Sunday, October 11, 2009

पहाड़ खोदकर खेतों को पानी पिलाया

आमतौर पर बिना बिजली, बिना डीजल ईजन या पशुधन की ऊर्जा के बगैर खेतों की सिंचाई करना मुश्किल है लेकिन सतपुड़ा के घने जंगलों में स्थित दो गांव के लोगों ने यह कर दिखाया है। अपनी कड़ी मेहनत, कौशल और सूझबूझ से वे पहाड़-जंगल के नदी- नालों से अपने खेतों तक पानी लाने में कामयाब हुए और अनाज पैदा करने लगे। जंगल पर आधारित जीवन से खेती की ओर मुडे आदिवासी भरपेट भोजन करने लगे।


होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखंड में सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच बसे वनग्राम राईखेड़ा में प्यासे खेतों को पानी पिलाने की पहल करीब 20 पहले शुरू हुई, जब गांव के 16 लोगों ने गांजाकुंवर नामक नदी से पानी लाने का बीड़ा उठाया। यह काम आसान नहीं था। खेतों से नदी की दूरी लगभग 5 किलोमीटर दूर थी, जिसके बीच में नाली निर्माण का श्रमसाध्य कार्य करना आवशयक था।


लेकिन इन संकल्पवान लोगों की माली हालत भी अच्छी नही थी। वे खुद मजदूरी कर गुजारा करते थे। उनका इस सामुदायिक स्वैच्छिक काम मे ज्यादा समय लगने से उनके सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो रहा था क्योंकि इससे उन्हें आर्थिक मदद तो नही ही मिलती थी, उल्टे अपने संसाधन इसमें लगाना पड़ रहा था। इसके लिए कुछ कर्ज भी लिया गया। शुरुआत मे लोगो ने इस सार्थक पहल का मजाक उठाया। कुछ ने कहा कि यह ऊंट के पीछे नशेनी (सीढी) लगाने का काम है, जो असंभव है। यानी पहाड़ से खेतों तक पानी लाना टेढी खीर है। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और यह काम जारी रखा।


इस जनोपयोगी पहल से सकि्रय रूप से जुड़े लालजी कहते हैं कि हमने इस काम की प्रेरणा गांव के ही एक बुजुर्ग से ली थी जो एक अन्य कुंभाझिरी नदी से अपने खेत तक पानी लाया था। यह बात करीब 40-45 साल पुरानी है। फिर हम 16 लोगों ने इस काम को करने की ठानी जिसे हमने एक साल में पूरा कर लिया। जिन लोगों को शुरू मे हम पर इस काम को करने का विशवास नहीं हो रहा था, बाद में वे भी हमारे साथ हो गए।
इस इलाके की भौगोलिक बनावट ने इसमें मदद की। एक तो पहाड़ी ढलान होने के कारण गांजाकुंवर नदी में थोड़ा ऊपर जाने पर ऐसी जगह मिल गई, जो गांव के खेतों से ऊंची थी। वहां पत्थर का छोटा सा बांध बनाने पर पानी को नालियों में मोड़कर गुरूत्वाकषण बल से ही खेतों में पहुंचाया जा सकता था। दूसरा, इस नदी में साल में आठ-नौ महीने पानी बहता रहता था। जंगलों के बीच होने के कारण पानी की धारा चलती रहती थी।
जंगल और पहाड़ के बीच स्थित गांजाकुंवर नदी से पानी लाने के लिए खेतों तक नाली बनाने का बड़ा और कठिन काम शुरू किया गया। ऊंची-नीची पथरीली जमीन में नाली निर्माण होने लगा। कहीं पर कई फुट गहरी खुदाई की गई तो कहीं पर बड़ी-बड़ी चट्टानों और पत्थरों को फोड़ा गया। कहीं पर पेडों के खोल से छोटा पुल बनाया गया तो कहीं नाली पर भूसे और मिट्टी का लेप चढ़ाया गया। पत्थरों की पिचिंग की गई,जिससे पानी का रिसाव न हो। और इस प्रकार, अंतत: ग्रामवासियों को 5 किलोमीटर दूर से अपने खेतों तक पानी लाने में सफलता मिली। इस काम में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।


