Friday, November 30, 2012

अठखेलियां करती मनोरम नर्मदा

नर्मदा जाने का मौका तलाशता रहता हूं।  भाई दूज पर जब बहन के घर नरसिंहपुर गया तो फिर संयोग बन गया। बहन ने कहा -इस बार बरमान घाट की बजाय चिनकी घाट चलेंगे। वो ज्यादा अच्छा है।
हम आॅटो से जाने तैयार हो गए। छीगरी नदी का पुल पार कर जब गांधी प्रतिमा से आॅटो मुडा तो वह रास्ता जाना-पहचाना था। यहीं बरसों पहले गिरिराज स्कूल में एक वर्ष पढ़ाई की थी। रोज पैदल आना-जाना होता था।
सड़क के दोनों ओर खेतों में किसान बोउनी कर रहे थे। हरे चने के पौधे मिट्टी के ढेलों के बीच से ऊपर झांक रहे थे। घूरपुर के मोड़ के आसपास एक खेत में मेरी निगाह उस खेत पर पड़ी जिसमें ज्वार के भुट्टे भरे दानों से लदे लटक रहे थे। बिल्कुल मोतियों की तरह दिख रहे थे। उन्हें जी भरके देख लेने की चाह अधूरी रह गई, क्योंकि हमारा आॅटो सड़क पर दौड़ रहा था।
 चलचित्र की भांति पेड़, पौधे, गाय, बैल, गांव और खेत, स्त्री, पुरुष और बच्चे छूटते जा रहे थे। गांवों के गोबर से लिपे-पुते मकान और रंगोली आकर्षित कर रहे थे। कहीं-कहीं सजी -धजी दुकानें, मोटरसाइकिलों पर सवार युवा दिखलाई पड़ रहे थे। शेढ नदी में पानी खूब था,  हालांकि काई से पट गई है। फिर भी पुल से गुजरते हुए मनोरम लगी।
रास्ते में कुछ ग्रामीण महिलाएं भी मिलीं जो पैदल नर्मदा स्नान करने जा रही थीं। दूर-दूर से निजी वाहनों से लोग परिवार समेत पहुंच रहे थे। मवेशी भी पीने के लिए जा रहे थे।
जब हम नर्मदा घाट पर पहुंचे तब दोपहर हो चुकी थी। चाैड़ा पाट, विशाल चट्टानें, उन पर से उफनती अठखेलियां करती सौंदर्य से भरपूर नर्मदा। कल-कल, छल-छल की खनकती आवाज। दूर सामने पहाड़ी और हरा-भरा जंगल। बड़ा ही मनमोहक दृष्य। निहारते ही रहो।
स्त्री, पुरुष, बच्चे स्नान कर रहे हैं। मछुआरे  छोटी-छोटी डोंगियों (नावों) में बैठकर मछली पकड़ रहे हैं। डोगियां पानी में चलती अच्छी लग रही हैं। श्रद्धालु अगर नारियल फोड़ते तो बच्चे प्रसाद के लिए लपक पड़ते।
भोजन-पानी की तलाष में इधर-उधर घूमते-घामते कौव्वों का एक दल पहुंचा। मैं जिस पत्थर पर बैठा था, उसके नजदीक ही वे अपनी चोंच से पानी में कुछ ढूंढने लगे। मैंने बहुत दिन बाद कौव्वों को देखा और वो भी इतने पास से। अब वे दिखते भी नहीं है।
अब बहन स्नान और पूजा कर बाटी-भर्ता बनाने की तैयारी करने लगी। उसने कंडों (गोबर के उपले) की अंगीठी लगा उसे सुलगा दिया। धुआं उठने लगा। गोबर के उपलों की गंध नथुनों में भरने लगी। जलती अंगीठी में भटा, टमाटर और प्याज भुंजने के लिए डाल दिए। इधर तेज गति से आटा गूंथकर गोल-गोल बाटियां बनाई जाने लगी।
अब कंडे जल चुके हैं उनकी राख को समतल कर बाटियां सिंकने डाल दी गई हैं। बहन की मदद के लिए मैं आ गया। बाटियां उलटाने-पुलटाने में मदद की। इसमें चूक हुई बाटियां जल जाएंगी। यानी नजर हटीं तो दुर्घटना घटी। जलते अंगारे में एक बार मेरी बाएं हाथ की अंगुली जल गई। उसका निशान अब भी है।
अब बाटियां सिक चुकी है। बहन ने उन्हें कपड़े से खुड़-खुडाकर (साफ कर) घी लगाया। भर्ता को फ्राई करने के लिए ईंट-पत्थर का चूल्हा बनाया। सूखी लकड़ियां बीनकर आग सुलगाई।
अब तक पेट में चूहे दौड़ रहे थे। स्नान कर सब लोग आ गए। खकरा (पलाश) के हरे पत्तों पर भर्ता, बाटी और सलाद को परोसा जा चुका था। पास ही एक कुत्ता आकर बैठ गया, जिसके लिए बहन ने दो बाटियां अलग से सेकी थी।
लंबे अरसे बाद नर्मदा तट पर छककर स्वादिष्ट भोजन किया। नर्मदा की गोद में हमेशा ही मां का दुलार मिलता रहा है। आनंददायी यात्रा हो गई। अब लौटने की बेला हो गई। हम घाट के चढ़ाव के कारण उपर तक पैदल गए। देखते हैं कि वह कुत्ता भी हमारे पीछे पीछे विदा करने आ गया, जिसे बहन ने बाटियां खिलाई थी। जब तक हम आॅटो न बैठ गए, वह खड़ा रहा। मैं उसे तब तक देखता रहा जब तक वह आंखों से ओझल न हो गया।
लेकिन मेरा आनंद तब काफूर हो गया जब मैंने नर्मदा की हालत पर विचार किया। शहरीकरण, औद्योगीकरण और नए पावर प्लांटों के कारण नर्मदा में प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। बड़े बांध बनाकर उसकी अविरल धारा को पहले ही अवरूद्ध कर दिया गया है। उसकी सभी सहायक नदियां धीरे-धीरे दम तोड़ रही हैं। सवाल यह है कि नर्मदा क्या अक्षुण्ण रह पाएगी?

