Friday, December 28, 2012

सतपुड़ा का मैला आंचल


कश्मीर उप्पल
 
हमारे नर्मदांचल के लेखक, पत्रकार, संपादक, एकिटविस्ट बाबा मायाराम जमीन से जुडे़ मुददों पर लिखने वाले के रूप में जाने जाते हैं। उनके लेखन में देस की मिटटी की सोंधी महक होती है। बाबा मायाराम का लेखन ही नहीं वरन उनका संपूर्ण लेखकीय कर्म हमें साक्षात भूमि की भाषा-भूषा से जोड़ देता है। यह उनके लेखन की विषेषता है कि हमें महसूस होता है कि हम ही साक्षात रूप से गरीब ग्रामीणजनों से मिल रहे हैं। आदिवासियों तथा पाठक के बीच में से लेखक का हटे रहा बाबा की विषेषता है। वे स्वयं प्रयास कर हमें कुछ नहीं दिखाते वरन हमें उठाकर ग्रामीण अंचल के किसी गांव में पहुंचा देते हैं।

सतपुड़ा के बाशिन्दे बाबा मायाराम के जादुई लेखन का वह संग्रह है जिसमें होकर हम गांव और जंगल के बाशिन्दे से मिलते हैं। इन बाशिन्दे में सतपुड़ा के जंगल के आदिवासियों का ही नहीं शेर, गाय, बैल और पक्षियों का जीवन दर्ज है। पालतू पशुओं के साथ-साथ जंगल के पशुओं को भी आदिवासियों के जीवन का अंग मानने वाले बाबा जंगल के उस दर्द का बखान करते हैं जिसने सभी को उदास और अकेला कर दिया है।

पहले कभी आदमी खुद तय करता था वहां कहां बसे रहे, बोये खाये और अपना सामाजिक जीवन बनाये। पर आज व्यवस्थाएं तय करती हैं कि आदमी कहां रहे? कम से कम आदिवासियों से तो यह मौलिक अधिकार छीन ही लिया गया। अब यह खतरा जंगलों से होता गांव-गांव में भी पैर फैला रहा है।

बाबा कहते हैं कि होशंगाबाद विस्थापितों का जिला बन गया है। 1970 में बने तवा बांध से लेकर सतपुड़ा टाइगर रिजर्व, पू्रफरेंज आदि के कारण कई गांव विस्थापित कर दिये गये हैं। बाबा मायाराम इन्हीं विस्थापितों के गांव में हमें ले जाकर खड़ा कर देते हैं और हम देखते और सुनते जाते हैं।

बाबा सबसे पहले हमें आदिवासी गांव धांई ले जाते हैं। "मैं बहुत अकेला हो गया हूं। मेरे घर मं यहां आने पत्नी मेत्रोबाई, पुत्र सुकुमार, नाती, भाई बलवंत और उसकी लड़की की हो गई हैं। जो पैसा था, सब खत्म हो गया। घर में जो गहने-जेवर थे वे भी बिक गए। घर में खाने को नहीं है तो इलाज से कहां से करवाएं?" यह कहना है आधार सिंह का। आधार सिंह नई धांई के निवासी है, जिसे चार वर्ष पहले बोरी अभयारण्य से विस्थापित करके बाहर बसाया गया है। घर में आई मुसीबत के कारण उसकी छोटी बेटी रजनी ने स्कूल छोड़ दिया। वे एक नाती की पढ़ाई को लेकर भी चिंतित हैं। इनकी लड़कियां जलाऊ लकड़ी का गटठा बेच रही हैं, उससे जैसे-तैसे घर की गुजर बसर चल रही है।

मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में बोरी अभयारण्य भारत का पहला आरक्षित वन है। अब बोरी अभयारण्य, सतपुड़ा राष्ट्रीय उधान और पचमढ़ी अभयारण्य को मिलाकर सतपुड़ा टाइगर रिजर्व बनाया गया है। कुल मिलाकर आदिवासियों के 75 गांव है और इतने ही गांव सीमा से लगे हुए हैं।  आज नई धांई में नदी के बदले हैंडपंप है। बोरी में अंदर धांई में सोनभद्रा नदी बहती थी। वहां पानी इफरात था, आज वे बूंद-बूंद के लिए मोहताज हैं। बोरी अभयारण्य के अंदर पुराने गांव में कोरकू आदिवासियों का जीवन जंगल पर आधारित था। वहां तेंदू,अचार, गोंद, फल-फूल, कंदमूल (ननमाटी, जंगली रतालू, बेचांदी, कडुमाटी,) भभोड़ी (कुकरमुत्ता) आदि बहुतायत में मिलते थे। अब इन नये बसे गांव में जीने का कोई सहारा नहीं होने के कारण महिलाओं को सिरगटठा (जलाऊ लकड़ी) बेचने का काम करना पड़ता है।

