Wednesday, December 30, 2009

बरमान में सतधारा की निराली छटा

भेड़ाघाट से लौटते हुए दूसरे दिन बरमान गए। रात्रि विश्राम नरसिंहपुर में किया। मध्यप्रदेश में करेली- सागर रोड़ पर स्थित है बरमान। यहां से भी नर्मदा होकर गुजरती है। अमरकंटक में विन्ध्यांचल और सतपुड़ा के मिलन बिन्दु से प्रारंभ होकर नर्मदा गुजरात में खम्बात की खाड़ी में मिलती है। इस बीच वह मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों से होकर गुजरती है। यह मध्यप्रदेश की सबसे बड़ी नदी है।

हम नर्मदा पुल पर उतरे और पैदल तट तक पहुंचे। यहां नर्मदा का तट बहुत ही संकरा है। पुल से ऊपर सतधारा है लेकिन ज्यादातर लोग पुल के नीचे ही स्नान करते हैं, ऊपर तक नहीं जाते। यहां विशालकाय चट्टानें हैं, उनके बीच से नर्मदा अपने ही निराले अंदाज में वेग से बह रही है। उफनती हुई स्वच्छ निर्मल धारा को देखते आंखें नहीं थकतीं। दिन भर बैठे देखते रहो। नयनाभिराम दृश्य। बहुत ही मनमोहक।

नरसिंहपुर से बहन भी साथ आई है। वह साथ में बाटी-भर्ता बनाने की सामग्री भी लाई है। आटा, बैंगन, लहसुन, टमाटर आदि। घुटनों तक पानी में डुबकी लगाकर हम तट पर पहुंच गए। इधर बहन ने गोबर के उपलों की अंगीठी सुलगा दी थी। वह आटा गूंथ रही थी। बेटा और पत्नी आलू और बैगन भून रहे थे। कुछ ही देर में बाटी और भर्ता तैयार। हमने भरपेट भोजन किया। नर्मदा तट पर पानी पिया। बहुत मीठा और साफ व स्वच्छ। आत्मा तृप्त हो गई।

नर्मदा न केवल उसके किनारे रहने वाले लोगों को बल्कि पशु-पक्षियों, वन्य प्राणियों, पेड़-पौधों और जंगलों को भी पालती-पोसती रही है। वह जीवनदायिनी है। नर्मदा जल की बात ही निराली है। यह जल सबको तारने और सबके दुखों को हरने वाला है। इसे लोग अपने घरों में बरसों सहेजकर रखते हैं। बहन ने भी यह जल बोतल में भरा और नर्मदा को नमन किया।


बरमान में मकर संक्राति पर बड़ा मेला लगता है जिसकी तैयारी रेतघाट में शुरू हो चुकी हैं। इस मेले में दूर-दूर से बड़ी संख्या में लोग आते हैं। गांव से बैलगाड़ियों में भर कर लोग आते हैं। वे अपने बैलों को नहला-धुलाकर व सजा-धजा कर लाते हैं। और नर्मदा तट पर बाटी-भर्ता बनाकर खाते हैं।मेले में सर्कस भी आता है। ऐसे मेले ग्राम्य जीवन में उमंग व उत्साह का संचार कर देते हैं। इनका खासतौर से बच्चों और महिलाओं को बेसब्री से इंतजार रहता है, जिन्हें बाहर निकलने का मौका कम मिलता है।

नर्मदा में चल रही छोटी नाव हमारा ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच रही थी। हालांकि मछुआरा समुदाय की हालत बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती। जबलपुर के पास नर्मदा पर बरगी बांध देश के बड़े बांधों में एक था। यह वर्ष 1990 के आसपास पूरा हुआ। मुझे पिछले वर्ष मछुआरा समुदाय जो केंवट, बरौआ, कहार में विभक्त है, के साथ बातचीत करने का मौका मिला।

उनके अनुसार जबसे यह बांध बना है तबसे उनकी रोजी-रोटी छिन गई। नर्मदा के किनारे पर उनकी बड़ी आबादी है। जबलपुर से लेकर गुजरात तक ये नर्मदा नदी में मछली पकड़ने का काम करते थे और उसके तटों पर फैली रेत पर डंगरवारी (तरबूज-खरबूज की खेती) करते थे। बरगी बांध बनने से उनके दोनों धंधे प्रभावित हुए। बरगी बांध से समय-बेसमय पानी छोड़े जाने के कारण वे आज न तो डंगरवारी कर पा रहे हैं और न ही अब नर्मदा में मछली ही बची है।

नर्मदा में लोग श्रद्धा से पैसे भी चढ़ाते हैं जिन्हें इसी मछुआरे समुदाय के बच्चे पानी में तैर कर पैसे उठा लेते हैं। इन बच्चों की पानी में गोता लगाने की गजब की क्षमता है। वे पानी के अंदर 5-10 मिनट तक सांस रोके रख सकते हैं। यह भी एक योग व प्राणायाम की तरह है, जिसे बिना अभ्यास के बड़े भी नहीं कर सकते। वर्श के अंत में और नए साल की शुरूआत में नर्मदा के साथ हमारा यह साक्षात्कार यादगार व मजेदार रहा। घर लौटते समय सोच रहा था कि युगों से प्रवाहमान नर्मदा जैसी नदियों को हम क्या बचा पाएंगे? नर्मदा की कई सहायक नदियां या तो सूख चुकी है या फिर बरसाती नाला बनकर रह गई है।

Tuesday, December 29, 2009

भेड़ाघाट में नर्मदा का सौंदर्य देखने उमड़ती है भीड़


पिछले दो वर्षो में दो बार भेड़ाघाट जाना हुआ। मध्यप्रदेश के जबलपुर से नजदीक है भेड़ाघाट। वैसे तो हम बचपन से ही यहां के बारे में पढ़ते-सुनते आ रहे हैं लेकिन प्रत्यक्ष रूप से इसे देखने का संयोग हाल ही बना। यहां की मार्बल राक्स और धुआंधार दोनों ही बहुत प्रसिद्ध है।

हम 26 तारीख(दिसम्बर 2009 को पिपरिया से सवारी ट्रेन में सुबह सवार हुए। यह ट्रेन बरसों पुरानी है। इसी ट्रेन से लोग गंगाजी(इलाहाबाद) जाया करते हैं। इस ट्रेन के बारे में एक धारणा यह है कि यह प्राय: ’लेट’ ही चलती है। बात सच हुई। पिपरिया से ही एक्सप्रेस ट्रेनों से ’पिटती’ गई तो एकाध स्टेशन को छोड़कर प्राय: हरेक स्टेशन पर पिटी।

मैं अपने परिवार के साथ जा रहा था। साथ में पत्नी और बेटा भी है। इस ट्रेन में जगह अमूमन मिल ही जाती है क्योंकि छोटे-छोटे ’स्टाप’ पर लोग चढ़ते-उतरते रहते हैं। वे आपस में अपने सुख-दुख की बातें करते हैं। इस बीच चना मसाला, अमरूद, मूंगफली बेचने वाले भी आते-जाते हैं। कुछ अप्रिय दृशय भी देखने मिलते हैं जब कोई छोटा बच्चा अपनी शर्ट उतारकर उससे बोगी का फर्श साफ कर हाथ फैलाता है।

सुबह की हमारी ट्रेन शाम को भेड़ाघाट पहुंची। स्टेशन से कुछ दूर पैदल चल हम आटो-टेम्पो में सवार हो धुआंधार पहुंचे। एकाध किलोमीटर सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए हमें बहुत से लोग मिले। दोनों ओर पूजा-सामग्री और मार्बल राक्स की मूर्तियों की दूकानें लगी थीं। शंख-शीप, कंठी-माला, नारियल आदि की दुकानें सजी थीं। हनुमान जी की मूर्ति के सामने एक सूरदास बहुत ही मधुर आवाज में तंबूरे की तान के साथ नर्मदा का बखान कर रहे थे।

