Wednesday, December 30, 2009

बरमान में सतधारा की निराली छटा

भेड़ाघाट से लौटते हुए दूसरे दिन बरमान गए। रात्रि विश्राम नरसिंहपुर में किया। मध्यप्रदेश में करेली- सागर रोड़ पर स्थित है बरमान। यहां से भी नर्मदा होकर गुजरती है। अमरकंटक में विन्ध्यांचल और सतपुड़ा के मिलन बिन्दु से प्रारंभ होकर नर्मदा गुजरात में खम्बात की खाड़ी में मिलती है। इस बीच वह मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों से होकर गुजरती है। यह मध्यप्रदेश की सबसे बड़ी नदी है।

हम नर्मदा पुल पर उतरे और पैदल तट तक पहुंचे। यहां नर्मदा का तट बहुत ही संकरा है। पुल से ऊपर सतधारा है लेकिन ज्यादातर लोग पुल के नीचे ही स्नान करते हैं, ऊपर तक नहीं जाते। यहां विशालकाय चट्टानें हैं, उनके बीच से नर्मदा अपने ही निराले अंदाज में वेग से बह रही है। उफनती हुई स्वच्छ निर्मल धारा को देखते आंखें नहीं थकतीं। दिन भर बैठे देखते रहो। नयनाभिराम दृश्य। बहुत ही मनमोहक।

नरसिंहपुर से बहन भी साथ आई है। वह साथ में बाटी-भर्ता बनाने की सामग्री भी लाई है। आटा, बैंगन, लहसुन, टमाटर आदि। घुटनों तक पानी में डुबकी लगाकर हम तट पर पहुंच गए। इधर बहन ने गोबर के उपलों की अंगीठी सुलगा दी थी। वह आटा गूंथ रही थी। बेटा और पत्नी आलू और बैगन भून रहे थे। कुछ ही देर में बाटी और भर्ता तैयार। हमने भरपेट भोजन किया। नर्मदा तट पर पानी पिया। बहुत मीठा और साफ व स्वच्छ। आत्मा तृप्त हो गई।

नर्मदा न केवल उसके किनारे रहने वाले लोगों को बल्कि पशु-पक्षियों, वन्य प्राणियों, पेड़-पौधों और जंगलों को भी पालती-पोसती रही है। वह जीवनदायिनी है। नर्मदा जल की बात ही निराली है। यह जल सबको तारने और सबके दुखों को हरने वाला है। इसे लोग अपने घरों में बरसों सहेजकर रखते हैं। बहन ने भी यह जल बोतल में भरा और नर्मदा को नमन किया।


बरमान में मकर संक्राति पर बड़ा मेला लगता है जिसकी तैयारी रेतघाट में शुरू हो चुकी हैं। इस मेले में दूर-दूर से बड़ी संख्या में लोग आते हैं। गांव से बैलगाड़ियों में भर कर लोग आते हैं। वे अपने बैलों को नहला-धुलाकर व सजा-धजा कर लाते हैं। और नर्मदा तट पर बाटी-भर्ता बनाकर खाते हैं।मेले में सर्कस भी आता है। ऐसे मेले ग्राम्य जीवन में उमंग व उत्साह का संचार कर देते हैं। इनका खासतौर से बच्चों और महिलाओं को बेसब्री से इंतजार रहता है, जिन्हें बाहर निकलने का मौका कम मिलता है।

नर्मदा में चल रही छोटी नाव हमारा ध्यान बरबस ही अपनी ओर खींच रही थी। हालांकि मछुआरा समुदाय की हालत बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती। जबलपुर के पास नर्मदा पर बरगी बांध देश के बड़े बांधों में एक था। यह वर्ष 1990 के आसपास पूरा हुआ। मुझे पिछले वर्ष मछुआरा समुदाय जो केंवट, बरौआ, कहार में विभक्त है, के साथ बातचीत करने का मौका मिला।

उनके अनुसार जबसे यह बांध बना है तबसे उनकी रोजी-रोटी छिन गई। नर्मदा के किनारे पर उनकी बड़ी आबादी है। जबलपुर से लेकर गुजरात तक ये नर्मदा नदी में मछली पकड़ने का काम करते थे और उसके तटों पर फैली रेत पर डंगरवारी (तरबूज-खरबूज की खेती) करते थे। बरगी बांध बनने से उनके दोनों धंधे प्रभावित हुए। बरगी बांध से समय-बेसमय पानी छोड़े जाने के कारण वे आज न तो डंगरवारी कर पा रहे हैं और न ही अब नर्मदा में मछली ही बची है।