पहाड़ से उतरे सरपट पानी से सूखे खेत तर हो गए। गेहूं और चने की हरी-भरी फसलें लहलहा उठीं। भुखमरी और कंगाली के दौर से गुजर रहे कोरकू आदिवासियों के भूखे पेट भर गये। लोगों के हाथ में पैसा आ गया। वे धन-धान्य से परिपूर्ण हो गए।


यहां सभी ग्रामवासियों को नि:शुल्क पानी उपलब्ध है। पानी के वितरण में प्राय: किसी प्रकार के झगड़े नहीं होते हैं। अगर कोई छोटा-मोटा विवाद होता भी है तो उसे शंतिपूर्ण ढंग से सुलझा लिया जाता है। इस संबंध में लालजी का कहना है कि यहां सबके खेतों को पानी मिलेगा, यह तय है। यह हो सकता है कि किसी को पहले मिले और किसी को बाद में, पर मिलेगा सबको। फिर विवाद बेमतलब है। इसके अलावा, नाली मरम्मत का कार्य भी मिल-जुलकर किया जाता है। आज गांव में दो नालियां गांजाकुंवर नदी से और तीन नालियां कुंभाझिरी नदी से आती हैं। कुल मिलाकर, पूरे गांव के खेतों में सिंचाई की व्यवस्था हो गई है।


राईखेड़ा की तरह वनग्राम आंजनढाना में भी इसी तरह की सामूहिक सिंचाई की व्यवस्था है। बल्कि आंजनढाना में यह व्यवस्था राईखेड़ा से पहले की है। राईखेड़ा और आंजनढाना के बीच में भी कुछ मील का फासला है। गांववासियों का कहना है कि यहां के पल्टू दादा ने बहुत समय पहले इसकी शुरूआत की थी। वे ढोर चराने का काम करते थे। और जब वे सतधारा नाले में ढोरों को पानी पिलाने ले जाते थे तब वे वहीं पड़े-पड़े घंटों सोचा करते थे कि काश! मेरे खेत में इस नाले का पानी पहुंच जाता, तो मेरे परिवार के दिन फिर जाते।


इसके लिए उन्होंने सतत् प्रयास किए। शुरुआत मे नदी पर दो बांध बांधने की कोशिश की पर वे कामयाब नहीं हुए। वे अपने काम में जुटे रहे और अंतत: उन्होने अपने बाडे में पानी लाकर ही दम लिया। शुरूआत में उन्होंने सब्जियां लगाईं- प्याज, भटा, टमाटर, आलू और मूली वगैरह। फिर गेहू बोने लगे। पल्टू दादा के बेटे बदन सिंह ने बताया कि आज हम उनकी वजह से भूखे नही है। गांव भी समृद्ध है। पहले हम सिर्फ़ बारिश में कोदो, मक्का बोते थे। अब गेहूं- चना की फसल ले रहे हैं। गांव के लोगो को भी पानी मिल रहा है।


इस बहुमूल्य व सार्थक पहल में राईखेड़ा, आंजनढाना के बाद कोसमढोड़ा, तेंदूखेड़ा और नयाखेड़ा जैसे कुछेक गांव के नाम और जुड़ गए हैं। इस तरह प्यासे खेतों में पानी देकर अन्न उपजाने की यह पहल क्षेत्र में फैलती जा रही है। हालांकि आंजनढाना में पक्की नाली का निर्माण वनविभाग के मारफत करवाया गया है लेकिन राईखेड़ा में यह काम अब तक नहीं हो पाया है। गांववालों का कहना है इसके लिए स्वीकृति मिल चुकी है फिर भी इसे लटकाया जा रहा है।


कुल मिलाकर, इस पूरी पहल से कुछ बातें साफ तौर पर दिखाई देती है। एक तो यह पूरा काम प्रकृति और पर्यावरण से सामंजस्य बनाकर किया गया क्योंकि आदिवासियों का प्रकृति से गहरा रिशता है। वे जंगल और वन्य जीवों के सबसे करीब रहते आए हैं। उन्हें इसकी जानकारी है। और इस पूरे काम में न तो परिवेश को नुकसान पहुंचा, न जंगल को और न ही किसी वन्य जीव को। इसमें सिंचाई के लिए पानी लाने में किसी बिजली की जरूरत भी नही पड़ी। लिहाजा बिजली तार भी नहीं खींचे गए। और न हीं डीजल ईंजन की आवशयकता पड़ी। कोई ध्वनि प्रदूषण भी नही हुआ। इस प्रकार प्रकृति, वन्य जीव और जंगल का संरक्षण करते हुए कृषि के लिए पानी की व्यवस्था करना संभव हुआ।