अब हम धुआंधार के सामने खड़े हैं। सामने यानी रेलिंग पर। नर्मदा यहां कोई 10-12 फीट नीचे खड्ड में गिरती है और फुहारों के साथ ऊपर उछलती है, मचलती है। गेंद की तरह टप्पा खाकर फब्वारों साथ ऊपर कूदती है । यहां नर्मदा का मनोरम सौंदर्य अपने चरम पर होता है। घंटों निहारते रहो, फिर भी मन न भरे। जल प्रपात का ऐसा नजारा शायद ही कहीं और देखने को मिले।

धुआंधार के सामने दोनों ओर कतारबद्ध संगमरमर की चटानें हैं, जो नर्मदा का रास्ता रोकती हैं। इन मार्बल राक्स की बनावट ऐसी है कि लगता है इन्हें किसी धारदार छेनी से तराशा गया हो। चट्टानों की बीच नर्मदा सिकुड़ती जाती है पर वह अपने वेग में बलखाती, इठलाती और अठखेलियां करती आगे बढ़ती जाती है। मानो कह रही हो "मुझे कोई नहीं रोक सकता।

यहां ’रोपवे’ भी हैं लेकिन मेरे बेटे ने इस पर यह कहकर जाने से मना कर दिया कि यह विकलांगों के लिए है। हम तो पैदल चलकर ही जाएंगे। यानी यह जेब ढीली करने का ही साधन है।

संझा आरती का समय है। भक्तजन नर्मदा मैया की आरती कर रहे हैं। दीया जलाकर लोग आरती कर रहे हैं और कुछ लोग नर्मदा में दीप प्रवाह कर रहे हैं। कर्तल ध्वनि के साथ आरती में बहुत से लोग शामिल हो गए हैं। आरती के पशचात प्रसाद वितरण हो रहा है।

कुछ परिक्रमावासी ’हर-हर नर्बदे’ का जयकारा कर रहे हैं। पहले लोग नर्मदा के एक छोर से दूसरे छोर तक और वापस उसी स्थान तक पैदल ही परिक्रमा करते थे। अब भी कुछ लोग करते हैं। लेकिन अब बस या ट्रेन से भी परिक्रमा करने लगे हैं।

जीवनदायिनी नर्मदा की महिमा युगों-युगों से लोग गाते आ रहे हैं। लेकिन अब नर्मदा संकट में है। बरसों से नर्मदा बचाओ की लड़ाई लड़ी जा रही है। इस पर बड़े-बड़े बांध बनाए जा रहे हैं। मैं वापस लौटते समय सोच रहा था कि क्या इस जीवनदायिनी मनोरम सौंदर्य की नदी को बचाया नहीं जा सकता?

Wednesday, December 16, 2009

स्वास्थ्य के क्षेत्र में जंगल में जल रही है नई लालटेन

डगनिया की बिरसाबाई और मिनका बाई एक कपडे की गुड़िया और गुड्डे को गोद में लिए बैठी हैं। गोबर से लिपे-पुते एक दहलाननुमा बडे कमरे में करीब 40 महिलाएं उन्हें देख रही हैं। वे आपस में बातें भी कर रही हैं। अपने-अपने अनुभव साझा कर रही हैं। यहां कोई गुडडे-गुड़िया का खेल नहीं हो रहा है और ना ही कठपुतली का कोई नाच। दरअसल, ये महिलाएं जचकी कैसे करवाई जाए और जचकी करवाने में क्या-क्या दिक्कतें आ सकती हैं, इस पर बात कर रही हैं। ये सभी महिलाएं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के अचानक अभयारण्य के दूरदराज के गांव बम्हनी में एक स्वास्थ्य प्रशिक्षण शिविर में शामिल थीं, जहां अब तक पहुंचने के लिए कोई सड़क मार्ग नहीं है। जब सड़क नहीं है तो आने-जाने के लिए कोई सुविधा हो, यह सवाल व्यर्थ है। जबकि अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छी यातायात व्यवस्था जरूरी है।

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के कोटा-लोरमी विकासखंड में पिछले एक साल से गांवों में दाई का काम करने वाली महिलाओं का प्रशिक्षण का काम किया जा रहा है। जन स्वास्थ्य सहयोग ने इस काम की जिम्मेदारी ली है। दो वर्ष पूर्व "( 24 अक्टूबर, 2007 ) करीब 40 महिलाओं का अचानक अभयारण्य के अंदर के गांव बम्हनी में दो दिवसीय प्रशिक्षण किया गया। इस प्रशिक्षण में भाग लेने वाली लगभग पूरी महिलाएं अनपढ़ थीं लेकिन अनुभवहीन नहीं। उन्हें इस काम में बरसों का अनुभव था जिससे आगे वे यहां सीखने आई थीं। जन स्वास्थ्य के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र से जुडीं डा. रमनी उन्हें प्रशिक्षण दे रही थीं। जन स्वास्थ्य केन्द्र बिलासपुर जिले में एक सरकारी संस्था है जो स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनूठा कार्य कर रही है। वह कम कीमत में बेहतर इलाज के साथ दूरस्थ गांवों में भी अपनी सेवाएं दे रही है।

उनके अनुसार आजकल अस्पताल में ही जचकी करवाने पर जोर दिया जा रहा है लेकिन दूरदराज के गांवों के लोग अस्पताल तक कैसे पहुंचे? यहां पहुंचने तक सड़क नहीं है और ना ही कोई वाहन। फिर अगर किसी भी तरह कोई वाहन कर भी लिया जाए तो बारिश के दिनों में बाढ समस्या है और सामान्य दिनों में भी गर्भवती महिलाओं के लिए जचकी और हैजा जैसी गंभीर स्थिति में अस्पताल तक पहुंचने तक भी अनहोनी की आशंका बनी रहती है। यानी यहां के लोगों को न अस्पताल की सुविधा है और ना ही नर्स उपलब्ध है। इसलिए हमने परंपरागत दाईयों का प्रशिक्षण की व्यवस्था की है जिससे गर्भवती महिला और उसके नवजात शिशु को बचाया जा सके।
डा. रमनी का कहना है कि हमारे यहां मातृत्व मृत्यु दर ज्यादा है। (आंकडों के हिसाब से प्रसव के दौरान महिलाओं की मृत्यु दर वर्ष 2001- 03 में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ मिलाकर प्रति एक लाख बच्चों के जन्म पर 379 थी, जबकि राष्ट्रीय औसत 301 था।) गर्भवती महिलाओं की मौत कई कारणों से हो सकती है। प्राय: प्रसव के दौरान अधिक रक्तस्त्राव, संक्रमण और ब्लड प्रेशर आदि से मौतें होती हैं। उन्होंने कहा कि अगर प्रसव के समय मां मर जाती है तो उसका बच्चा भी कुछ समय बाद मर जाता है। यानी इन दोनों को कैसे बचाया जाए, यह चुनौती है।

उन्होंने कहा कि हालांकि अनपढ़ होने के कारण महिलाओं को सीखने में कुछ समय लगता है लेकिन वे सीखकर उसका इस्तेमाल कर रही है, यह उम्मीद बंधाता है। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि अतरिया की महिला सरपंच गर्भवती थी और उन्हें प्रसव पूर्व बहुत रक्तस्त्राव हो रहा था जब इसकी खबर गांव की दाई सूनी बाई को लगी तो उन्होंने प्रशिक्षण में सीखी तकनीक अपनाकर उनका रक्तस्त्राव को रोका और उन्हें गनियारी अस्पताल भेजकर उनका इलाज करवाया जिससे जच्चा-बच्चा दोनों की जान बच सकी।

इसी प्रकार दाईयों को बुखार नापना, खून की कमी की पहचान, पेशाब में संक्रमण और गर्भावस्था के समय होनेवाली समस्याओं से अवगत कराया जाता है। चूंकि बुखार नापने के लिए थर्मामीटर पढने में दिक्कत होती है इसलिए इसके लिए एक विशेष प्रकार का थर्मामीटर बनवाया गया है जिसमें पढ़ने की जरूरत नहीं रहती। इस थर्मामीटर में लाल-हरे रंगों को देखकर बुखार नापा जा सकता है। इसी प्रकार प्रसव के समय समयावधि का पता लगाने के लिए दाईयों को घड़ी देखना सिखाया जा रहा है।

