Saturday, November 27, 2010

रेत में नाव नहीं चलेगी

नर्मदा तीरे कार्तिक की पूर्णिमा पर सांडिया में मेला लगता है,यह ज्ञात था। देखने की इच्छा थी, वह हाल ही में  पूरी हुई। इस मौके पर जगह-जगह मेलों का आयोजन होता है। नर्मदा और दूधी नदी के संगम पर केतोघान में और नर्मदा और तवा के संगम पर बांद्राभान समेत अनेक जगह मेले लगते हैं। पिपरिया में रहने के कारण बार-बार नर्मदा के दर्शन हुए हैं। लेकिन मेलों का आनंद ही कुछ और है।

पूर्णिमा के दो-तीन पहले से ही सरै भरते ( साष्टांग लेटकर नर्मदा तक जाना ) हुए श्रद्धालु मिलने लगे थे। एक दिन पहले तो रात भर हर-हर नर्मदे का जयकारा करते हुए नर्मदा जाने वालों का तांता लगा रहा। पैदल, साइकिल, मोटर साइकिल, टेक्टर-ट्राली और चार पहिया वाहनों से जनधारा नर्मदा की ओर बहती रही।

सुबह-सवेरे गोपाल भाई यानी गोपाल राठी का फोन आ गया। सांडिया मेले में चलना है, तैयार हो जाओ। मैं अपने बेटे के साथ मोटर साइकिल से निकल पड़ा। गोपाल भाई के साथ उनकी पत्नी यानी भाभी जी भी थीं। साथ चले। सड़क पर भारी भीड़। तेज गति से वाहन दौड़ रहे थे।

पिपरिया से सांडिया  की दूरी करीब 20 किलोमीटर है। नर्मदा अमरकंटक से उद्गमित होकर इसी इलाके से होकर गुजरती है। हम कुछ दूर चले होंगे कि हमारे एक मित्र कृष्णमूर्ति मिल गए। वे कृषि वैज्ञानिक हैं। लेकिन उनका यह परिचय अधूरा है। वे इस इलाके की संस्कृति में गहरे रचे-बसे हैं और उसके जानमकार हैं। उन्होंने आल्हा की तर्ज पर एक प्रसिद्ध कृति के सृजन में योगदान दिया है।

गोपाल भाई थोड़ी दूर गाड़ी चलाते फिर रूक जाते। थकते वे नहीं थे लेकिन श्रद्धालुओं की भीड़ देखकर उत्साहित हो रहे थे। उनमें बाल-सुलभ कौतूहल है, जो उन्हें सदैव उत्साह से भर देता है। मेलों का उद्देश्य भी यही रहा है। ग्राम्य जीवन की धीमी गति और जटिलता में हाट-मेलों से नये उत्साह का संचार हो जाता है। जो कई दिनों तक बना रहता था।

सांडिया के रास्ते में मुझे बैलगाड़ी नहीं दिखी लेकिन इसके थोड़ा ऊपर केतोघान के मेले में बैलगाड़ियों का जाम लगा देखा है। मेले के लिए बैलों की साज-सज्जा देखते ही बनती है। उन्हें नहलाना, रंगना और मुछेड़ी ( रंग-बिरंगी रस्सियां बांधना ) बांधना, यह सब मेले की तैयारी का हिस्सा हुआ करते थे। हालांकि उस मेले में गए भी वर्षों हो गए। लेकिन याद ऐसी ताजी है जैसी कल की ही बात हो।

अब हम मेले में पहुंच गए हैं। श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ रही है। स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढे और साधु महात्मा मेले में घूम रहे हैं। रंग-बिरंगी दूकानें लगी हैं। मुझे बच्चों की चीजों ने आकर्षित किया। ढमढमा, बांसुरी, रंगीन पन्नी के चश्मा, कागज की चकरी, रंग-बिरंगे गुब्बारे मन मोह रहे थे। मिठाईयों की दूकानों में जलेबी, मोती-चूर के लड्डू और नमकीन देखकर मुंह में पानी आ रहा था। जगह-जगह भंडारे लगे थे जिनमें श्रद्धालु भोजन कर रहे थे।

नर्मदा मेलों में पहले भोजन का मतलब बाटी और भर्ता हुआ करता था। लेकिन आज अधिकांश भंडारों में पूड़ी-सब्जी और खिचड़ी परोसी जा रही थी। हमने भी यही भोजन किया। हमारे मित्र श्रीगोपाल गांगूडा ने गन्ना खिलाया, जिसे हमने घूम-घूमकर खाया।