नर्मदा में लोग श्रद्धा से पैसे भी चढ़ाते हैं जिन्हें इसी मछुआरे समुदाय के बच्चे पानी में तैर कर पैसे उठा लेते हैं। इन बच्चों की पानी में गोता लगाने की गजब की क्षमता है। वे पानी के अंदर 5-10 मिनट तक सांस रोके रख सकते हैं। यह भी एक योग व प्राणायाम की तरह है, जिसे बिना अभ्यास के बड़े भी नहीं कर सकते। वर्श के अंत में और नए साल की शुरूआत में नर्मदा के साथ हमारा यह साक्षात्कार यादगार व मजेदार रहा। घर लौटते समय सोच रहा था कि युगों से प्रवाहमान नर्मदा जैसी नदियों को हम क्या बचा पाएंगे? नर्मदा की कई सहायक नदियां या तो सूख चुकी है या फिर बरसाती नाला बनकर रह गई है।

Tuesday, December 29, 2009

भेड़ाघाट में नर्मदा का सौंदर्य देखने उमड़ती है भीड़


पिछले दो वर्षो में दो बार भेड़ाघाट जाना हुआ। मध्यप्रदेश के जबलपुर से नजदीक है भेड़ाघाट। वैसे तो हम बचपन से ही यहां के बारे में पढ़ते-सुनते आ रहे हैं लेकिन प्रत्यक्ष रूप से इसे देखने का संयोग हाल ही बना। यहां की मार्बल राक्स और धुआंधार दोनों ही बहुत प्रसिद्ध है।

हम 26 तारीख(दिसम्बर 2009 को पिपरिया से सवारी ट्रेन में सुबह सवार हुए। यह ट्रेन बरसों पुरानी है। इसी ट्रेन से लोग गंगाजी(इलाहाबाद) जाया करते हैं। इस ट्रेन के बारे में एक धारणा यह है कि यह प्राय: ’लेट’ ही चलती है। बात सच हुई। पिपरिया से ही एक्सप्रेस ट्रेनों से ’पिटती’ गई तो एकाध स्टेशन को छोड़कर प्राय: हरेक स्टेशन पर पिटी।

मैं अपने परिवार के साथ जा रहा था। साथ में पत्नी और बेटा भी है। इस ट्रेन में जगह अमूमन मिल ही जाती है क्योंकि छोटे-छोटे ’स्टाप’ पर लोग चढ़ते-उतरते रहते हैं। वे आपस में अपने सुख-दुख की बातें करते हैं। इस बीच चना मसाला, अमरूद, मूंगफली बेचने वाले भी आते-जाते हैं। कुछ अप्रिय दृशय भी देखने मिलते हैं जब कोई छोटा बच्चा अपनी शर्ट उतारकर उससे बोगी का फर्श साफ कर हाथ फैलाता है।

सुबह की हमारी ट्रेन शाम को भेड़ाघाट पहुंची। स्टेशन से कुछ दूर पैदल चल हम आटो-टेम्पो में सवार हो धुआंधार पहुंचे। एकाध किलोमीटर सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए हमें बहुत से लोग मिले। दोनों ओर पूजा-सामग्री और मार्बल राक्स की मूर्तियों की दूकानें लगी थीं। शंख-शीप, कंठी-माला, नारियल आदि की दुकानें सजी थीं। हनुमान जी की मूर्ति के सामने एक सूरदास बहुत ही मधुर आवाज में तंबूरे की तान के साथ नर्मदा का बखान कर रहे थे।

अब हम धुआंधार के सामने खड़े हैं। सामने यानी रेलिंग पर। नर्मदा यहां कोई 10-12 फीट नीचे खड्ड में गिरती है और फुहारों के साथ ऊपर उछलती है, मचलती है। गेंद की तरह टप्पा खाकर फब्वारों साथ ऊपर कूदती है । यहां नर्मदा का मनोरम सौंदर्य अपने चरम पर होता है। घंटों निहारते रहो, फिर भी मन न भरे। जल प्रपात का ऐसा नजारा शायद ही कहीं और देखने को मिले।