स्वास्थ्य कार्यकर्ता मंजू ने कहा कि दाईयां महिलाओं के प्रसव के समय सभी काम करती हैं। पहले नाल काटने का काम सुईन करती थी अगर वह किसी काम से गांव से बाहर चली गई तो बच्चे बिना नाल कटे हुए हफते भर तक पडे रहते थे जिससे संक्रमण का खतरा बना रहता था। फिर उन्हें जो अनाज और पैसे आदि देना पडता था, वह भी बच जाता है। उन्होंने कहा कि हमारी दाईयां दिन हो या रात, बारिश हो या बाढ, सदैव काम करती हैं। अब गांवों में इस पर विचार किया जा रहा है कि जिस प्रकार बाल काटने के लिए नाई का और गाय चराने के लिए राउत का अनाज तय होता है उसी प्रकार दाई के लिए भी गांव वालों की ओर से व्यवस्था होना चाहिए।

यह प्रशिक्षण शिविर शहरों में होने वाली कार्यशालाओं से अलग था। यहां कोई भाषण देने या ज्ञान के आदान-प्रदान की जल्दबाजी नहीं है। यहां प्रशिक्षक एक बात को बार-बार समझाने के लिए तत्पर हैं। ये न सिर्फ़ अपनी पढाई को दाईयों को देने के लिए उतावले हैं बल्कि उनसे भी कई बातें सीखने के लिए लालायित हैं। ये महिलाएं प्रसव के दौरान होनेवाली दिक्कतों का अभिनय भी करके बता रही थी जिससे माहौल नोरंजक हो जाता था। बुजुर्ग महिलाएं जब गर्भवती महिला के बच्चे की धडकन सुन रही थी तब उनके चेहरे पर बाल सुलभ मुस्कान तैर रही थी।

बम्हनी की फगनी बाई, बाबूटोला की मयाजो, जगती बाई, जकडबांधा की मिलाजू, ठुमरी और गुलिया बाई ने प्रशिक्षण के बारे में कहा कि उन्हें दस्ताने मिल गए। चशमा मिल गया। अंधेरे के लिए टार्च की व्यवस्था की जा रही है। गर्भवती महिलाओं की हर माह जांच की जाती है। उनके नवजात शिशुओं के लिए नए कपडे दिए जाते हैं। फिर बम्हनी में क्लिनिक है, गंभीर स्थिति के लिए गनियारी में अस्पताल है। यह सब हमारे लिए बहुत सुभीता हो गया है। कुल मिलाकर, जन स्वास्थ्य की पहल अंधेरे में आशा की नई किरण की तरह है

Tuesday, December 15, 2009

क्यों याद आते हैं आदिवासी गांव?

कुछ समय पहले मेरा छत्तीसगढ़ जाना हुआ। जशपुर नगर के एक गांव में चराईखेरा में हम गए थे। विकासखंड कुनकुरी से गांव की दूरी लगभग 13-14 किलोमीटर है। यहां से आने-जाने के लिए दिन में एक-दो बसें ही चलती हैं। सड़कें कच्ची हैं अगर आपने रूमाल या कपड़े से सिर नहीं ढका तो आपकी रंगत बदल जाएगी और आपको पहचानना मुशिकल हो जाएगा।


जिस घर में हम रूके थे, वह कच्चा था लेकिन सीमेंट व कांक्रीट के पक्के घरों से अपेक्षाकृत ठंडा था। वहां हर चीज सुघड़ता से रखी हुई थी। गोबर व काली मिट्टी से लिपा-पुता यह घर अपना सौंदर्य बिखेर रहा था। ऊंची दीवारों वाले खपरैल से ढके इस हवादार घर के आगे-पीछे काफी खुली जगह थी। बच्चों के खेलने-कूदने और उठने-बैठने के हिसाब से पर्याप्त जगह थी, ऐसी सुविधा शहरी घरों में नहीं मिलती। अंग्रेजी के यू आकार के बने इस घर के पीछे बाड़ी थी। यहां के लगभग हर घर में बाड़ी है, जहां से हरी सब्जियां लगाई जाती हैं।

सब्जियों में पानी देने के लिए कुआं होता है, जिसमें बांस की लकड़ी के एक सिरे पर बाल्टी बंधी रहती है और दूसरे सिरे पर पत्थर। बिल्कुल रेलवे गेट की तरह। इस लकड़ी के एक सिरे को पकड़कर ऊपर-नीचे करने से पानी खींचा जा सकता है। इसे स्थानीय भाषा में टेढा कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में इसी टेढ़ा पद्धति से सिंचाई की जाती है। यहां बाड़ियों में लगे हरे-भरे कटहल के पेड़ों को फलों से लदा देखकर कोई भी मोहित हो सकता है। इस गांव में आम का बगीचा था, जहां बच्चों की टोलियां मंडराती रहती थी, गुलेल से निशाना साधकर, आम गिराना, इनके बाएं हाथ का खेल है।

इसके अलावा, चार ( चिरौंजी ) के जंगल में जाकर पेड़ों से पके चार को खाने का एक अलग ही मजा है। बरगद के फल, इमली, आंवला, इमली की पत्ती तोड़-तोड़कर बच्चे खाते रहते हैं। दस-बारह साल की अरसन हमारे साथ जंगल गई और बिना रूके चार के पेड़ पर सहज ही चढ़ गई। अरमिता जो हमें जंगल दिखाने ले गई थी, वह खुद बहुत पतली शाखाओं वाले पेड़ पर चढ़ी और जामुन जैसे पके चार गिराए, जिसे हमने बड़े मजे से खाया।

गांव के छोटे बच्चे जंगल के पेड़ों के नाम, जंगली जानवरों व फल-फूलों के नाम और पहाड़ों के बारे में ढेरों बाते जानते हैं, जिसे सुनकर सुखद आशचर्य होता है। ऐसी याददाशत शायद ही हमारे शहरी पढ़ाकू अंग्रेजदा बच्चों की हो। इसी प्रकार यहां के बुजुर्गों से बात कर जंगलों में मौजूद सैकड़ों जड़ी-बूटियों के बारे में जाना जा सकता है। भूख के दिनों में काम आने-वाले कंद-मूल, फल-फूलों के बारे में वे सहज ही बता देते हैं, जो यहां के जंगल और पहाड़ में मौजूद हैं।

यहां उरांव आदिवासी हैं, इनमें से ज्यादातर बहुत पहले ईसाई बन गए थे। मजबूत काले और गठीले देह के इन लोगों का जीवन बड़ा कठिन लगता है। महिलाएं पुरुषों से अधिक काम करती हैं। लेकिन महिलाओं पर उतनी पाबंदी नहीं है, जितनी अन्य जगहों में होती है। यहां की लड़कियां साइकिल चलाती है, जो उनकी आजादी की प्रतीक बन गई है। वे साइकिल पर सवार होकर स्कूल जाती हैं। चर्च जाती हैं और हाट-बाजार जाती हैं। वे गांव से दूसरे गांव अकेले ही साइकिल से जा सकती हैं, उन्हें किसी पुरुष की मदद की जरूरत नहीं। इस गांव में तो बिजली है लेकिन पड़ोसी गांव कोनकेल आज तक बिजली नहीं है। वे अब भी चिमनी युग में जी रहे हैं।

यहां का जीवन कठिन व सुविधाविहीन है। अलसुबह 4 बजे लोग जाते हैं। हमारी तरह 8 बजे तक सोना इनकी आदत में नहीं। सबसे पहले मुंह हाथ धोकर उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती है। महिलाएं साफ-सफाई का काम करती हैं। पानी भरती हैं, यह टेढा काम है। हैंडपंप नजदीक नहीं होने के कारण दूर-दूर से सिर पर पानी भरे बर्तन ढोना पड़ता है। झाडू लगाना भी बड़ी मशक्कत का काम है। यहां शहरों की तरह एक-दो चिकने कमरों की सफाई नहीं करनी पड़ती बल्कि अपने घरों की सफाई के साथ ढोरों व सुअरों को बांधने की लंबी-चौड़ी जगह को साफ करना पड़ता है। वहां के कचरे को उठाकर बाहर फेंकना पड़ता है। महिलाओं की तरह भी पुरुष भी हाड़तोड़ मेहनत करते हैं। खेत-खलिहान से लेकर जंगल से वनोपज संग्रह के काम में लगातार करते रहते हैं।

