश डाला गया और इसके अभ्यास किए गए। तीसरे दिन गांव का दौरा किया।   ग्रामीणों से कई मुद्‌दों पर बच्चों ने बातचीत की। जिसमें बिजली कटौती, पीने के पानी की समस्या, फसल की रखवाली, नरवाई (हारवेस्टर की कटाई के बाद गेहूं के ठंडलों में आग लगाई जाती है) से नुकसान, गांव का विकास कैसा होना चाहिए आदि मुद्‌दे शामिल थे। चौथे और अंतिम दिन इन मुद्‌दों पर चमत्कार, नजर, पहल, कोयल, हाथी, कबूतर, सोनपरी आदि दीवार अखबार तैयार किए गए।

बिजली कटौती से आटाचक्की नहीं चलती और आटा पिसाई नहीं हो पाती, यह बात समझी जा सकती है। लेकिन पड़ोसी के घर से आटा मांगकर रोटी बनाई जाती है, यह बहुत कम लोग जानते हैं। हमारे साथ आए कुछ शहरी मित्रों को यह जानकारी भी नई थी कि फसल को कैसे सुअरों से नुकसान होता है।  जबकि जंगल क्षेत्र में यह समस्या आम और विकट है। जंगली जानवर और खासतौर से सुअर उनकी गेहूं- चना की फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। इन सभी समस्याओं पर बच्चों ने न केवल इन पर समाचार बनाएं बल्कि सुअर की नकल उतार कर भी बताई। जिस दिन से यहां खेतों में गेहूं-चना का बीज बोया जाता है उसी दिन से रखवाली करनी पडती है। खेत में डेरा डालकर रहना पडता है। अन्यथा जंगली जानवर सुअर, हिरण आदि उनकी फसलों को चौपट कर देते हैं। यह वैसा ही है कि नजर हटी कि दुर्घटना घटी।


स्कूली बच्चों को मीडिया शिक्षा की जरूरत महसूस की जाती रही है।  मीडिया का उन पर कई तरह से असर देखा जा सकता है। नकारात्मक असर की  खबरें आती रहती हैं। उन पर सिनेमा, टेलीविजन, रेडिया और समाचार पत्रों का असर देखा जाता है। जिनमें से आक्रामक हिंसा, नकल, फैशान और उपभोक्ता संस्कृति की ओर रूझान प्रमुख है। लेकिन मीडिया का सकारात्मक असर भी हो सकता है। शॆक्षणिक और सृजनात्मक असर भी हो सकता है, इस पर कम ही ध्यान दिया जाता है। अपने अनुभव और अवलोकन को शब्दों में कैसे अभिव्यक्त कर सकते हैं यह कार्यशाला का एक उद्‌देशय था। एकलव्य के जुडे चंदन यादव ने लेखन को चित्र और कार्टून से जोड कर बच्चों को बताया। एकलव्य पिपरिया के गोपाल राठी, कमलेशा भार्गव और राकेशा कारपेंटर ने पूरी कार्यशाला का संयोजन किया और भोपाल से आईं दीपाली ने उपयोगी सुझाव दिए।

आम तौर पर मीडिया वन-वे दिखाई देता है। वह खबरें या कार्यक्रम देता है और हम उसे देखते हैं। चाहे फिल्मों हो, टेलीविजन हो, रेडियो हो और समाचार पत्र. हों, ये सभी माध्यम वन-वे ही हैं। इनमें दर्शाकों की भूमिका सिर्फ दर्शक तक है। जबकि चाहे मनोरंजन की बात हो या संवाद की, इनमें भागीदारी बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती थी। लेकिन बच्चों में यह दृ्‌ष्टि विकसित करना कि वे खबर के पीछे की खबर को जान सकें। उन पर बात कर सकें और उनमें आलोचनात्मक और विशलेषणात्मक क्षमता विकसित की जा सके। वे मीडिया की बारीकियां समझ सकें और उनमें लेखन कौशाल विकसित हो सके।

कार्यशाला में यह कोशिश की गई कि बच्चों से संवाद बनाया जाए और वे भी इस पूरी प्रक्रिया में शामिल हों और हम बहुत हद इसमें सफल भी हुए। आखिरी दिन यह कोशिश सफल हुई जब उन्होंने खुद अपनी-अपनी टोलियों में दीवार अखबार तैयार किए। अखबार के नाम रखने से लेकर संपादन तक की भूमिका उन्होंने निभाई। वे अपने-अपने काम में इतने मनोयोग और तन्मयता से लगे थे, उन्हें देखते ही बनता था। मैं यह सोच रहा था कि ऐसा माहौल स्कूलों में क्यों  नहीं बन सकता?