धुआंधार के सामने दोनों ओर कतारबद्ध संगमरमर की चटानें हैं, जो नर्मदा का रास्ता रोकती हैं। इन मार्बल राक्स की बनावट ऐसी है कि लगता है इन्हें किसी धारदार छेनी से तराशा गया हो। चट्टानों की बीच नर्मदा सिकुड़ती जाती है पर वह अपने वेग में बलखाती, इठलाती और अठखेलियां करती आगे बढ़ती जाती है। मानो कह रही हो "मुझे कोई नहीं रोक सकता।

यहां ’रोपवे’ भी हैं लेकिन मेरे बेटे ने इस पर यह कहकर जाने से मना कर दिया कि यह विकलांगों के लिए है। हम तो पैदल चलकर ही जाएंगे। यानी यह जेब ढीली करने का ही साधन है।

संझा आरती का समय है। भक्तजन नर्मदा मैया की आरती कर रहे हैं। दीया जलाकर लोग आरती कर रहे हैं और कुछ लोग नर्मदा में दीप प्रवाह कर रहे हैं। कर्तल ध्वनि के साथ आरती में बहुत से लोग शामिल हो गए हैं। आरती के पशचात प्रसाद वितरण हो रहा है।

कुछ परिक्रमावासी ’हर-हर नर्बदे’ का जयकारा कर रहे हैं। पहले लोग नर्मदा के एक छोर से दूसरे छोर तक और वापस उसी स्थान तक पैदल ही परिक्रमा करते थे। अब भी कुछ लोग करते हैं। लेकिन अब बस या ट्रेन से भी परिक्रमा करने लगे हैं।

जीवनदायिनी नर्मदा की महिमा युगों-युगों से लोग गाते आ रहे हैं। लेकिन अब नर्मदा संकट में है। बरसों से नर्मदा बचाओ की लड़ाई लड़ी जा रही है। इस पर बड़े-बड़े बांध बनाए जा रहे हैं। मैं वापस लौटते समय सोच रहा था कि क्या इस जीवनदायिनी मनोरम सौंदर्य की नदी को बचाया नहीं जा सकता?

Wednesday, December 16, 2009

स्वास्थ्य के क्षेत्र में जंगल में जल रही है नई लालटेन

डगनिया की बिरसाबाई और मिनका बाई एक कपडे की गुड़िया और गुड्डे को गोद में लिए बैठी हैं। गोबर से लिपे-पुते एक दहलाननुमा बडे कमरे में करीब 40 महिलाएं उन्हें देख रही हैं। वे आपस में बातें भी कर रही हैं। अपने-अपने अनुभव साझा कर रही हैं। यहां कोई गुडडे-गुड़िया का खेल नहीं हो रहा है और ना ही कठपुतली का कोई नाच। दरअसल, ये महिलाएं जचकी कैसे करवाई जाए और जचकी करवाने में क्या-क्या दिक्कतें आ सकती हैं, इस पर बात कर रही हैं। ये सभी महिलाएं छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के अचानक अभयारण्य के दूरदराज के गांव बम्हनी में एक स्वास्थ्य प्रशिक्षण शिविर में शामिल थीं, जहां अब तक पहुंचने के लिए कोई सड़क मार्ग नहीं है। जब सड़क नहीं है तो आने-जाने के लिए कोई सुविधा हो, यह सवाल व्यर्थ है। जबकि अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छी यातायात व्यवस्था जरूरी है।

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के कोटा-लोरमी विकासखंड में पिछले एक साल से गांवों में दाई का काम करने वाली महिलाओं का प्रशिक्षण का काम किया जा रहा है। जन स्वास्थ्य सहयोग ने इस काम की जिम्मेदारी ली है। दो वर्ष पूर्व "( 24 अक्टूबर, 2007 ) करीब 40 महिलाओं का अचानक अभयारण्य के अंदर के गांव बम्हनी में दो दिवसीय प्रशिक्षण किया गया। इस प्रशिक्षण में भाग लेने वाली लगभग पूरी महिलाएं अनपढ़ थीं लेकिन अनुभवहीन नहीं। उन्हें इस काम में बरसों का अनुभव था जिससे आगे वे यहां सीखने आई थीं। जन स्वास्थ्य के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र से जुडीं डा. रमनी उन्हें प्रशिक्षण दे रही थीं। जन स्वास्थ्य केन्द्र बिलासपुर जिले में एक सरकारी संस्था है जो स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनूठा कार्य कर रही है। वह कम कीमत में बेहतर इलाज के साथ दूरस्थ गांवों में भी अपनी सेवाएं दे रही है।