यहां दूर-दूर मकानों में रहने वाले लोगों में एक-दूसरे के साथ बहुत नजदीक रिशता है। सामूहिकता है, आपसी भाईचारा, आत्मीय रिशता और पारंपरिक मेल-जोल है। उन्हें उनकी संस्कृति आपस में सब को जोड़े हुए हैं। जोड़ने वाली संस्कृति के कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। कोनकेल की अंजिता, रजनी, इस्दौर रेमा, असमिता, विनीता आदि कई स्कूली लड़के-लड़कियां अपने गांव के बुजुर्ग सुलेमान एक्का नामक किसान के खेत में गोबर खाद डालने का काम कर रहे हैं। यह गर्मी की छुटि्टयों की बात है। हालांकि उन्हें बदले में कुछ पैसा भी मिलेगा लेकिन इससे भी अधिक अपने गांव के बुजुर्ग किसान की मदद है। ऐसे गांवों को देखकर खु्शी से दिल उछल जाता है।
(यह लेख 22 दिसंबर 2009 को छत्तीसगढ़, रायपुर मै प्रकाशित हो चुका है)

Saturday, December 12, 2009

सतपुड़ा का मढ़ई-मेला

मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में पिपरिया और पचमढ़ी के बीच में स्थित है मटकुली। आज(19 अक्टूबर ) वहां की मढई है। मैं अपने बेटे के साथ मढ़ई-मेला देखने जा रहा हूं। हम सतपुड़ा के जंगल के बीच से गुजर रहे हैं। थोडी देर पहले हमें मोर का एक सुंदर जोड़ा दिखा। मटकुली पहुंचने से पहले ही हमें सजे-धजे स्त्री-पुरुष और बच्चे मिले, जो अपने गांवों से मढ़ई के लिए मीलों पैदल चलकर आ रहे थे। अब हम मटकुली में पहुंच गए।

यहां सड़क से लगे एक मैदान में मढ़ई-मेला लगा हुआ है। दूर से ही हमें सबसे पहली झलक ढालों की दिखी। यहां गांगो की मड़िया (मंडप) थी, जहां पड़िहार (पूजा करने वाले )मौजूद थे।गांगो की मूर्ति विराजमान थी। यह मड़िया इमली की टहनियों व पत्तों से बनी थी। ढाल लंबे बांस के एक सिरे पर मोर पंख से छतरीनुमा बनाई जाती है। ये ढालें करीब 15-20 फीट लंबी होती हैं। इन्हें लेकर लोग नाचते-गाते मंढई में आते हैं। अहीर नृत्य इसका मुख्य आकर्षण का केन्द्र होता है। इसमें विशेष वेश-भूषा में ढाल के साथ अहीर नाचते हुए चलते हैं। बाद में ढालें लेकर वे गांगो की मूर्ति के आसपास चक्कर लगाते हैं।
मढ़ई में ढालों के आने का सिलसिला जारी है। मेले में काफी भीड़ जुट रही है। दूरदराज के गांव के लोग बैलगाडियों से भी आए हैं, जिनकी बैलगाड़ी विशाल पीपल पेड़ नीचे खड़ी हैं। बैल काफी सजे-धजे हैं। उन पर रंग-बिरंगे मुहरनुमा छापे दिखाई दे रहे थे।

जैसे-जैसे शाम ढल रही थी मेले की रौनक बढ़ती जा रही थी। तेज रोशनी वाले बल्बों की रोशनी चमक रही थी। आदिवासी युवक-युवतियां व बच्चों की टोलियां इधर-उधर घूम रही थीं। यहां मिठाईयों की दूकान थी। मिट्टी के सुंदर खिलौने थे जिनमें तोता, गाय-बैल आदि शामिल थे। गुब्बारे व खिलौने बिक रहे थे। उमंग और उत्साह का माहौल था।

कार्तिक अमावस्या यानी दीपावली के अगले दिन से ही मढ़ई-मेला का सिलसिला शुरू हो जाता है पूर्णिमा तक चलता है। मुख्य रूप से गोंड आदिवासी इसे बड़े धूमधाम से मनाते हैं। गजेटियर के अनुसार गांगो तेलिन की याद में यह त्यौहार मनाया जाता है। वह एक बड़ी जादूगरनी थी। यहां गांगों की पूजा करने वाले बिसराम का कहना है कि ढाल देवी का प्रतीक है। यहां हम गांगो की पूजा करते हैं।

हमारे ज्यादातर तीज-त्यौहार कृषि से जुड़े हुए हैं। मढ़ई का भी इससे जुड़ाव है। जब धान की नई फसल आ जाती है और उनके घरों में अनाज आ जाता है तब वे खुशियां मनाते हैं। यह समृद्धि और खुशहाली का मौका होता है। दीपावली खुशियां बांटने का त्यौहार है।

इस मौके पर घर की लिपाई-पुताई और उसमें रंग-रोगन किया जाता है। शाम को गाय-बैल की पूजा की जाती है। उनकी सार (उन्हें बांधने का स्थान ) में दीये जलाए जाते हैं। और दूसरे दिन उन्हें रंग दिया जाता है।

मेले में अब सभी ढालें आ चुकी हैं और पड़िहार आपस में बातें कर रहे हैं। दूकानों पर काफी भीड़ है। लोग मिठाईयां खरीद रहे हैं। सिंघाड़ा और पींड (कंद-मूल) खरीद रहे हैं। इधर-उधर जाते समय धक्का-मुक्की हो रही है। अब घर जाने का समय हो गया है। पर हमारा लौटने का मन नहीं कर रहा है। कई साल बाहर रहने के बाद अपने इलाके की मढ़ई में जाना और देखना बहुत ही मजेदार था।










Saturday, November 28, 2009

स्कूल बिना पढ़ाई : शिक्षक दंपति की मेहनत रंग लाई

केरल में एक शिक्षक दंपति ऐसे हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को कभी स्कूल नहीं भेजा। बल्कि खुद ही बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की। आज उनके बच्चे पढ़ाई में किसी से पीछे नहीं हैं। बरसों पहले उन्होंने खुद सरकारी स्कूल से त्यागपत्र देकर खुद ही अपने बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी ली। पर घिसे-पिटे सरकारी स्कूलों की तरह नहीं बल्कि अपने नए और अनूठे तरीके से। आज उनके बच्चे किसी से कम नहीं हैं। बल्कि शिक्षा के अलावा और भी क्षेत्रों में उनकी प्रतिभा निखर रही है। उनका यह अनूठा आश्रमनुमा स्कूल पालक्कड़ जिले के चित्तूर में है। इस आवासीय स्कूल में 10 बच्चे पढ़ते हैं। स्कूल का नाम सारंग है।

इस स्कूल में बच्चे परीक्षा के लिए नहीं पढ़ते और न ही उन्हें पाठ्यक्रम पूरा करने का दबाव है। वे यहां हर तरह के दबाव से मुक्त हैं, आजाद हैं। वे सीखने के लिए पढ़ते हैं। मजे के लिए पढ़ते हैं। वे रोज अखबार पढ़ते हैं, उस पर चर्चा करते हैं। खेल-खेल में शिक्षा की शिक्षण पद्धति की बातें बहुत होती हैं, लेकिन केरल में इसे अमल में लाया जा रहा है। इस शिक्षक दंपति के बड़े बेटे गौतम को चार भाषाओं के जानकार हैं। वे वेब डिजाइनिंग से लेकर खेती-किसानी के कई काम करते हैं।
गौतम की तरह ही उनकी दोनों बहनें कन्नकी(14) और उन्नीआर्चा(12) भी इसी पद्धति से पढ़ाई कर रही हैं। कन्नकी की मूर्तिकला में रुचि है। जबकि उन्नीआर्चा वायलिन और मृदंग में अपनी प्रतिभा निखार रही हैं। दोनों मर्शल आर्ट, भोजन पकाना और कम्प्यूटर सीख रही हैं। उनके साथ और भी बच्चे सारंग स्कूल में पढ़ते हैं।कुछ समय पहले गौतम सारंग से हुई बातचीत के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं:-