Sunday, November 11, 2012

देनवा के किनारे

जब हमारी गाड़ी हरे-भरे जंगल के बीच से गुजर रही थी तो दूर-दूर तक खंबे की तरह खड़े पेड़ों को देखकर दिल उछल-उछल पड़ रहा था  । चारों तरफ शांत  वातावरण, ठंडी हवा, रंग-बिरंगे पक्षी और गाय-बैलों को टिटकारते चरवाहे।

होशगाबाद जिले में दक्षिण में पूर्व से पशिचम तक सतपुड़ा की लम्बवत की खूबसूरत पहाडि़यां हैं। देनवा में दूर-दूर तक नीला पानी। यानी जहां जहां तक नजरें जाती, पानी का संसार। उधर गहरे पानी में लहरें उठती दिखतीं और मेरे अंदर भी। यहां तवा बांध की ठेल थी।

हम सोहागपुर की जंगल पटटी के स्कूल देखने जा रहे थे। कल हम मटकुली के आसपास वनांचल में गए थे। यह दौरा एकलव्य संस्था के द्वारा सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के क्षेत्र के स्कूलों का जायजा लेने के लिए किया गया था। आज के दौरे में विकासखंड शिक्षा अधिकारी तिवारी जी भी थे। एकलव्य पिपरिया के गोपाल भार्इ और कमलेश भार्गव तो थे ही।

पहला स्कूल मगरिया का देखा। यहां एक स्वयंसेवी संस्था ने शेक्षणिक सामग्री और पाठयक्रम को सरल ढंग से पढ़ाने के लिए प्रोजेक्टर दिए हैं। खापा, घोघरी, पाठर्इ,टेकापार, उरदोन और सेहरा के स्कूलों का भ्रमण किया।
स्कूल में एक तो शिक्षकों की कमी दिखार्इ दी और जो हैं, वे अन्य कामों में संलग्न रहते हैं। कल सेमरी में कोर्इ शिक्षकों की बैठक थी जिसमें शिक्षक गए थे। जब शिक्षक नहीं है, या जो वे अतिथि शिक्षक हैं,क्या वे प्रशिक्षित हैं, यह सवाल है।