उनके अनुसार आजकल अस्पताल में ही जचकी करवाने पर जोर दिया जा रहा है लेकिन दूरदराज के गांवों के लोग अस्पताल तक कैसे पहुंचे? यहां पहुंचने तक सड़क नहीं है और ना ही कोई वाहन। फिर अगर किसी भी तरह कोई वाहन कर भी लिया जाए तो बारिश के दिनों में बाढ समस्या है और सामान्य दिनों में भी गर्भवती महिलाओं के लिए जचकी और हैजा जैसी गंभीर स्थिति में अस्पताल तक पहुंचने तक भी अनहोनी की आशंका बनी रहती है। यानी यहां के लोगों को न अस्पताल की सुविधा है और ना ही नर्स उपलब्ध है। इसलिए हमने परंपरागत दाईयों का प्रशिक्षण की व्यवस्था की है जिससे गर्भवती महिला और उसके नवजात शिशु को बचाया जा सके।
डा. रमनी का कहना है कि हमारे यहां मातृत्व मृत्यु दर ज्यादा है। (आंकडों के हिसाब से प्रसव के दौरान महिलाओं की मृत्यु दर वर्ष 2001- 03 में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ मिलाकर प्रति एक लाख बच्चों के जन्म पर 379 थी, जबकि राष्ट्रीय औसत 301 था।) गर्भवती महिलाओं की मौत कई कारणों से हो सकती है। प्राय: प्रसव के दौरान अधिक रक्तस्त्राव, संक्रमण और ब्लड प्रेशर आदि से मौतें होती हैं। उन्होंने कहा कि अगर प्रसव के समय मां मर जाती है तो उसका बच्चा भी कुछ समय बाद मर जाता है। यानी इन दोनों को कैसे बचाया जाए, यह चुनौती है।

उन्होंने कहा कि हालांकि अनपढ़ होने के कारण महिलाओं को सीखने में कुछ समय लगता है लेकिन वे सीखकर उसका इस्तेमाल कर रही है, यह उम्मीद बंधाता है। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि अतरिया की महिला सरपंच गर्भवती थी और उन्हें प्रसव पूर्व बहुत रक्तस्त्राव हो रहा था जब इसकी खबर गांव की दाई सूनी बाई को लगी तो उन्होंने प्रशिक्षण में सीखी तकनीक अपनाकर उनका रक्तस्त्राव को रोका और उन्हें गनियारी अस्पताल भेजकर उनका इलाज करवाया जिससे जच्चा-बच्चा दोनों की जान बच सकी।

इसी प्रकार दाईयों को बुखार नापना, खून की कमी की पहचान, पेशाब में संक्रमण और गर्भावस्था के समय होनेवाली समस्याओं से अवगत कराया जाता है। चूंकि बुखार नापने के लिए थर्मामीटर पढने में दिक्कत होती है इसलिए इसके लिए एक विशेष प्रकार का थर्मामीटर बनवाया गया है जिसमें पढ़ने की जरूरत नहीं रहती। इस थर्मामीटर में लाल-हरे रंगों को देखकर बुखार नापा जा सकता है। इसी प्रकार प्रसव के समय समयावधि का पता लगाने के लिए दाईयों को घड़ी देखना सिखाया जा रहा है।

स्वास्थ्य कार्यकर्ता मंजू ने कहा कि दाईयां महिलाओं के प्रसव के समय सभी काम करती हैं। पहले नाल काटने का काम सुईन करती थी अगर वह किसी काम से गांव से बाहर चली गई तो बच्चे बिना नाल कटे हुए हफते भर तक पडे रहते थे जिससे संक्रमण का खतरा बना रहता था। फिर उन्हें जो अनाज और पैसे आदि देना पडता था, वह भी बच जाता है। उन्होंने कहा कि हमारी दाईयां दिन हो या रात, बारिश हो या बाढ, सदैव काम करती हैं। अब गांवों में इस पर विचार किया जा रहा है कि जिस प्रकार बाल काटने के लिए नाई का और गाय चराने के लिए राउत का अनाज तय होता है उसी प्रकार दाई के लिए भी गांव वालों की ओर से व्यवस्था होना चाहिए।