यह भी जाहिर होता है कि घने जंगलों में रहने वाले ग्रामवासियों के विकास और पर्यावरण संरक्षण में कोई टकराव होना जरूरी नहीं है। वन संरक्षण और वन्य प्राणी संरक्षण के लिए उन्हें हटाना जरूरी नही है। ऐसे तरीके खोजे जा सकते हैं, जिनसे दोनों उद्देशय पूरे हो सकें। लेकिन विडंबना यह है कि इसके बावजूद सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान और सतपुड़ा टाईगर रिजर्व से विस्थपित करने कोशिश की जा रही है।



दूसरी बात यह है कि अगर मौका मिले तो बिना पढे-लिखे लोग भी अपने परंपरागत ज्ञान, अनुभव और लगन से जल प्रबंधन जैसे तकनीकी काम को बेहतर ढंग से कर सकते है, यह रांईखेड़ा और आंजनढाना के काम से साबित होता है। कहां से और किस तरह से नाली के द्वारा पहाड़ के टेढे-मेढे रास्तों से पानी उनके खेतों तक पहुंचेगा, इसका पूरा अनुमान उन्होंने लगाया और इसमें वे कामयाब हुए। न तो उन्होंने इंजीनियर की तरह नाप-जोख की और न ही इस विषय की किसी से तकनीकी जानकारी ली। अपनी अनुभवी निगाहो से ही उन्होंने पूरा अनुमान लगाया, जो सही निकला।

तीसरी बात यह है कि सिंचाई व्यवस्था गांव की सामूहिक पहल और प्रयास का परिणाम है। सरकारी योजनाओं एवं सरकारी धन से यह काम नहीं हुआ। सबसे बड़ी बात ग्रामीणों की कभी न हारनेवाली हिम्मत और जिद, थी जिसके कारण आज उनकी और उनके बच्चों की जिंदगी में आमूलचूल बदलाव आ गया। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि ऐसे गांवों को विस्थापित करना बिल्कुल भी उचित नही है। बल्कि इस तरह के प्रयास और करने की जरूरत है। बहरहाल, यह पहल सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।

Friday, October 9, 2009

उम्मीद की किरण दिखा रही हैं छत्तीसगढ़ की दो सरपंच

स्वास्थ्य के क्षेत्र में छत्तीसगढ़ की दो महिला सरपंच के कामों की कीर्ति फैलती जा रही है। ये दोनों बिलासपुर जिले के कोटा विकासखंड से हैं। एक है करहीकछार की तिहारिन बाई और दूसरी हैं रतखंडी की पुष्पाराज। दोनों महिला सरपंच आदिवासी समुदाय से हैं तिहारिन बाई उरांव हैं और पुष्पाराज गोंड। दोनों सरपंच होने के साथ-साथ स्वास्थ्य कार्यकर्ता भी हैं और यहां स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्यरत्त गनियारी स्थित गैर सरकारी संस्था जन स्वास्थ्य सहयोग से जुड़ी हुई हैं।