Thursday, April 15, 2010

बुनकरों की रोजी-रोटी का संकट

''मैंने हथकरघे पर कपड़ा बनाने का काम पिताजी से बचपन में सीखा और थोडा-बहुत अब भी करता हूं। लेकिन अब यह काम धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर है। इस बस्ती में पहले हर घर में हथकरघा (हैंडलूम) चलता था, अब सिर्फ एक-दो घरों में चलता है। हथकरघे बंद पडे हैं और उनमें धूल जमी हैं। लोग रोजगार की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं।'' यह कहना है मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर के एक बुनकर महेन्द्र कोस्टी का।

नरसिंहपुर जिला मुख्यालय है। यहां कोस्टी समुदाय के बुनकरों की बस्ती है। इस बस्ती में 20-25 परिवार हैं। अब यहां हथकरघों की खट-पट सुनाई नहीं पड ती है। कुछ समय पहले करतल ध्वनि की तरह आवाज गूंजा करती थी। गली-मोहल्लों में चहल-पहल होती थी। पुरुष हथकरघे पर बैठते थे और महिलाएं चरखा पर सूत की बाविन बनाती थी॥ जब बडे -बुजुर्ग काम से थोडा थक जाते थे तब बच्चे भी सीखने के लिहाज से हाथ आजमाया करते थे। जैसे बीस बरस पहले कैलाश ने अपने पिता के साथ करघा सीखा था। लेकिन आज वह फेरी लगाकर कपडा बेचता है क्योंकि करघा अब बंद हैं।

महेन्द्र कोस्टी कहते है कि यह घर बैठे का काम है और इसे करने में उन्हें बडा संतोष का अनुभव होता है। हाथ से होने वाली कताई-बुनाई हुनर व कौशल की मांग करती हैं, जिसमें वे दक्ष हैं। एक दिन में करीब 4-5 रजाईयों का कपडा तैयार कर लेते थे। लेकिन अब खाली हाथ हैं, काम नहीं है। सिर्फ ठंड के मौसम में करघे चलते हैं।

वे बताते है कि अब सूत महंगा हो गया। उसे जबलपुर और नागपुर से मंगाते है। और मशीनीकरण होने के कारण उनकी बुनी हुई रजाईयों की मांग कम हो गई। नई-नई डिजाईन का भी जमाना है। पावरलूम के कपड़ों से हम स्पर्धा नहीं कर सकते। इसलिए हमारी सरकार को मदद करनी चाहिए। हाल ही उन्होंने रेशम विभाग की मदद से साडियों बनाने का काम शुरू किया है, लेकिन उसमें भी सिर्फ मजदूरी ही मिलती है। अब नरसिंहपुर की तरह सिवनी, मंडला, छिंदवाडा, लोधीखेडा, सौसर आदि कई जगहों के बुनकरों की रोजगार की समस्या पैदा हो गई है।

यह काम स्वावलंबी हो सके, पूरी तरह बुनकरों के हाथ में हो, इसलिए सूत के लिए मिलों पर निर्भरता नहीं होनी चाहिए, यह गांधी जी की भी सोच थी। उन्होने यह समझ लिया था हाथ की बुनाई की आर्थिक सफलता के लिए जरूरी है कि कताई भी हाथ से ही हो।

हमने नगद फसलों से प्रेरित होकर खेती में फसलचक्र को बदल लिया है। अब स्थानीय स्तर पर कपास उपलब्ध नहीं है। हालांकि यहां के आसपास की जमीन नर्मदा कछार होने के कारण बहुत ही उपजाऊ है, जिसमें कपास की खेती संभव है। इसलिए बुनकरों को अब सूत सस्ते में उपलब्ध हो सके, यह प्रयास करना चाहिए। अन्यथा सूत महंगा होने मात्र से बुनकरों की कमर टूट जाती है। यद्यपि यहां सहकारिता का पुराना अनुभव ठीक नहीं है। लेकिन वह भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है।

हमारे देश में खेती के अलावा छोटे-छोटे परंपरागत ग्रामो द्योग व लघु कुटीर उद्योग धंधे हुआ करते थे जिनसे लोगों को रोजगार मिलता था। इन काम-धंधों का खत्म करने का सिलसिला अंग्रेजों के जमाने से ही शुरू हो गया था, जो अब भी जारी है। उन्होंने हमारे किसानों व बुनकरों की कमर तोड ने के बहुत प्रयास किए। आजादी के बाद हमने बडे-बडे उद्योग लगाने पर जोर दिया और उन्हें बढावा देने के लिए सब्सिडी भी दी गई। उन्हें आधुनिक भारत के मंदिर कहा गया। लेकिन छोटे घरेलू उद्योगों पर ध्यान नहीं दिया गया बल्कि उनकी उपेक्षा की और खत्म होने के लिए छोड दिया जिससे बेरोजगारी बढती चली जा रही है।