यह प्रशिक्षण शिविर शहरों में होने वाली कार्यशालाओं से अलग था। यहां कोई भाषण देने या ज्ञान के आदान-प्रदान की जल्दबाजी नहीं है। यहां प्रशिक्षक एक बात को बार-बार समझाने के लिए तत्पर हैं। ये न सिर्फ़ अपनी पढाई को दाईयों को देने के लिए उतावले हैं बल्कि उनसे भी कई बातें सीखने के लिए लालायित हैं। ये महिलाएं प्रसव के दौरान होनेवाली दिक्कतों का अभिनय भी करके बता रही थी जिससे माहौल नोरंजक हो जाता था। बुजुर्ग महिलाएं जब गर्भवती महिला के बच्चे की धडकन सुन रही थी तब उनके चेहरे पर बाल सुलभ मुस्कान तैर रही थी।

बम्हनी की फगनी बाई, बाबूटोला की मयाजो, जगती बाई, जकडबांधा की मिलाजू, ठुमरी और गुलिया बाई ने प्रशिक्षण के बारे में कहा कि उन्हें दस्ताने मिल गए। चशमा मिल गया। अंधेरे के लिए टार्च की व्यवस्था की जा रही है। गर्भवती महिलाओं की हर माह जांच की जाती है। उनके नवजात शिशुओं के लिए नए कपडे दिए जाते हैं। फिर बम्हनी में क्लिनिक है, गंभीर स्थिति के लिए गनियारी में अस्पताल है। यह सब हमारे लिए बहुत सुभीता हो गया है। कुल मिलाकर, जन स्वास्थ्य की पहल अंधेरे में आशा की नई किरण की तरह है

Tuesday, December 15, 2009

क्यों याद आते हैं आदिवासी गांव?

कुछ समय पहले मेरा छत्तीसगढ़ जाना हुआ। जशपुर नगर के एक गांव में चराईखेरा में हम गए थे। विकासखंड कुनकुरी से गांव की दूरी लगभग 13-14 किलोमीटर है। यहां से आने-जाने के लिए दिन में एक-दो बसें ही चलती हैं। सड़कें कच्ची हैं अगर आपने रूमाल या कपड़े से सिर नहीं ढका तो आपकी रंगत बदल जाएगी और आपको पहचानना मुशिकल हो जाएगा।


जिस घर में हम रूके थे, वह कच्चा था लेकिन सीमेंट व कांक्रीट के पक्के घरों से अपेक्षाकृत ठंडा था। वहां हर चीज सुघड़ता से रखी हुई थी। गोबर व काली मिट्टी से लिपा-पुता यह घर अपना सौंदर्य बिखेर रहा था। ऊंची दीवारों वाले खपरैल से ढके इस हवादार घर के आगे-पीछे काफी खुली जगह थी। बच्चों के खेलने-कूदने और उठने-बैठने के हिसाब से पर्याप्त जगह थी, ऐसी सुविधा शहरी घरों में नहीं मिलती। अंग्रेजी के यू आकार के बने इस घर के पीछे बाड़ी थी। यहां के लगभग हर घर में बाड़ी है, जहां से हरी सब्जियां लगाई जाती हैं।

सब्जियों में पानी देने के लिए कुआं होता है, जिसमें बांस की लकड़ी के एक सिरे पर बाल्टी बंधी रहती है और दूसरे सिरे पर पत्थर। बिल्कुल रेलवे गेट की तरह। इस लकड़ी के एक सिरे को पकड़कर ऊपर-नीचे करने से पानी खींचा जा सकता है। इसे स्थानीय भाषा में टेढा कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के कई इलाकों में इसी टेढ़ा पद्धति से सिंचाई की जाती है। यहां बाड़ियों में लगे हरे-भरे कटहल के पेड़ों को फलों से लदा देखकर कोई भी मोहित हो सकता है। इस गांव में आम का बगीचा था, जहां बच्चों की टोलियां मंडराती रहती थी, गुलेल से निशाना साधकर, आम गिराना, इनके बाएं हाथ का खेल है।

इसके अलावा, चार ( चिरौंजी ) के जंगल में जाकर पेड़ों से पके चार को खाने का एक अलग ही मजा है। बरगद के फल, इमली, आंवला, इमली की पत्ती तोड़-तोड़कर बच्चे खाते रहते हैं। दस-बारह साल की अरसन हमारे साथ जंगल गई और बिना रूके चार के पेड़ पर सहज ही चढ़ गई। अरमिता जो हमें जंगल दिखाने ले गई थी, वह खुद बहुत पतली शाखाओं वाले पेड़ पर चढ़ी और जामुन जैसे पके चार गिराए, जिसे हमने बड़े मजे से खाया।