यह अत्यंत निर्धन इलाका है। यहां गोंड और कोरकू आदिवासी निवास करते हैं। देनवा नदी के किनारे गांव बसे हैं। इनमें से ज्यादातर तवा बांध से विस्थापित हैं। तवा और  देनवा के संगम पर बांद्राभान में तवा बांध बना है।
यहां के षिक्षक ने बताया कि यहां के आदिवासी बहुत सीधे-सादे और मददगार हैं। पर हैं बहुत गरीब। गरीब महिलाएं मूढ़गटठा (जलाऊ लकड़ी) बेचकर बच्चों का पेट पालती हैं। उन्हें मूढगटठा के लिए दो दिन श्रम करना पड़ता है। एक दिन वे जंगल जाती हैं, सूखी लकडि़यां बीनती हैं और गटठा बनाकर रखकर आ जाती हैं।

फिर दूसरे दिन सुवह-सबेरे जंगल जाती हैं, उसे लेकर नजदीक के कस्बे सोहागपुर जाती हैं, बेचती है और उन पैसों से राशन व जरूरत की चीजें लाती हैं। मूढगटठा की कीमत 100 रू से लेकर 150 रू. तक होती है।
खापा में स्कूल देखने के बाद गांव घूमने निकल गए। वहां कुछ घरों के आंगन में धान की दावन (धान की बालियों से दाना निकालने के लिए बैलों को घुमाया जाता है) की जा रही थी, जो लंबे अरसे बाद मैंने देखी। बहुत अच्छा लगा। बचपन में अपने गांव में खूब देखते थे।

जब टेक्टर व हार्वेस्टर नहीं थे तब ऐसे ही सब खेती के काम हाथ से किए जाते थे। दावन से धान अलग और उसके ठंडल जिसे पुआल कहते थे, वो अलग। धान से दाने निकालकर उन्हें ओखली में कूटते हैं। सूपा में फटखते हैं जिससे दाना और उसका कोड़ा भूसा अलग  किया जाता है। फिर मिटटी की हांडी में भात पकता था जिसकी खदबद सुनकर ही भूखे बच्चों की आंखें चमक जाती थी।

गोंड आदिवासियों के घरों में लकड़ी से बनी दीवारें भी देखीं। इसके पहले खेतों में बागड़ देखी जो लकड़ी के खंबों व कंटीले वृक्षों की टहनियों से बनी थी। क्योंकि यहां जंगली जानवर फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं।
जंगली सुअर, हिरण, चीतल, सांभर, नीलगाय और बंदर फसलों को चौपट करते हैं। इसलिए खेतों में बागड़ बनार्इ जाती है। मचान बनाए जाते हैं, जिस पर बैठकर खेती की रखवाली की जाती है। जंगलों से भोजन की तलाश में ये जानवर खेतों और मैदानी क्षेत्रों की ओर आ जाते हैं। किसान परेशान हैं।

खेतों में बक्खर चलाते किसान और उनके संग देती महिलाएं भी दिखी। खेती में महिलाओं का योगदान महत्वपूर्ण है। वे बीज भंडारण से लेकर निंदार्इ, गुडार्इ, फसल कटार्इ जैसे कर्इ काम करती हैं।

गांव के कुछ स्कूलों में शैक्षणिक सामग्री की कमी तो थी ही, कहीं टाटपटटी की व्यवस्था भी नहीं थी।   एक स्कूल में तो  एक संकरे कमरे में लगा था, जिसमें सभी प्राथमिक कक्षा के बच्चे एक साथ बैठे थे। बाहर दरी पर आंगनबाड़ी लगी थी जिसमें तीन चार छोटी बचिचयां बैठी थी।