अर्थशास्त्री और समाजवादी विचारक श्री सुनील कहते है कि केवल खेती से ही देश के लोगों की जीविका नहीं चल सकती। खेती के पूरक के रूप में छोटे-मोटे काम धंधे भी जरूरी है। लेकिन हमने औद्योगिकीकरण के चलते बड़े उद्योगों को बढावा दिया है और छोटे उद्योगों को खत्म किया है। इससे इन उद्योगों का बाजार में कब्जा हो गया और उन्हें इन छोटे उद्योगों में लगे लोगों का सस्ता श्रम भी उपलब्ध हो गया।

बुनकरों की तरह लोहार, बढई, बंशकार, तेली, रंगरेज, मोची, भड भूजे आदि कई घरेलू काम-धंधे थे। धीरे-धीरे वे या तो खत्म हो गए, या फिर खत्म होने की कगार पर हैं। इस कारण बडी संखया में लोग बेरोजगार हो रहे हैं और उनकी रोजी-रोटी का संकट बढ ता जा रहा है।

जबकि गांधीजी का दावा था कि ''चरखा सर्वाधिक सस्ता, सहज, सस्ते और व्यावहारिक ढंग से हमारे आर्थिक क्लेश की समस्या का समाघान कर सकता है। यह राष्ट्र की समृद्धि का और इसलिए , स्वतंत्रता का प्रतीक है। वह वाणिज्यिक युद्ध का नहीं, अपितु वाणिज्यिक शांति का प्रतीक है।''

मशीनीकरण भी एक कारण है, जिससे लोग बडी संखया में बेरोजगार हो रहे हैं। हैंडलूम की जगह पावरलूम ने ले ली है। इसी प्रकार खेती में मशीनीकरण से बडे पैमाने में लोगों को खेती से अलग होना पड रहा है। खेत की जुताई से लेकर कटाई तक मशीनीकरण से काम होने लगा है जिससे लोगों को खेती में काम नहीं मिल पा रहा है। वहीं दूसरी ओर हरित क्रांति का भी संकट स्पष्ट रूप से सामने आ गया है। और हरित क्रांति वाले कई राज्यों में किसान अपनी जान दे रहे हैं।

देश के जाने-माने पत्रकार भारत डोगरा का मानना है कि आज दुनिया में जब जलवायु परिवर्तन एक चिंता का विषय का बना हुआ है, तब अनियंत्रित मशीनीकरण पर पुनर्विचार करना चाहिए। क्योंकि इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जलवायु बदलाव का संकट बढने का खतरा बढ गया है। इसलिए अब हथकरघा जैसे कामों को फिर से खडा करने की जरूरत है।

Saturday, March 20, 2010

क्या नर्मदा की निर्मल चादर मैली होगी?

मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के सांईखेड़ा विकासखंड में एन.टी.पी.सी. के कोयला बिजलीघर लगने की खबर से गांववासी आंदोलित हैं। वे अपने घर-जमीन बचाने के लिए महात्मा गांधी की राह पर चलकर सत्याग्रह कर रहे हैं। धरना, प्रदर्शन और संकल्प का सिलसिला चल रहा है। वे प्रशासन के आला अफसरों से लेकर मुख्यमंत्री तक से मिल चुके हैं लेकिन अब तक उन्हें कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं मिला है।

इधर उन्होंने आंदोलन तेज करते हुए पिछले दिनों नर्मदा जल में खडे होकर संकल्प ले लिया है कि जान देंगे पर जमीन नहीं। गांववासियों की एकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पंचायत चुनाव का उन्होंने पूर्ण रूप से बहिष्कार किया और इन गांवों में एक भी वोट नहीं पडा।

नर्मदा और दूधी नदी के संगम पर बनने वाला यह सुपर कोयला बिजलीघर 2640 मेगावाट बिजली बनाएगा। इसमें 9 गांव की जमीन उपजाऊ जमीन ली जाने वाली है। तूमडा, महेशवर, संसारखेडा, मेहरागांव, झिकौली और निमावर ग्राम पंचायतों के 9 गांवों की जमीन जाएगी। इसके अलावा बरौआ, नोरिया, केंवट जैसे मछुआरा समुदाय के लोग भी प्रभावित होंगे। इन समुदायों का बरगी बांध बनने से पहले ही डंगरबाडी (तरबूज-खरबूज की खेती) का धंधा चौपट हो गया है। बरगी बांध से समय-असमय पानी छोडा जाता है, इस कारण तरबूज-खरबूज की खेती नहीं हो पा रही है।