लौटते समय नौका विहार का कार्यक्रम बना। हम नाव में सवार हो गए। नर्मदा में पानी बहुत कम था। केंवटों ने कुछ दूर तो नाव को धकेला। फिर चप्पू चलाने लगे। हमारी नजरें दूर-दूर तक फैले तट पर फैल गईं-शांत, और अनुपम छटा बिखेरती  नर्मदा।

कितने ही इसके दर्शन मात्र से तर जाते हैं। डुबकी लगाते हैं। मनोकामना लेकर आते हैं। हम भी उसके स्पर्श मात्र से धन्य हो रहे थे।

करीब एक फर्लांग की दूरी तय की होगी कि केंवट बोल पड़ा- नाव आगे नहीं जाएगी, पानी कम है, रेत में नाव नहीं चलेगी। हमें थोड़ी निराशा हुई। मैंने कुछ लोगों से इस पर बात की तो पता चला कि हर साल पानी कम होते जा रहा है। जगह-जगह टापू भी निकल आए हैं।

लौटते-लौटते सारंगी बजाते सूरदास की धुन मोहित कर गईं। हम खड़े होकर देखते रहे। मिट्टी के खिलौने की दूकान दिखी। बेटे ने तोता, घोड़ा, सिर पर घड़ा रखे पनहारिन, हाथ चक्की आदि खरीदीं। कृष्णमूर्ति ने कहा- वर्षों बाद बहुत मजा आ गया।

रास्ते में मैं सोच रहा था कि नर्मदा घाटी में कई बांध बनाए जा रहे हैं। कोयला बिजलीघर के प्रोजेक्ट आ रहे हैं।  नर्मदा की सहायक नदियां दम तोड़ रही हैं। क्या नर्मदा के बहाव के साथ पल्लवित-पुष्पित हमारी संस्कृति को हम बचा पाएंगे? क्या हमारी आगे आनेवाली पीढ़ियां नर्मदा के सौंदर्य और संस्कृति के दर्शन कर पाएंगे?

Sunday, November 14, 2010

नर्मदा से साक्षात्कार- छोटे धुंआधार में

जब कभी मौका मिलता है नर्मदा चला जाता हूं। इस बार दीवाली के बाद भाई दूज पर नरसिंहपुर बहन के घर गया। वहां से चिनकी घाट के नीचे घूरपुर गांव के पास छोटा धुंआधार गए। साथ में बेटा और भांजा था। वैसे तो नरसिंहपुर से 20-25 किलोमीटर की दूरी है पर पक्की सड़क है पर आगे का रास्ता कठिन है। शेर नदी के कुछ आगे से बाएं की तरफ मुड़ना पड़ता है। खेत हैं और उनके बीच पगडंडी।

अरहर, ज्वार के हरे-भरे खेत मन मोह रहे थे। अरहर के खेत के बीच से मोटर साइकिल जाते हुए ऐसा लग रहा था जैसे हम किसी गुफा में प्रवेश कर रहे हैं। अरहर के उंचे पौधे पीले फूलों और फल्लियों से लगे थे। उनके बीच से गुजरते हम उनसे टकरा रहे थे या कहें उनके स्पर्श से रोमांच से भर रहे थे। बेटा बहुत हथेलियों से उन्हें स्पर्श कर उछल-उछल पड़ रहा था। भांजा गाड़ी चला रहा था। और में ऐसे खेतों को देखकर धन्य हो रहा था। क्योंकि खेतों में ही असली उत्पादन होता है। एक बीज लगाओ और सैकड़ों बीज होते हैं। यह नर्मदा कछार का इलाका अरहर के लिए प्रसिद्ध है।

आगे बढ़े तो अरहर के साथ ज्वार के भुटटे दानों से लदे लटक रहे थे। ये दाने मोतियों जैसे चमक रहे थे। चिड़िया दाना चुगने के लिए इधर-उधर फुदक रही थी। हालांकि यहां की खेती असिंचित है, पर मिट्टी बहुत उपजाऊ है। कुछ खेतों में बोउनी की तैयारी की जा रही थी। जबकि कुछ खेतों में किसान चना वगैरह की बोउनी कर रहे थे।