अब शा म हो गर्इ थी। जंगल में संध्या के पहले लोग घरों को लौट आते हैं। जंगल में जानवरों का भय तो रहता ही है। हमारी गाड़ी अब उची-नीची सड़क से पक्की सड़क पर आ गर्इ थी। आते ही फर्राटेदार एक पीली गाड़ी दिखी जो शायद पर्यटन के लिए मढर्इ जा रही थी। जंगली जानवरों और प्राकृतिक सौंदर्य देखने।

सोहागपुर के नजदीक लालिमा लिए सूरज डूबने को हो रहा था। सामने से साइकिलों से स्कूली लड़कियों की टोली दिखार्इ दी जिसे देख बहुत ही अच्छा लगा। यह बदलाव का प्रतीक तो है ही, लड़कियों की आजादी का प्रतीक भी है।

एक समय ऐसा था कि लड़कियों का घर से निकलना मुशिकल था। अब वे स्कूल जा रही हैं। कालेज जा रही हैं। सरकार की लड़कियों को साइकिल देने की योजना की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। घर आते आते मेरे मन में एक तरफ तो अपूर्व प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर क्षेत्र के भ्रमण का आनंद था, वहीं दूसरी तरफ वहां के लोगों की सिथति, अभाव और कष्ट देखकर वह आनंद कम हो गया लगता है।

Saturday, November 3, 2012

नीली झील और भारत भवन की सैर

जनगढ़ सिंह श्याम का चित्र
आज भोपाल में बड़ी झील के किनारे सिथत भारत भवन जाना हुआ और वहां चित्रों की प्रदर्शनी देखी तो देखता ही रह गया। कैनवास पर रंगों की अनोखी मनमोहक छटा। यहां एक तरफ प्रसिद्ध चित्रकार जे. स्वामीनाथन व रजा साहब की पेटिंग्स थी थ दूसरी तरफ मंडला के आदिवासी युवक जनगढ़ सिंह श्याम और उनकी पत्नी ननकुसिया का रचना संसार सजीव हो रहा था।

भारत भवन के खुलने में थोड़ी देर थी। मैं पास ही बड़ी झील के किनारे पत्थरों पर बैठ गया। दूर-दूर तक नीला पानी। नजरें जहां तक जातीं पानी ही पानी। दूर सफेद बगुलों की टोलियां बैठी हुर्इ। बहुत ही खूबसूरत नजारा।
भारत भवन में दोपहर 1 बजे गए और 3 बजे तक रहे। इस दौरान वहां के कुछ कलाकारों, कर्मचारियों व चित्रकला के विधार्थियों से मुलाकात की। पेंटिंग्स व मूर्तिकला तो देखी ही। मुकितबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन व अज्ञेय के कविता पोस्टर भी पढ़े। मुकितबोध के हस्तलिखित पत्र व कविताएं पढ़कर बहुत अच्छा लगा।

जनगढ़ सिंह श्याम का चित्र
मूर्तिकला के स्टूडियो में तीन चार युवा मिटटी से आकृति उकेर रहे थे। एक उभरती मूर्तिकार जिसने हाल ही बड़ोदरा से फाइन आर्ट की स्नातक डिग्री हासिल की है, यहां रोज मूर्ति बनाने का अभ्यास कर रही थीं। मिटटी को ठोंकना-पीटना, चाक पर चढ़ाकर घुमाना, फिर उसे मनचाहा आकार देना, इसमें वह व्यस्त थी। उसे ऐसा करते देखते ही रहे।

जे जे स्कूल बाम्बे से निकले तुषार मूर्ति बनाने के लिए मिटटी को तैयार कर रहे थे। वह कुछ समय के लिए इस स्टूडियो में मूर्तिकला सीख रहे हैं। इसी प्रकार एक युवती जिसने एक महिला की मूर्ति की बनार्इ थी, उसकी मुंदी आंखें को खोल रही थी और कानों को आकार दे रही थी।