गांव के छोटे बच्चे जंगल के पेड़ों के नाम, जंगली जानवरों व फल-फूलों के नाम और पहाड़ों के बारे में ढेरों बाते जानते हैं, जिसे सुनकर सुखद आशचर्य होता है। ऐसी याददाशत शायद ही हमारे शहरी पढ़ाकू अंग्रेजदा बच्चों की हो। इसी प्रकार यहां के बुजुर्गों से बात कर जंगलों में मौजूद सैकड़ों जड़ी-बूटियों के बारे में जाना जा सकता है। भूख के दिनों में काम आने-वाले कंद-मूल, फल-फूलों के बारे में वे सहज ही बता देते हैं, जो यहां के जंगल और पहाड़ में मौजूद हैं।

यहां उरांव आदिवासी हैं, इनमें से ज्यादातर बहुत पहले ईसाई बन गए थे। मजबूत काले और गठीले देह के इन लोगों का जीवन बड़ा कठिन लगता है। महिलाएं पुरुषों से अधिक काम करती हैं। लेकिन महिलाओं पर उतनी पाबंदी नहीं है, जितनी अन्य जगहों में होती है। यहां की लड़कियां साइकिल चलाती है, जो उनकी आजादी की प्रतीक बन गई है। वे साइकिल पर सवार होकर स्कूल जाती हैं। चर्च जाती हैं और हाट-बाजार जाती हैं। वे गांव से दूसरे गांव अकेले ही साइकिल से जा सकती हैं, उन्हें किसी पुरुष की मदद की जरूरत नहीं। इस गांव में तो बिजली है लेकिन पड़ोसी गांव कोनकेल आज तक बिजली नहीं है। वे अब भी चिमनी युग में जी रहे हैं।

यहां का जीवन कठिन व सुविधाविहीन है। अलसुबह 4 बजे लोग जाते हैं। हमारी तरह 8 बजे तक सोना इनकी आदत में नहीं। सबसे पहले मुंह हाथ धोकर उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती है। महिलाएं साफ-सफाई का काम करती हैं। पानी भरती हैं, यह टेढा काम है। हैंडपंप नजदीक नहीं होने के कारण दूर-दूर से सिर पर पानी भरे बर्तन ढोना पड़ता है। झाडू लगाना भी बड़ी मशक्कत का काम है। यहां शहरों की तरह एक-दो चिकने कमरों की सफाई नहीं करनी पड़ती बल्कि अपने घरों की सफाई के साथ ढोरों व सुअरों को बांधने की लंबी-चौड़ी जगह को साफ करना पड़ता है। वहां के कचरे को उठाकर बाहर फेंकना पड़ता है। महिलाओं की तरह भी पुरुष भी हाड़तोड़ मेहनत करते हैं। खेत-खलिहान से लेकर जंगल से वनोपज संग्रह के काम में लगातार करते रहते हैं।

यहां दूर-दूर मकानों में रहने वाले लोगों में एक-दूसरे के साथ बहुत नजदीक रिशता है। सामूहिकता है, आपसी भाईचारा, आत्मीय रिशता और पारंपरिक मेल-जोल है। उन्हें उनकी संस्कृति आपस में सब को जोड़े हुए हैं। जोड़ने वाली संस्कृति के कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। कोनकेल की अंजिता, रजनी, इस्दौर रेमा, असमिता, विनीता आदि कई स्कूली लड़के-लड़कियां अपने गांव के बुजुर्ग सुलेमान एक्का नामक किसान के खेत में गोबर खाद डालने का काम कर रहे हैं। यह गर्मी की छुटि्टयों की बात है। हालांकि उन्हें बदले में कुछ पैसा भी मिलेगा लेकिन इससे भी अधिक अपने गांव के बुजुर्ग किसान की मदद है। ऐसे गांवों को देखकर खु्शी से दिल उछल जाता है।
(यह लेख 22 दिसंबर 2009 को छत्तीसगढ़, रायपुर मै प्रकाशित हो चुका है)