0 आपके मां-बाप दोनों शिक्षक थे और आपको कभी स्कूल नहीं भेजा?
00 मेरे मां-बाप की सोच थी कि स्कूल में सिर्फ़ जानकारी मिलती है और उसका इस्तेमाल कैसे और किस उद्देशय के लिए करना है, इसे नहीं सिखाया जाता है। यह विवेक से आता है, समझ से आता है, संस्कृति से आता है। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की समस्या है कि वह हमें यह नहीं सिखा पा रही है।
0 जब आप एक दिन भी स्कूल नहीं गए तब आपने कैसे सीखा?
00 सभी बच्चों में सीखने की प्रक्रिया चलती रहती है उन्हें सिखाने की जरूरत नहीं है। उनमें कौशल रहता है लेकिन उसकी हमेशा उपेक्षा होती है। आप जानते हैं कि सीखने के लिए उचित वातावरण की जरूरत होती है। स्कूल में यह वातावरण नहीं मिलता।
0 आपको घर पर क्या यह वातावरण मिला?
00 मेरे मां-बाप दोनों शिक्षक थे। वे सदैव लिखते-पढ़ते रहते थे। घर में अखबार आता था। जब मां-पिताजी पढ़ते थे तो मैं भी उन्हें देखा करता था। मेरे माताजी-पिताजी कुछ लिखते थे तो एक-दूसरे को पढ़कर सुनाते थे। जैसे वे अपने किसी मित्र को पत्र लिखते थे तो पढ़ते थे। वह मैं भी सुनता था। यह बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि जैसा बड़े करते हैं उसी प्रकार से बच्चे करते हैं।
यानी मुझे लिखने-पढ़ने का वातावरण घर पर ही मिल रहा था। अक्षर, शब्द और उच्चारण का शुरू से ही परिचय मिल रहा था। मैं हमेशा अक्षरों के बीच में था। इस तरह मैंने 4 साल की उम्र में मलयालम सीखना शुरू कर दिया था। लेकिन मेरी बहन 12 साल की हो गई। उसकी पढ़ने में ज्यादा रूचि नहीं है, उसे दूसरी चीजों में है। यानी हर बच्चा अलग है।
0 आपकी विषय की समझ कैसे बनी?
00 मेरी शिक्षा अलग-अलग टुकड़ों में नहीं हुई। मैं हर कहीं, हर समय सीखता रहता था। जो भी हम देखते हैं, सुनते हैं, वह नई चीज होती है। जो महसूस करते हैं, उसे देखते हैं, सूंघते हैं, उसकी खुशबू लेते हैं, उससे नया अनुभव होता है। उससे हमारे मन में नए-नए सवाल उठते रहते हैं। बच्चों में जन्मजात खोजी प्रवृत्ति होती है।
वे हमेशा सवाल करते हैं। वे जानकारी के लिए हमेशा भूखे रहते है। एक उदाहरण से अपनी बात समझाता हूं। जैसे मैं अपनी बाइक में पेट्रोल भरवाने के लिए पेट्रोल पंप गया। वहां मैंने अलग-अलग जगह पर पेट्रोल और डीजल लिखा देखा। इससे हम अक्षर ज्ञान भी कर सकते हैं। पेटोल के बारे में और जानना चाहेंगे तो रसायन की बात हो जाएगी। और अगर हम पेट्रोल के पैसे देंगे तो गणित का ज्ञान हो सकता है।

0 आपने कितनी भाषाएं सीखी और कैसे?
00 मैंने मलयालम, इरूला (आदिवासी भाषा), अंग्रेजी, तमिल और हिंदी आदि भाषाएं सीखी हैं। मेरा सीखने का तरीका है पहले सुनना, फिर बोलना, फिर पढ़ना, फिर लिखना और अंत में व्याकरण सीखना। यह हो सकता है हम सीखने में कई बार गलतियां करते हैं, लेकिन मैं इन्हें सुधारने के लिए हमेशा तैयार रहता हूं। अगर हम शुरू से ही यही सोचेंगे कि मुझसे व्याकरण की गलतियां हो जाएंगी तो सीखने की प्रक्रिया आगे कैसे बढ़ेगी?

0 तमिल कैसे सीखी?
00 तमिलनाडु हमारा पड़ोसी राज्य है। मुझे फोटोग्राफी का शौक है। मैं वहां कैमरे से खीची गई फोटो धुलवाने जाया करता था। तमिल भाषा से मुझे प्यार हो गया। मैं उसे सीखने की कोशिश करने लगा। कुछ समय में लिखना-पढ़ना तो सीख गया पर अर्थ नहीं समझ पाता था। जब थोड़ा बड़ा हुआ तो पूरा सीखने के लिए मैंने फिर कोशिश की। रेडियो सुनता था, तमिल फिल्म देखता था। इस तरह तमिल सीख गया।

0 और आपने क्या-क्या सीखा?
00 बहुत लंबी सूची हो सकती है। जैसे इलेक्ट्रानिक्स, वेब डिजाइनिंग, फोटोग्राफी, सिनेमेटोग्राफी, भारत नाट्यम, कर्नाटक संगीत, टाइपिंग, कपड़ा बुनना, केरल मार्शल आर्ट, कुकिंग और जैविक खेती, पशुपालन आदि। बैंगलौर की एक विज्ञापन एजेंसी के साथ एक विज्ञापन बनाने में मदद की। सहायक कैमरामेन का काम किया। इसके अलावा, मलयालम की दो-तीन फिल्मों में सहायक सिनेमेटोग्राफी का काम किया।
हमारे घर में छोटा पुस्तकालय है। उसमें तरह-तरह की किताबें हैं। मेरे मां-पिताजी और अब मेरे भी अलग-अलग क्षेत्र में काम करने वाले मित्र हैं। कई बार मैं उनके साथ उनके काम में सहयोग करते-करते सीखा। यात्राएं करता हूं। जो काम सीखना है उससे जुड़ता हूं। मैं हमेशा सीखता रहता हूं। इस तरह हमारे आसपास ही ज्ञान का भंडार है। अब इंटरनेट से भी हम सीख सकते हैं।

0 यानी आपने काम के साथ सीखा है?
00 जी हां! सीखने की प्रक्रिया यहीं है। आप पुस्तकों से सीखें या सीधे फील्ड में जाकर या लोगों से बातकर, यही प्रक्रिया सीखने की है।






Saturday, November 21, 2009

कम कीमत में बेहतर इलाज की मिसाल है जन स्वास्थ्य सहयोग

अंग्रेजी के टी आकार के बरामदा में लोगों की भीड़ जमा है। सुबह के आठ बजे हैं। इन लोगों मे कई पिछली रात ही यहां पहुंच गए थे। जंगल के दूरदराज के गांवों के ये लोग यहां इलाज कराने के लिए आए हैं। डाक्टर को दिखाने के लिए यहां लाइन में लगना पड़ता है। नंबर लगाने के लिए बरामदे की पट्टी पर अपना गमछा या रस्सी बांध देते हैं। सबको डाक्टर का इंतजार है। यह आम दृ’य है छत्तीसगढ़। के बिलासपुर जिले के एक छोटे से कस्बे गनियारी का। गनियारी बिलासपुर से दक्षणि में 20 किलोमीटर दूर स्थित है।

अब डाक्टरों की गाड़ी आ गई है और बिना देर किए प्रारंभ हो जाता है मरीजों को देखने का सिलसिला। यहां सबसे पहले मरीजों की बात सुनी जाती है फिर जांच की जाती है और बाद में उपचार। डाक्टर पूछते हैं- क्या बीमारी है? जबाव आता है- खांसी। कब से है- बहुत दिनों से । क्या इलाज कराया- दुकान से दवा लेकर खाता रहा। बाद में मुझे डाक्टर ने बताया इस मरीज को टी। बी. है। इसे लापरवाही कहना भी जल्दबाजी होगी क्योंकि इसकी वजहें हैं। लोगों की अपनी कई समस्याएं हैं। वे गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, कुपोषण जैसी कई समस्याओं से चौतरफा घिरे हुए हैं।