बिलासपुर से 20 किलोमीटर दूर कोटा विकासखंड का मुख्यालय है। इसी क्षेत्र में ये दोनों पंचायतें स्थित हैं। यह आदिवासी बहुल और जंगल वाला पिछड़ा हुआ क्षेत्र है। यहां एक छोटे से कस्बे गनियारी में गैर सरकारी जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र है, जिसकी स्थापना 1999 में हुई थी। इसे मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं से चिंतित कुछ डाक्टरों ने शुरू किया जिसमें से कुछ डाक्टर आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस (एम्स) नई दिल्ली से निकले थे। इसका उद्देशय है ग्रामीण समुदाय को और विशेषकर महिलाओं को सशकत कर बीमारियों की रोकथाम करना और इलाज करना। यह 15 बिस्तर का अस्पताल है, जहां 10 पूरावक्ती डाक्टर हैं। इस केन्द्र के ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम की दोनों कार्यकर्ता हिस्सा हैं।
ये दोनों महिला सरपंच अपने पंचायतों के दायित्व निर्वहन के साथ-साथ स्वास्थ्य कार्यकर्ता का काम भी बखूबी कर रही हैं। उनके इस काम में ग्रामीणों का भी अच्छा सहयोग मिल रहा है। वे अपने गांव में मलेरिया की रोकथाम की मुहिम चलाती हैं, गर्भवती महिलाओं की जांच में मदद करती हैं। वे बच्चों के पोषण और परवरिश के लिए चलाए जा रहे फुलवारी केन्द्र की निगरानी करती हैं और छोटी-मोटी बीमारियों का अपने स्तर प्राथमिक उपचार करती हैं। कुल मिलाकर, वे ग्रामीणों और अस्पताल के बीच में पुल का काम कर रही हैं जिससे गांव में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हल करने में मदद मिल रही है।
इस इलाके में मलेरिया की रोकथाम एक बड़ी चुनौती है। इसके लिए स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के द्वारा कई स्तरों पर मुहिम चलाई जाती है। इसमें दो स्तरों पर काम किया जाता है। एक, मलेरिया के मरीज की पहचान कर उसका तुरंत इलाज करवाना और दूसरा, गांव में मलेरिया के मच्छरों को पनपने से रोकना। इस मुहिम में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।
इस मुहिम में स्कूली बच्चों और किशोरी बालिकाओं का भी सहयोग लिया जाता है। मच्छरदानी के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है। इस काम में दोनों स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का काम उल्लेखनीय है। जन स्वास्थ्य सहयोग के कार्यक्रम संयोजक प्रफुल्ल चंदेल कहते हैं इनसे हमें मलेरिया की रोकथाम करने में काफी मदद मिली है। इस इलाके में अब मलेरिया से होनेवाली मौतें आधी हो गई है।
इसी प्रकार ये दोनों कार्यकर्ता अपने गांव मे बच्चों के पोषण और परवरिश के लिए चलाए जा रहे फुलवारी केन्द्र में भी मदद करती हैं। वे उनका वजन लेती हैं अगर कम वजन होता है, यानी बच्चा कुपोषित होता है तो उसका वजन बढ़ाने के लिए प्रयास किया जाता है। करहीकछार पंचायत में 5 फुलवारी केन्द्र चल रहे है और रतखंडी में 3 केन्द्र चलाए जा रहे है।
जन स्वास्थ्य सहयोग, गनियारी के डा. अनुराग भार्गव का कहना है कि 6 माह से 3 साल तक के आयुवाले बच्चो को समुचित पोषण देने की जरूरत होती है। अगर बच्चा बचपन में कुपोषित रहा तो उसका असर रहता है। इसलिए उन्हें इस अवधि में स्वादिष्ट, गरम, पतले और मुलायम भोजन की जरूरत होती है, जो कि फुलवारी केन्द्रों में दिया जाता है। इसके लिए गांव से प्रतिदिन एक-एक मुट्ठी चावल एकत्र कर फुलवारी को दिया जाता है। ग्रामीणों का सहयोग ऐसे कामों में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के प्रयासों से ही संभव होता है। दोनों पंचायतों में बाल पोषण का स्तर सुधारने में ये कार्यकर्ता जुटी हुई हैं। करहीकछार की सरपंच तिहारिन बाई का कहना है कि हमारे गांव में 20-22 प्रसव हुए। इसमें सभी बच्चे स्वस्थ थे।
चिकित्सकों का मानना है कि स्वास्थ्य की दृष्टि से यह बात सिद्ध हो गई है कि कुपोषित व्यक्ति जल्द बीमार होता है। इसलिए बच्चे और बड़े स्वस्थ रहें, यह जरूरी है। इसके लिए अपने आसपास उपलब्ध जंगल और खेत से मिलनेवाले पोषक आहारों को लेने की सलाह दी जाती है। जिसमें फल, फूल, पत्तिया, तिलहन, दाल और अनाज शामिल हैं। इनमें से ज्यादातर अमौदि्रक चीजें होती हैं, जो सहज उपलब्ध होती है, इनकी जानकारी ग्रामीणों को दी जाती है।
हालांकि दोनों ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं तिहारिन बाई 5वीं तक और पुष्पाराज की शिक्षा 8 वीं तक हुई है। लेकिन गहरी लगन, सक्रयिता और ग्रामीणों के प्रति सेवा भावना से ये अच्छी स्वास्थ्य कार्यकर्ता साबित हो रही हैं। यहां स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के चयन का आधार स्कूली शिक्षा नहीं है, बल्कि ग्रामीणों के साथ व्यवहार में मिलनसार, गांव की सेवा और सहयोग की भावना को ही स्वास्थ्य कार्यकर्ता बनने की योग्यता माना जाता है। और वे चिकित्सकों की सतत् देखरेख और प्रशिक्षण के चलते बखूबी यह काम कर रही हैं। उन्हें प्रशिक्षण सामग्री- पोस्टर, पर्चे, आदि के माध्यम से शिक्षण किया जाता है। इस क्षेत्र में करीब 80 महिला कार्यकर्ता सक्रयि हैं।
अब वे थर्मामीटर से बुखार नापने से लेकर मलेरिया की स्लाइड बनाना और ब्लड प्रेशर की जांच कर लेती हैं। वे बच्चों का वजन कर लेती हैं। स्थानीय खाद्य पदर्थों , विशेषकर पोषण प्रदान करनेवाले फल-फूलों से कुपोषण दूर करने की सलाह देती हैं।