Saturday, December 12, 2009

सतपुड़ा का मढ़ई-मेला

मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में पिपरिया और पचमढ़ी के बीच में स्थित है मटकुली। आज(19 अक्टूबर ) वहां की मढई है। मैं अपने बेटे के साथ मढ़ई-मेला देखने जा रहा हूं। हम सतपुड़ा के जंगल के बीच से गुजर रहे हैं। थोडी देर पहले हमें मोर का एक सुंदर जोड़ा दिखा। मटकुली पहुंचने से पहले ही हमें सजे-धजे स्त्री-पुरुष और बच्चे मिले, जो अपने गांवों से मढ़ई के लिए मीलों पैदल चलकर आ रहे थे। अब हम मटकुली में पहुंच गए।

यहां सड़क से लगे एक मैदान में मढ़ई-मेला लगा हुआ है। दूर से ही हमें सबसे पहली झलक ढालों की दिखी। यहां गांगो की मड़िया (मंडप) थी, जहां पड़िहार (पूजा करने वाले )मौजूद थे।गांगो की मूर्ति विराजमान थी। यह मड़िया इमली की टहनियों व पत्तों से बनी थी। ढाल लंबे बांस के एक सिरे पर मोर पंख से छतरीनुमा बनाई जाती है। ये ढालें करीब 15-20 फीट लंबी होती हैं। इन्हें लेकर लोग नाचते-गाते मंढई में आते हैं। अहीर नृत्य इसका मुख्य आकर्षण का केन्द्र होता है। इसमें विशेष वेश-भूषा में ढाल के साथ अहीर नाचते हुए चलते हैं। बाद में ढालें लेकर वे गांगो की मूर्ति के आसपास चक्कर लगाते हैं।
मढ़ई में ढालों के आने का सिलसिला जारी है। मेले में काफी भीड़ जुट रही है। दूरदराज के गांव के लोग बैलगाडियों से भी आए हैं, जिनकी बैलगाड़ी विशाल पीपल पेड़ नीचे खड़ी हैं। बैल काफी सजे-धजे हैं। उन पर रंग-बिरंगे मुहरनुमा छापे दिखाई दे रहे थे।

जैसे-जैसे शाम ढल रही थी मेले की रौनक बढ़ती जा रही थी। तेज रोशनी वाले बल्बों की रोशनी चमक रही थी। आदिवासी युवक-युवतियां व बच्चों की टोलियां इधर-उधर घूम रही थीं। यहां मिठाईयों की दूकान थी। मिट्टी के सुंदर खिलौने थे जिनमें तोता, गाय-बैल आदि शामिल थे। गुब्बारे व खिलौने बिक रहे थे। उमंग और उत्साह का माहौल था।

कार्तिक अमावस्या यानी दीपावली के अगले दिन से ही मढ़ई-मेला का सिलसिला शुरू हो जाता है पूर्णिमा तक चलता है। मुख्य रूप से गोंड आदिवासी इसे बड़े धूमधाम से मनाते हैं। गजेटियर के अनुसार गांगो तेलिन की याद में यह त्यौहार मनाया जाता है। वह एक बड़ी जादूगरनी थी। यहां गांगों की पूजा करने वाले बिसराम का कहना है कि ढाल देवी का प्रतीक है। यहां हम गांगो की पूजा करते हैं।

हमारे ज्यादातर तीज-त्यौहार कृषि से जुड़े हुए हैं। मढ़ई का भी इससे जुड़ाव है। जब धान की नई फसल आ जाती है और उनके घरों में अनाज आ जाता है तब वे खुशियां मनाते हैं। यह समृद्धि और खुशहाली का मौका होता है। दीपावली खुशियां बांटने का त्यौहार है।

इस मौके पर घर की लिपाई-पुताई और उसमें रंग-रोगन किया जाता है। शाम को गाय-बैल की पूजा की जाती है। उनकी सार (उन्हें बांधने का स्थान ) में दीये जलाए जाते हैं। और दूसरे दिन उन्हें रंग दिया जाता है।

मेले में अब सभी ढालें आ चुकी हैं और पड़िहार आपस में बातें कर रहे हैं। दूकानों पर काफी भीड़ है। लोग मिठाईयां खरीद रहे हैं। सिंघाड़ा और पींड (कंद-मूल) खरीद रहे हैं। इधर-उधर जाते समय धक्का-मुक्की हो रही है। अब घर जाने का समय हो गया है। पर हमारा लौटने का मन नहीं कर रहा है। कई साल बाहर रहने के बाद अपने इलाके की मढ़ई में जाना और देखना बहुत ही मजेदार था।