इस गैर सरकारी जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र की स्थापना 1999 में हुई। देश की मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं की हालत से चिंतित दिल्ली के कुछ डाक्टरों ने इसकी शुरूआत की। इससे पहले उन्होंने देश भर में घूमकर ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा किया जहां वे अपनी सेवाएं दे सके। और अंतत: देश के गरीब इलाकों मे एक छत्तीसगढ के एक छोटे कस्बे में उन्होंने काम प्रारंभ किया। देश के सबसे चोटी के अस्पताल आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस (एम्स) से निकले युवा डाक्टरों ने यहां गरीबों के लिए स्वास्थ्य का अनूठा अस्पताल बनाया है। उनका यह काम पिछले करीब 10 सालों से चल रहा है। अपने पेशे में गहरी निष्ठा वाले यह चिकित्सक स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई नए प्रयोग कर रहे हैं।

कम कीमत में बेहतर इलाज किया जाता है। इस केन्द्र का उद्देशय है कि ग्रामीण समुदाय को सशक्त कर बीमारियों की रोकथाम और इलाज करना। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों की स्वास्थ्य समस्याओं का अध्ययन करना, उनकी पहचान करना और कम कीमत में उचित इलाज करना। इस केन्द्र की उपयोगिया का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2000 में बिना किसी उद्घाटन के ओ।पी.डी. शुरू हुई और मात्र 3 महीने के अंदर ही यहां प्रतिदिन आने वाले मरीजों की संख्या 250 तक पहुंच गई।

गनियारी में जन स्वास्थ्य का प्रमुख केंद्र स्थित है। यहां 15 बिस्तर का अस्पताल है। आपरेशन थियेटर है जो सप्ताह में तीन दिन चलता है। यहां 12 पूर्णकालिक डाक्टर हैं। यहां के जांच कक्ष में सभी तरह की जांच की जाती है। 80 प्रिशक्षति कर्मचारियों का स्टाफ है। दूरदराज के और गंभीर मरीजों के लिए एम्बुलेंस की सुविधा उपलब्ध है। यहां करीब 11 सौ गांवों के लोग इलाज कराने आते हैं। इसके अतिरिक्त यहां स्वयंसेवी संस्थाओं और संगठनों से जुड़े इच्छुक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को भी प्रिशक्षति किया जाता है।

सामुदायिक कार्यक्रम के प्रमुख डा। योगेश जैन कहते हैं कि हमारे काम की सीमा है, सरकार ही इस काम को बेहतर ढंग से कर सकती है। लोगों को पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं है। बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि यह प्रयोग अंधेरे में उम्मीद बंधाता है जो सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।

यह रपट दो वर्ष पहले बनाई गयी थी पर आज भी गनियारी में जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र संचालित किया जा रहा है। रपट के कुछ अंश प्रस्तुत हैं।

Sunday, October 11, 2009

पहाड़ खोदकर खेतों को पानी पिलाया

आमतौर पर बिना बिजली, बिना डीजल ईजन या पशुधन की ऊर्जा के बगैर खेतों की सिंचाई करना मुश्किल है लेकिन सतपुड़ा के घने जंगलों में स्थित दो गांव के लोगों ने यह कर दिखाया है। अपनी कड़ी मेहनत, कौशल और सूझबूझ से वे पहाड़-जंगल के नदी- नालों से अपने खेतों तक पानी लाने में कामयाब हुए और अनाज पैदा करने लगे। जंगल पर आधारित जीवन से खेती की ओर मुडे आदिवासी भरपेट भोजन करने लगे।


होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखंड में सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच बसे वनग्राम राईखेड़ा में प्यासे खेतों को पानी पिलाने की पहल करीब 20 पहले शुरू हुई, जब गांव के 16 लोगों ने गांजाकुंवर नामक नदी से पानी लाने का बीड़ा उठाया। यह काम आसान नहीं था। खेतों से नदी की दूरी लगभग 5 किलोमीटर दूर थी, जिसके बीच में नाली निर्माण का श्रमसाध्य कार्य करना आवशयक था।


लेकिन इन संकल्पवान लोगों की माली हालत भी अच्छी नही थी। वे खुद मजदूरी कर गुजारा करते थे। उनका इस सामुदायिक स्वैच्छिक काम मे ज्यादा समय लगने से उनके सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो रहा था क्योंकि इससे उन्हें आर्थिक मदद तो नही ही मिलती थी, उल्टे अपने संसाधन इसमें लगाना पड़ रहा था। इसके लिए कुछ कर्ज भी लिया गया। शुरुआत मे लोगो ने इस सार्थक पहल का मजाक उठाया। कुछ ने कहा कि यह ऊंट के पीछे नशेनी (सीढी) लगाने का काम है, जो असंभव है। यानी पहाड़ से खेतों तक पानी लाना टेढी खीर है। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और यह काम जारी रखा।


इस जनोपयोगी पहल से सकि्रय रूप से जुड़े लालजी कहते हैं कि हमने इस काम की प्रेरणा गांव के ही एक बुजुर्ग से ली थी जो एक अन्य कुंभाझिरी नदी से अपने खेत तक पानी लाया था। यह बात करीब 40-45 साल पुरानी है। फिर हम 16 लोगों ने इस काम को करने की ठानी जिसे हमने एक साल में पूरा कर लिया। जिन लोगों को शुरू मे हम पर इस काम को करने का विशवास नहीं हो रहा था, बाद में वे भी हमारे साथ हो गए।
इस इलाके की भौगोलिक बनावट ने इसमें मदद की। एक तो पहाड़ी ढलान होने के कारण गांजाकुंवर नदी में थोड़ा ऊपर जाने पर ऐसी जगह मिल गई, जो गांव के खेतों से ऊंची थी। वहां पत्थर का छोटा सा बांध बनाने पर पानी को नालियों में मोड़कर गुरूत्वाकषण बल से ही खेतों में पहुंचाया जा सकता था। दूसरा, इस नदी में साल में आठ-नौ महीने पानी बहता रहता था। जंगलों के बीच होने के कारण पानी की धारा चलती रहती थी।
जंगल और पहाड़ के बीच स्थित गांजाकुंवर नदी से पानी लाने के लिए खेतों तक नाली बनाने का बड़ा और कठिन काम शुरू किया गया। ऊंची-नीची पथरीली जमीन में नाली निर्माण होने लगा। कहीं पर कई फुट गहरी खुदाई की गई तो कहीं पर बड़ी-बड़ी चट्टानों और पत्थरों को फोड़ा गया। कहीं पर पेडों के खोल से छोटा पुल बनाया गया तो कहीं नाली पर भूसे और मिट्टी का लेप चढ़ाया गया। पत्थरों की पिचिंग की गई,जिससे पानी का रिसाव न हो। और इस प्रकार, अंतत: ग्रामवासियों को 5 किलोमीटर दूर से अपने खेतों तक पानी लाने में सफलता मिली। इस काम में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।


पहाड़ से उतरे सरपट पानी से सूखे खेत तर हो गए। गेहूं और चने की हरी-भरी फसलें लहलहा उठीं। भुखमरी और कंगाली के दौर से गुजर रहे कोरकू आदिवासियों के भूखे पेट भर गये। लोगों के हाथ में पैसा आ गया। वे धन-धान्य से परिपूर्ण हो गए।