अब हम पूछते-पाछते छोटे धुंआधार पहुंच चुके थे। सुबह के करीब 10 बजे होंगे। छोटी हरी-भरी पहाड़ी और बड़ी नीली चट्टानें। देखते ही हम उछल पड़े। बहुत मजा आ गया। चट्टानों और नुकेले पत्थरों के बीच नर्मदा वेग से उछलती-कूदती बह रही हैं। चट्टानों से नर्मदा मचलती-खेलती आगे बढ रही है। घूरपुर घाट पर नर्मदा तट चौड़ा है जो यहां आकर बहुत संकरा हो गया है। यहां नर्मदा की एक अनुपम छटा और सौंदर्य है। जैसे वह शांत वातावरण और एकांत में अपने ही अंदाज में मचल रही हो।

जबलपुर के पास भेडाघाट धुआंधार में जहां ऊपर से खांई मे गेंद की भांति टप्पा खाकर गिरती है और उछलती है। जबकि यहां विशाल तट से एकदम संकरी होती हुई चट्टानों के बीच तेज गति मचलती आगे बढ़ती हैं। सौंदर्य ऐसा बिखेरती है कि देखते ही बनता है। मेरे बेटे ने कई फोटो लिए। चूंकि उसकी चित्रकारी और फोटोग्राफी विशेष रूचि है, इसलिए वह कभी इस चट्टान पर कभी उस चट्टान पर चढ़कर अलग-अलग ढंग से नर्मदा के रूप कैमरे में कैद कर रहा था।

मैं नर्मदा को एकटक निहारता रहा। नर्मदा को कई जगह कई रूपों में देख चुका हूं। जबलपुर का ग्वारी घाट, भेड़ाघाट, बरमान, केतोघान, सांडिया, महेश्वर, ओंकारेश्वर और खलघाट जैसे कई स्थानों में नर्मदा के दर्शन किए हैं। नर्मदा एक नदी का नाम नहीं है जो अमरकंटक से निकलकर अरब सागर में मिलती है। बल्कि वह नर्मदा किनारे के लोगों के लिए जीवन है। प्रेरणा स्त्रोत है। इसके बहाव के साथ-साथ ही संस्कृति और सभ्यता पल्लवित और पुष्पित हुई है। मेखल पर्वत से उद्गमित होकर यह नाचती-गाती, चमकती छलांग लगाती हुई आगे बढ़ती है। नर्मदा किनारे के लोग अपने जीवन में नर्मदा के पास अपनी कामना लेकर आते हैं। वह जीवनदायिनी है।

अब लौटने का समय हो गया है। घूरपुर घाट पर स्नान किया। यहां कुछ महिलाएं और बच्चे स्नान कर रहे हैं। मछुआरे जाल डालकर बैठे हैं। मैं सोच रहा था क्या भविष्य हम नर्मदा के इस सौंदर्य को बचा पाएंगे। हमने इस पर पहले ही बड़े-बड़े बांध बना लिए है। स्वाभाविक प्रवाह को रोक दिया है। अब नर्मदा के किनारे कोयला बिजलीघर बनाने की योजनाएं आ रही हैं।

Saturday, November 6, 2010

सतपुड़ा में युवाओं की एक सार्थक पहल

सुबह का समय है। पिपरिया एकलव्य में दरी पर करीब 40 लड़के-लड़कियां बैठे हैं। वे किसी साहित्यक गोश्ठी या किसी वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिए यहां नहीं आए हैं। बल्कि उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ अर्जित किया हैं, उसे साझा करने और नई पीढ़ी को देने के लिए एकत्रित हुए हैं। वे बारी-बारी से अपनी-अपनी बात कह रहे हैं। बातचीत  हिन्दी-अंग्रेजी के मिले-जुले संवाद में चल रही है। यह आयोजन था पिपरिया सृजन का, जो पिछले 5 वर्षो से दीवाली मिलन के अवसर पर होता है।

पिपरिया सृजन एक अनौपचारिक समूह है जिसमें मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक छोटे कस्बे पिपरिया से निकले युवा हैं, जो या तो अपनी आगे की पढ़ाई कर रहे हैं या फिर कहीं जॉब कर रहे हैं। ये युवा आपस में इंटरनेट के माध्यम से संपर्क में रहते हैं। पिपरिया सृजन का गूगल ग्रुप्स में भी एक एकाउंट है।

पिपरिया सृजन की शुरुआत उन युवाओं से हुई है जो एकलव्य पुस्तकालय के नियमित पाठक रहे हैं। और वे आज देश-विदेश में अध्ययनरत हैं या रोजगार में लगे हैं। पुस्तकालय से उनका लगाव एवं संपर्क लगातार बना हुआ है। पिपरिया सृजन इसी का परिणाम है। एकलव्य पुस्तकालय इस समूह का संपर्क एवं समन्वय केन्द्र है। इसमे शुरुआत से लेकर अब तक प्रमुख भूमिका गोपाल राठी एवं कमलेश भार्गव की रही है जो इसके संस्थापकों में से एक हैं।  