तूमड़ा निवासी दयाद्गांकर खेमरिया कहते हैं कि यह सबसे उपजाऊ जमीन है। फसलों के रूप में सोना उगलती है। हम इसमें सभी फसलें लेते हैं। पहले यहां कपास और मूंगफली की खेती होती थी। वर्तमान में यहां की तुअर प्रसिद्ध है। यह नर्मदा कछार की जमीन है। सोयाबीन, गेहूं, गन्ना सब कुछ होता है। उन्होंने कहा कि हालांकि गांव नहीं हटाए जा रहे हैं लेकिन जब जमीन नहीं रहेगी, तो हम क्या करेंगे? यहां के पूर्व सरपंच छत्रपाल ने कहा कि हम किसी भी कीमत पर एन. टी. पी.सी. का संयंत्र नहीं लगने देंगे। इसका पूरी ताकत से विरोध किया जाएगा।

इस तरह नर्मदा पर करीब एक दर्जन बिजलीघर बनने वाले हैं। बडे-बडे बांध बनने के बाद नर्मदा पर यह दूसरा सबसे बडा संकट है। बरगी बांध, इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर, महेश्वर और सरदार सरोवर जैसे बांध बनाए जा चुके हैं। इससे नर्मदा के किनारे बसे गांवों और मंदिरों के रूप में हमारी बरसों पुरानी सभ्यता व संस्कृति खत्म हो रही है। नर्मदा की परिक्रमा की परंपरा बहुत पुरानी है। नर्मदा किनारे कई परकम्मावासी मिल जाएंगे। यहां कई पुरातत्वीय महत्व के स्थल भी मिले हैं।

बिजलीघर के विरोध करने के लिए बनी किसान मजदूर संघर्ष समिति तूमडा ने नर्मदा मां से भी अपने ऊपर आए इस संकट में गुहार लगाई है। इसमें कहा गया है कि '' हे मां, तेरी असीम कृपा से इस इलाके में जो नेमत बरसती थी, उससे यहां के रहवासियों को वंचित किया जा रहा है। मां ! जिस जमीन को तू हर साल अपने आंचल में समेट कर नया उर्वर जीवन देती रही है, बिजलीघर लग जाने के बाद, तेरी यही नियामत राख के पहाडों से बांझ हो जाएगी।''

करीब 5 हजार आबादी वाले तूमड़ा गांव की दीवारों पर एन.टी.पी.सी. के विरोध में नारे लिखे गए हैं। चौराहे पर एकत्र होकर दिन भर बिजलीघर ही चर्चा के केन्द्र में है। लोग बेचैन और परेशान हैं। आंदोलन कर रहे हैं। अब तक कोई अनिद्गचय का वातावरण बना हुआ है। दयाशंकर खेमरिया कहते हैं ''हमें प्यास लगी है, पानी चाहिए, वे हमें संतरा की गोली देते हैं। स्पष्ट कुछ नहीं कहा जाता, संयंत्र यहीं लगेगा या और कहीं। ''

समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री सुनील ने कहा कि नर्मदा बरगी बांध बनने से नर्मदा में तरबूज-खरबूज की बाडियों का धंधा चौपट हो गया। अब बिजलीघरों की राखड और कारखानों के प्रदूषण से मछली खतम हो जाएगी। उन्होंने कहा कि इनसे नदियां, जमीन, जंगल, जैव विविधता नहीं बचेगी। और नर्मदा जो बडे बांध बनने के कारण पहले से ही तालाब और नाला में बदल गई है, अब गटर में तब्दील हो जाएगी।

करीब 25 सालों से किसान-आदिवासियों के हक और इज्जत की लडाई लडने वाले श्री सुनील सवाल उठाते हैं कि क्या नर्मदा की स्थिति यमुना और गंगा जैसी नहीं होगी ? क्या नर्मदा का पानी आचमन करने लायक, नहाने लायक और मवेशियों के पीने लायक भी रह जाएगा ? लाखों किसान व गांववासी तो सीधे उजडेंगे ही, इस नदी पर आश्रित करो्डों लोगों की जिंदगी व रोजी-रोटी भी क्या बर्बाद नहीं हो जाएगी ? यह कैसा विकास है ?

इस क्षेत्र में सक्रिय समाजवादी जनपरिषद से जुडे गोपाल राठी व श्रीगोपाल गांगूडा ने कहा कि है कि इससे नर्मदा बहुत ही पवित्र नदी है। इससे लोगों की भावनाएं जुडी हुई हैं, इसे प्रदूषित होने से बचाया जाना जरूरी हैं।

पर्यावरणीय मुद्‌दों पर सतत लेखन करने वाले पत्रकार भारत डोगरा का कहना है कि यह ग्लोबल वार्मिग के संदर्भ में भी देखना चाहिए। थर्मल पावर से जो जिन कार्बन गैसों का उत्सर्जन होगा, उसका असर तापमान पर भी पडेगा। यह दुनिया का सबसे चिंता का विषय है। इसलिए हमें ऊर्जा के दूसरे विकल्पों पर विचार करना चाहिए।

(लेखक विकास संबंधी मुद्‌दों पर लिखते हैं)