यहां सभी ग्रामवासियों को नि:शुल्क पानी उपलब्ध है। पानी के वितरण में प्राय: किसी प्रकार के झगड़े नहीं होते हैं। अगर कोई छोटा-मोटा विवाद होता भी है तो उसे शंतिपूर्ण ढंग से सुलझा लिया जाता है। इस संबंध में लालजी का कहना है कि यहां सबके खेतों को पानी मिलेगा, यह तय है। यह हो सकता है कि किसी को पहले मिले और किसी को बाद में, पर मिलेगा सबको। फिर विवाद बेमतलब है। इसके अलावा, नाली मरम्मत का कार्य भी मिल-जुलकर किया जाता है। आज गांव में दो नालियां गांजाकुंवर नदी से और तीन नालियां कुंभाझिरी नदी से आती हैं। कुल मिलाकर, पूरे गांव के खेतों में सिंचाई की व्यवस्था हो गई है।


राईखेड़ा की तरह वनग्राम आंजनढाना में भी इसी तरह की सामूहिक सिंचाई की व्यवस्था है। बल्कि आंजनढाना में यह व्यवस्था राईखेड़ा से पहले की है। राईखेड़ा और आंजनढाना के बीच में भी कुछ मील का फासला है। गांववासियों का कहना है कि यहां के पल्टू दादा ने बहुत समय पहले इसकी शुरूआत की थी। वे ढोर चराने का काम करते थे। और जब वे सतधारा नाले में ढोरों को पानी पिलाने ले जाते थे तब वे वहीं पड़े-पड़े घंटों सोचा करते थे कि काश! मेरे खेत में इस नाले का पानी पहुंच जाता, तो मेरे परिवार के दिन फिर जाते।


इसके लिए उन्होंने सतत् प्रयास किए। शुरुआत मे नदी पर दो बांध बांधने की कोशिश की पर वे कामयाब नहीं हुए। वे अपने काम में जुटे रहे और अंतत: उन्होने अपने बाडे में पानी लाकर ही दम लिया। शुरूआत में उन्होंने सब्जियां लगाईं- प्याज, भटा, टमाटर, आलू और मूली वगैरह। फिर गेहू बोने लगे। पल्टू दादा के बेटे बदन सिंह ने बताया कि आज हम उनकी वजह से भूखे नही है। गांव भी समृद्ध है। पहले हम सिर्फ़ बारिश में कोदो, मक्का बोते थे। अब गेहूं- चना की फसल ले रहे हैं। गांव के लोगो को भी पानी मिल रहा है।


इस बहुमूल्य व सार्थक पहल में राईखेड़ा, आंजनढाना के बाद कोसमढोड़ा, तेंदूखेड़ा और नयाखेड़ा जैसे कुछेक गांव के नाम और जुड़ गए हैं। इस तरह प्यासे खेतों में पानी देकर अन्न उपजाने की यह पहल क्षेत्र में फैलती जा रही है। हालांकि आंजनढाना में पक्की नाली का निर्माण वनविभाग के मारफत करवाया गया है लेकिन राईखेड़ा में यह काम अब तक नहीं हो पाया है। गांववालों का कहना है इसके लिए स्वीकृति मिल चुकी है फिर भी इसे लटकाया जा रहा है।


कुल मिलाकर, इस पूरी पहल से कुछ बातें साफ तौर पर दिखाई देती है। एक तो यह पूरा काम प्रकृति और पर्यावरण से सामंजस्य बनाकर किया गया क्योंकि आदिवासियों का प्रकृति से गहरा रिशता है। वे जंगल और वन्य जीवों के सबसे करीब रहते आए हैं। उन्हें इसकी जानकारी है। और इस पूरे काम में न तो परिवेश को नुकसान पहुंचा, न जंगल को और न ही किसी वन्य जीव को। इसमें सिंचाई के लिए पानी लाने में किसी बिजली की जरूरत भी नही पड़ी। लिहाजा बिजली तार भी नहीं खींचे गए। और न हीं डीजल ईंजन की आवशयकता पड़ी। कोई ध्वनि प्रदूषण भी नही हुआ। इस प्रकार प्रकृति, वन्य जीव और जंगल का संरक्षण करते हुए कृषि के लिए पानी की व्यवस्था करना संभव हुआ।

यह भी जाहिर होता है कि घने जंगलों में रहने वाले ग्रामवासियों के विकास और पर्यावरण संरक्षण में कोई टकराव होना जरूरी नहीं है। वन संरक्षण और वन्य प्राणी संरक्षण के लिए उन्हें हटाना जरूरी नही है। ऐसे तरीके खोजे जा सकते हैं, जिनसे दोनों उद्देशय पूरे हो सकें। लेकिन विडंबना यह है कि इसके बावजूद सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान और सतपुड़ा टाईगर रिजर्व से विस्थपित करने कोशिश की जा रही है।



दूसरी बात यह है कि अगर मौका मिले तो बिना पढे-लिखे लोग भी अपने परंपरागत ज्ञान, अनुभव और लगन से जल प्रबंधन जैसे तकनीकी काम को बेहतर ढंग से कर सकते है, यह रांईखेड़ा और आंजनढाना के काम से साबित होता है। कहां से और किस तरह से नाली के द्वारा पहाड़ के टेढे-मेढे रास्तों से पानी उनके खेतों तक पहुंचेगा, इसका पूरा अनुमान उन्होंने लगाया और इसमें वे कामयाब हुए। न तो उन्होंने इंजीनियर की तरह नाप-जोख की और न ही इस विषय की किसी से तकनीकी जानकारी ली। अपनी अनुभवी निगाहो से ही उन्होंने पूरा अनुमान लगाया, जो सही निकला।

तीसरी बात यह है कि सिंचाई व्यवस्था गांव की सामूहिक पहल और प्रयास का परिणाम है। सरकारी योजनाओं एवं सरकारी धन से यह काम नहीं हुआ। सबसे बड़ी बात ग्रामीणों की कभी न हारनेवाली हिम्मत और जिद, थी जिसके कारण आज उनकी और उनके बच्चों की जिंदगी में आमूलचूल बदलाव आ गया। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि ऐसे गांवों को विस्थापित करना बिल्कुल भी उचित नही है। बल्कि इस तरह के प्रयास और करने की जरूरत है। बहरहाल, यह पहल सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।

Friday, October 9, 2009

उम्मीद की किरण दिखा रही हैं छत्तीसगढ़ की दो सरपंच

स्वास्थ्य के क्षेत्र में छत्तीसगढ़ की दो महिला सरपंच के कामों की कीर्ति फैलती जा रही है। ये दोनों बिलासपुर जिले के कोटा विकासखंड से हैं। एक है करहीकछार की तिहारिन बाई और दूसरी हैं रतखंडी की पुष्पाराज। दोनों महिला सरपंच आदिवासी समुदाय से हैं तिहारिन बाई उरांव हैं और पुष्पाराज गोंड। दोनों सरपंच होने के साथ-साथ स्वास्थ्य कार्यकर्ता भी हैं और यहां स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्यरत्त गनियारी स्थित गैर सरकारी संस्था जन स्वास्थ्य सहयोग से जुड़ी हुई हैं।