यहां लोहे, पीतल, मिटटी व अन्य धातुओं से बनी मूर्तियों की प्रदर्शनी लगी हुर्इ है, जो यहां एक नए वातावरण का निर्माण करती हैं। ऐसा लगता है, झील से जो हवा इनसे टकराती है, जिससे एक नर्इ ध्वनि निकलती है, वह सुरीली व मोहक है।

रूपंकर में चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी जिसमें जनगढ़सिंह श्याम, जो मंडला के आदिवासी कलाकार थे और भारत भवन से जुड़े हुए थे, के चित्र भी थे। जनगढ़ की स्मृति इसलिए भी आत्मीय है क्योंकि उन्होंने मेरी कहानी के लिए चित्र बनाए थे। यह कहानी वर्ष 1984 में एक पत्रिका में छपी थी।

आज उनके चित्र देखकर उनकी याद ताजा हो गर्इ, जो सुखद है। जनगढ़ के चित्र आदिवासी संस्कृति के प्रतीक हैं। उसकी पत्नी के चित्र भी देखे। मैंने छत्तीसगढ़ में आदिवासी चित्रकारों के जंगली जानवर, मढर्इ मेले, नृत्य, शिकार, पक्षियों के बहुत सुंदर चित्र देखे हैं, जो मेरे स्मृतियों में बसे हुए हैं।

 जे. स्वामीनाथन की चिडि़या और पहाड़ तो देखे ही रजा की विराट बिन्दु से भी साक्षात्कार हुआ। स्वामीनाथन भारत भवन के शुरूआत से जुड़े और उन्होंने उसे एक आकार दिया। सतपुड़ा की पहाडि़यों में जब मैं अपने बेटे के साथ पक्षियों को विचरण करते देखता हूं, स्वामीनाथन की याद यक ब यक आ जाती है। उनकी स्मृति तबसे मेरे मानसपटल पर अंकित है जब वे गैस पीडि़तों के साथ सड़क पर उतर आए थे।

जे. स्वामीनाथन का चित्र
रजा पकी उम्र फ्रांस से वतन लौट आए हैं, और सकि्य हैं। वे इसी मध्यप्रदेश के माटी पुत्र हैं। उनके संस्मरण नरसिंहपुर में जगदीश भार्इ व रमेश तिवारी सुनाते हैं।

आज मुझे कलागुरू विष्णु चिंचालकर की भी याद आ गर्इ, जिन्होंने मुझे देखना सिखाया। एक कलादृषिट दी, जिसे  मैं अपने लेखन के जरिए सामने लाने की कोशिश करता रहा हूं। वे कबाड़ से जुगाड़ से बेहतर कृतियों को सृजित कर देते थे। ऐसा मैंने यहां के कलाकारों को बताया। मुझे आष्चर्य हुआ कि उन्होंने कलागुरू विष्णु चिंचालकर का नाम नहीं सुना था।

दीपावली के बाद लगने वाले मढर्इ मेले, मोरपंख से बनी ढालें, देवताओं के चबूतरा, त्रिशूल, शादी-विवाह के समय लगने वाले खम्भ, घड़े, हाथी और मिटटी के बैलों को प्रदर्शित किया गया है।

 चित्रकला कभी लोकमानस में व्याप्त थी। कुम्हारों की  घड़े व सुराहियों पर अंकित चित्र, भितित चित्र, तुलसी कोट व घर के आले व आलमारियों में चित्रकारी, लकडि़यों के दरवाजों पर नक्काशियां जनसाधारण में आम बात थी। आदिवासियों में यह अब भी शेष है।

जे. स्वामीनाथन का चित्र
मैं लौटते समय में सोच रहा था क्या संस्कृति को बचाने के लिए नुमाइश ही काफी है? या इसे संग्रहालयों से बाहर जनजीवन में इसे स्थापित करने की जरूरत है। अगर ये सब बच्चों को दिखार्इ जाएं और कलाकार भी देखें  तो नर्इ संस्कृति की मुहिम शुरू हो सकती है।