वे ओ. आर. एस. का घोल बनाना सिखाती हैं। वे अपने गांव से गुजरने वाली मिनी बसों के जरिये ऐसी छोटी-मोटी जांच के लिए स्वास्थ्य केन्द्र नमूने भेजती हैं जिसकी जांच रिपोर्ट उसी दिन बस से स्वास्थ्य केन्द्र से उन्हें भेज दी जाती हैं। सड़कों के आवागमन का स्वास्थ्य सुविधाओं में सहायक होने का यह एक अच्छा उदाहरण है। एक अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छे परिवहन की जरूरत होती है।
ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रम के प्रमुख डा. योगेश जैन का कहना है कि दोनों स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं का सरपंच होने का लाभ हमारे स्वास्थ्य कार्यक्रम में मिलता है। खासतौर से महिला स्वास्थ्य में तो इसका विशेष लाभ होता ही है। गर्भवती महिलाओं की जांच और अन्य बीमारियों की रोकथाम में उनकी वि्शेष भूमिका है। उनकी बात लोग सुनते हैं और मानते हैं। हमारे कार्यक्रम में महिलाओं की भागीदारी सार्थक होती है। उनके पास पंचायत का कुछ अतिरिक्त फंड भी होता है जिसे वे ग्रामीणों के इलाज के लिए खर्च कर सकती हैं।

यानी कुल मिलाकर, इन दोनों महिला सरपंचों का काम कई मायनों में उपयोगी है। एक, आज जब दवाओं के दाम आसमान छू रहे हैं और स्वास्थ्य सेवाएं लोगों की पहुंच से दूर होती जा रही है, तब गांव की ही महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता गांवों के स्वास्थ्य को बेहतर करने का करें तो यह उपयोगी और सार्थक काम है। दो, देश के अन्य भागों की तरह छत्तीसगढ़ में भी महिलाओं को समाज में कमतर दर्जा मिलता है। यहां एक अंधवि’वास टोनही प्रथा के रूप में प्रचलित है जिसमें किसी महिला को जादू-टोना का आरोप लगाकर उसे प्रताड़ित किया जाता है। हालांकि इसे कानून के द्वारा रोकने के लिए कोशिश की गई है लेकिन ऐसे में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता भी मददगार हो सकती है।

तीन, बदलाव की प्रक्रिया सदैव जमीनी स्तर से ही शुरु होती है, जिसकी शुरुआत पंचायतों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के साथ हो चुकी है। यह महिला सशक्तिकरण का भी एक अच्छा और सराहनीय प्रयास है। इस पूरे काम के बारे में करहीकछार की सरपंच तिहारिन बाई कहती है कि मैं लोगों के कुछ काम आ रही हूं, गांव के लिए कुछ कर रही हूं, यह सोचकर बहुत अच्छा लगता है। रतखंडी की सरपंच पुष्पा भी हमेशा ऐसा ही काम करना चाहती हैं। कुल मिलाकर, इन दोनों सरपंचों के काम हमें उम्मीद की किरण दिखा रही हैं, जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।