बिलासपुर से 20 किलोमीटर दूर कोटा विकासखंड का मुख्यालय है। इसी क्षेत्र में ये दोनों पंचायतें स्थित हैं। यह आदिवासी बहुल और जंगल वाला पिछड़ा हुआ क्षेत्र है। यहां एक छोटे से कस्बे गनियारी में गैर सरकारी जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र है, जिसकी स्थापना 1999 में हुई थी। इसे मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं से चिंतित कुछ डाक्टरों ने शुरू किया जिसमें से कुछ डाक्टर आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस (एम्स) नई दिल्ली से निकले थे। इसका उद्देशय है ग्रामीण समुदाय को और विशेषकर महिलाओं को सशकत कर बीमारियों की रोकथाम करना और इलाज करना। यह 15 बिस्तर का अस्पताल है, जहां 10 पूरावक्ती डाक्टर हैं। इस केन्द्र के ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम की दोनों कार्यकर्ता हिस्सा हैं।
ये दोनों महिला सरपंच अपने पंचायतों के दायित्व निर्वहन के साथ-साथ स्वास्थ्य कार्यकर्ता का काम भी बखूबी कर रही हैं। उनके इस काम में ग्रामीणों का भी अच्छा सहयोग मिल रहा है। वे अपने गांव में मलेरिया की रोकथाम की मुहिम चलाती हैं, गर्भवती महिलाओं की जांच में मदद करती हैं। वे बच्चों के पोषण और परवरिश के लिए चलाए जा रहे फुलवारी केन्द्र की निगरानी करती हैं और छोटी-मोटी बीमारियों का अपने स्तर प्राथमिक उपचार करती हैं। कुल मिलाकर, वे ग्रामीणों और अस्पताल के बीच में पुल का काम कर रही हैं जिससे गांव में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हल करने में मदद मिल रही है।
इस इलाके में मलेरिया की रोकथाम एक बड़ी चुनौती है। इसके लिए स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के द्वारा कई स्तरों पर मुहिम चलाई जाती है। इसमें दो स्तरों पर काम किया जाता है। एक, मलेरिया के मरीज की पहचान कर उसका तुरंत इलाज करवाना और दूसरा, गांव में मलेरिया के मच्छरों को पनपने से रोकना। इस मुहिम में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।
इस मुहिम में स्कूली बच्चों और किशोरी बालिकाओं का भी सहयोग लिया जाता है। मच्छरदानी के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है। इस काम में दोनों स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का काम उल्लेखनीय है। जन स्वास्थ्य सहयोग के कार्यक्रम संयोजक प्रफुल्ल चंदेल कहते हैं इनसे हमें मलेरिया की रोकथाम करने में काफी मदद मिली है। इस इलाके में अब मलेरिया से होनेवाली मौतें आधी हो गई है।
इसी प्रकार ये दोनों कार्यकर्ता अपने गांव मे बच्चों के पोषण और परवरिश के लिए चलाए जा रहे फुलवारी केन्द्र में भी मदद करती हैं। वे उनका वजन लेती हैं अगर कम वजन होता है, यानी बच्चा कुपोषित होता है तो उसका वजन बढ़ाने के लिए प्रयास किया जाता है। करहीकछार पंचायत में 5 फुलवारी केन्द्र चल रहे है और रतखंडी में 3 केन्द्र चलाए जा रहे है।
जन स्वास्थ्य सहयोग, गनियारी के डा. अनुराग भार्गव का कहना है कि 6 माह से 3 साल तक के आयुवाले बच्चो को समुचित पोषण देने की जरूरत होती है। अगर बच्चा बचपन में कुपोषित रहा तो उसका असर रहता है। इसलिए उन्हें इस अवधि में स्वादिष्ट, गरम, पतले और मुलायम भोजन की जरूरत होती है, जो कि फुलवारी केन्द्रों में दिया जाता है। इसके लिए गांव से प्रतिदिन एक-एक मुट्ठी चावल एकत्र कर फुलवारी को दिया जाता है। ग्रामीणों का सहयोग ऐसे कामों में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के प्रयासों से ही संभव होता है। दोनों पंचायतों में बाल पोषण का स्तर सुधारने में ये कार्यकर्ता जुटी हुई हैं। करहीकछार की सरपंच तिहारिन बाई का कहना है कि हमारे गांव में 20-22 प्रसव हुए। इसमें सभी बच्चे स्वस्थ थे।
चिकित्सकों का मानना है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से यह बात सिद्ध हो गई है कि कुपोषित व्यक्ति जल्द बीमार होता है। इसलिए बच्चे और बड़े स्वस्थ रहें, यह जरूरी है। इसके लिए अपने आसपास उपलब्ध जंगल और खेत से मिलनेवाले पोषक आहारों को लेने की सलाह दी जाती है। जिसमें फल, फूल, पत्तिया, तिलहन, दाल और अनाज शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर अमौदि्रक चीजें होती हैं, जो सहज उपलब्ध होती है, इनकी जानकारी ग्रामीणों को दी जाती है।
हालांकि दोनों ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं तिहारिन बाई 5वीं तक और पुष्पाराज की शिक्षा 8 वीं तक हुई है। लेकिन गहरी लगन, सक्रयिता और ग्रामीणों के प्रति सेवा भावना से ये अच्छी स्वास्थ्य कार्यकर्ता साबित हो रही हैं। यहां स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के चयन का आधार स्कूली शिक्षा नहीं है, बल्कि ग्रामीणों के साथ व्यवहार में मिलनसार, गांव की सेवा और सहयोग की भावना को ही स्वास्थ्य कार्यकर्ता बनने की योग्यता माना जाता है। और वे चिकित्सकों की सतत् देखरेख और प्रशिक्षण के चलते बखूबी यह काम कर रही हैं। उन्हें प्रशिक्षण सामग्री- पोस्टर, पर्चे, आदि के माध्यम से शिक्षण किया जाता है। इस क्षेत्र में करीब 80 महिला कार्यकर्ता सक्रयि हैं।
अब वे थर्मामीटर से बुखार नापने से लेकर मलेरिया की स्लाइड बनाना और ब्लड प्रेशर की जांच कर लेती हैं। वे बच्चों का वजन कर लेती हैं। स्थानीय खाद्य पदर्थों , विशेषकर पोषण प्रदान करनेवाले फल-फूलों से कुपोषण दूर करने की सलाह देती हैं।

वे ओ. आर. एस. का घोल बनाना सिखाती हैं। वे अपने गांव से गुजरने वाली मिनी बसों के जरिये ऐसी छोटी-मोटी जांच के लिए स्वास्थ्य केन्द्र नमूने भेजती हैं जिसकी जांच रिपोर्ट उसी दिन बस से स्वास्थ्य केन्द्र से उन्हें भेज दी जाती हैं। सड़कों के आवागमन का स्वास्थ्य सुविधाओं में सहायक होने का यह एक अच्छा उदाहरण है। एक अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छे परिवहन की जरूरत होती है।
ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम के प्रमुख डा. योगेश जैन का कहना है कि दोनों स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का सरपंच होने का लाभ हमारे स्वास्थ्य कार्यक्रम में मिलता है। खासतौर से महिला स्वास्थ्य में तो इसका विशेष लाभ होता ही है। गर्भवती महिलाओं की जांच और अन्य बीमारियों की रोकथाम में उनकी वि्शेष भूमिका है। उनकी बात लोग सुनते हैं और मानते हैं। हमारे कार्यक्रम में महिलाओं की भागीदारी सार्थक होती है। उनके पास पंचायत का कुछ अतिरिक्त फंड भी होता है जिसे वे ग्रामीणों के इलाज के लिए खर्च कर सकती हैं।

यानी कुल मिलाकर, इन दोनों महिला सरपंचों का काम कई मायनों में उपयोगी है। एक, आज जब दवाओं के दाम आसमान छू रहे हैं और स्वास्थ्य सेवाएं लोगों की पहुंच से दूर होती जा रही है, तब गांव की ही महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता गांवों के स्वास्थ्य को बेहतर करने का करें तो यह उपयोगी और सार्थक काम है। दो, देश के अन्य भागों की तरह छत्तीसगढ़ में भी महिलाओं को समाज में कमतर दर्जा मिलता है। यहां एक अंधवि’वास टोनही प्रथा के रूप में प्रचलित है जिसमें किसी महिला को जादू-टोना का आरोप लगाकर उसे प्रताड़ित किया जाता है। हालांकि इसे कानून के द्वारा रोकने के लिए कोशिश की गई है लेकिन ऐसे में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता भी मददगार हो सकती है।

तीन, बदलाव की प्रक्रिया सदैव जमीनी स्तर से ही शुरु होती है, जिसकी शुरुआत पंचायतों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के साथ हो चुकी है। यह महिला सशक्तिकरण का भी एक अच्छा और सराहनीय प्रयास है। इस पूरे काम के बारे में करहीकछार की सरपंच तिहारिन बाई कहती है कि मैं लोगों के कुछ काम आ रही हूं, गांव के लिए कुछ कर रही हूं, यह सोचकर बहुत अच्छा लगता है। रतखंडी की सरपंच पुष्पा भी हमेशा ऐसा ही काम करना चाहती हैं। कुल मिलाकर, इन दोनों सरपंचों के काम हमें उम्मीद की किरण दिखा रही हैं, जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।