विस्थापन के समय यह दलील दी जाती है कि बच्चों का भविष्य बेहतर होगा। नई धांई मे एक ही कक्षा में पांच कक्षाओं के बच्चे ठुंसे हैं। मैले-कुचेले, फटे-पुराने कपड़े पहने आपस में बतिया रहे हैं। नये बसे गांव धांई के कई-कई चित्र हमारे सामने आते हैं। बच्चों के माता-पिता रोजगार के लिए सुबह ही कहीं चले जाते हैं। बच्चे अपने जंगल को याद कर उदास हो जाते हैं।

यही कहानी हर गांव की है। डोबझिरना की कहानी तो और भी दुखदायी है। विस्थापन कितनी उलझन भरी प्रकि्रया है कि यह अपने रिश्तेदारों और मिलकर रहने वाले लोगों को आपसी अलगाव पैदा कर रही है। बोरी अभयारण्य के गांव धांई के लोगों को बसाने के लिए पहले से बसे डोबझिरना के लोगों को जमीन से बेदखल कर दिया गया। जिस जंगल को बचाने के लिए आदिवासियों का विस्थापन किया गया उसी जंगल के हजारों पेड़ काट-काटकर नये गांवों को बसाया गया। जंगल काटने के पीछे व्यवस्था के छोटे बडे़ लोगों के अपने-अपने हितों की कहानी अलग से है।

"बचपन की बहुत सी यादें हैं। इस जंगल के माहुल के फल खाते थे। अचार, तेंदू, महुआ खाते थे। नदी में कूद-कूदकर नहाते थे। वहां ठंडा वातावरण रहता था। पेड़ों की छांव में खेलते थे। लेकिन अब हमारी पूरी जिंदगी बदल गई है। सिरगटठा बेचने के अलावा दूसरा कोई काम नहीं है। न हम ढंग से पढ़े और न ही कभी मौका मिला।"
यह कहना है इंदिरा नगर के जबरसिंह का। सतपुड़ा राष्ट्रीय उधान बनते समय इसका गांव नीमघान को विस्थापित कर दिया गया था।

इंदिरा नगर में बसे लोगों का कहना है कि न तो उन्हें कोई मुआवजा मिला न जमीन। मकान बनाने के लिए इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत 1500 मिले, शायद इसी कारण इंदिरा  नगर नाम पड़ गया था।
इसी तरह के अनेक गांव हैं। बाबा मायाराम काजरी-रोरीघाट, नयाखेड़ा, सांडिया, छींदापानी, गाजनिया बेड़ा, रांईखेड़ा आंजनखेड़ा अनेक गांव ले चलते हैं। इन गांवों की अपनी -अपनी दर्द भरी कहानी है जिसे गांव के लोग और बच्चे अपने-अपने तरीके से सुनाते हैं।

 हम शहरों में रहने वाले लोग आदिवासियों के दुख दर्द हैरानी से सुनते रहते हैं। शहरों में अतिक्रमण हटाने वाला शासन-प्रशासन शहरी लोगों से अनुनय विनयं किया करते रहता है। शहर की सड़कें सामने वालों का रौब देखकर खुद अपना मार्ग बदल लेती हैं। कैसे एक देश में सरकार के दो-दो कानून चलते हैं। जंगल में बसा आदिवासियों का एक छोटा सा गांव इसलिए उजाड़ दिया जाता है कि देश का विकास करना है और पर्यावरण को बचाना है। वहीं दूसरी ओर देष की सरकारें बड़े से छोटे षहरों में बिना अनुमति बनाई गई गैरकानूनी कालोनियों को कानूनी मान्यता दे देती हैं। एक देश का एक कानून उसके नागरिकों के लिए अलग-अलग तरह से लागू होता है। समझ में नहीं आता है कि जंगली कानून कहां चल रहा है? जंगल में या शहरों में? इस पुस्तक में तवा के मछुआरों की कहानी मालिक से वापिस चोर शीर्षक से दी गई है जिससे सरकार के गलत काम करने का तरीका हम देखते हैं। इसी तरह विस्थापन के डर से सहमी हैं जंगल की बेटियां, आदिवासी छात्राओं की दर्द भरी कहानी है।

बाबा मायाराम की लगभग 70 पृष्ठों की यह पुस्तक हमारा परिचय प्रशासनिक भेदभाव और राजनीतिक उदासी की दुनिया से कराती है। कसाईघर को ले जाये जाने वाले जानवरों की तरह आदिवासियों को मौत के खूंटों से बांध दिया जाता है। बाबा मायाराम की पुस्तक नगर केंदि्रत सोच पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाती है। इस पुस्तक को पढ़ते हुए लगता है कि हम न जाने दुनिया के किस कोने की दुनिया की बातें पढ़ रहे हैं। हमारी  व्यवस्था के एक अमानवीय चेहरे की यह कहानियां यह भी बताती हैं कि हमारा आंचल भी कितना मैला है।

(साप्ताहिक नगरकथा, 23 दिसंबर, इटारसी से प्रकाशित)