सतपुड़ा अंचल का यह कस्बा भोपाल से जबलपुर रेलमार्ग पर स्थित है। पिपरिया से 54 किलोमीटर दूर सतपुड़ा की रानी पचमढ़ी है, जो एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। सतपुड़ा की सबसे उंची चोटी धूपगढ़ भी यहीं है। इस इलाके से नर्मदा नदी भी गुजरती है।

पिपरिया सृजन की सोच यह है कि हम अपने कस्बे और इलाके की नयी पीढ़ी की मदद करे। चाहे वह कैरियर गाइडेंस के रूप में हो या उनके समग्र व्यक्तित्व में सहायक जानकारी हो। किसी भी तरह अपने छोटे भाई-बहनों और साथियों की मदद करने की सच है। चूंकि दीवाली पर सब लोग अपने घर और रिश्तेदारों से मिलने आते हैं इसलिए यह बैठक दीवाली के अगले दिन ही होती है।

इस बैठक में मुंबई से प्रेरणा परसाई आई हैं। वहां वह कंपनी में सॉफटवेयर इंजीनियर है। हालांकि उनका जन्म भोपाल में हुआ है लेकिन उनके पिता पिपरिया के हैं। उनके दादाजी पिपरिया में ही रहते हैं। गुजरात से मनीष आए हैं, वे वहां केमिस्ट के पद पर कार्यरत है। हैदराबाद से आदित्य दुबे शामिल हुए, जो पिपरिया सृजन के सक्रिय कार्यकर्ता हैं। प्रवीण चौकसे भोपाल से पधारे हैं जिनका पिपरिया आना-जाना होता रहता है। इसके अलावा अनिकेत, अमित,चन्द्रप्रकाश और रूबी शुक्ला सक्रिय हैं। डॉ. कल्पना चौधरी, अतुल पटेल, अजय पटेल, अमित शर्मा, प्रशांत मिश्रा, श्रीगोपाल मिश्रा, महेन्द्र साहू, हर्षवर्धन बल्दुआ, शांतनु सोनी, दीपक रजक, श्रवण राय, योगेश चौरसिया, श्याम मालानी, सचिन परसाई आदि युवाओं की सक्रिय पहल रही है।

इन सभी के मन में स्कूली और महाविद्यालयीन छात्रों के लिए कुछ न कुछ करने की तमन्ना है। साथ ही ऐसे छात्रों के लिए भी मदद करने की रूचि है, जो आज हाशिये पर हैं।

आजकल षिक्षा का मकसद पैसा कमाना हो गया है। बच्चे कैरियर के बारे में सोचते हैं लेकिन इस व्यवस्था में कैरियर बनाना मुष्किल है। हमारे युवाओं की सारी ष्षक्ति इसमें ही लग जाती है। कैरियर के चक्कर कांशियस (चेतना) भी खत्म हो जाती है। कैरियर कुछ का बनता है। कई इस दौड़ से बाहर हो जाते हैं।

फिलट्रेट शिक्षा व्यवस्था सबको सब कुछ नहीं दे सकती है। इसमें कुछ का भाग्य चमक सकता है। हमें शिक्षा के सही मायने समझने होंगे। शिक्षा से दिमाग रोशन होता है। एक अच्छा इंसान बनता है। इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। बहरहाल, इन युवाओं की बात सुनकर मेरा दिल उछल रहा था। सोच रहा था। अगर यह कोशिश कामयाब होती है तो बहुत उपयोगी होगी। इस सार्थक प्रयास के लिए बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

Saturday, October 23, 2010

क्या कसूर है जो उसे टी. बी. हुई?


''कभू-कभू अइसे लगत है कि अब नई बचहूं। पीरा के मारे चल नइ सकव। बइठे मं घलो पीरा होथे । रात-रात भर नींद नइ परत हे। एक महीना ले दवा खात हों, तभो ले पीरा नइ माड़त हे। ''  यह कहना है कलाबाई बैगा का। वह स्पाइन (रीढ  की हड्‌डी) टी.बी. की मरीज है। इन दिनों वह अपने मां-बाप के घर औरापानी में हैं। ससुराल कुरदर गांव में उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है।

छत्तीसगढ में बिलासपुर जिले की कोटा तहसील का एक पहाडी गांव है औरापानी। कोटा से आगे सेमरिया तक पक्की सडक है और फिर 3-4 किलोमीटर कच्ची सडक। उस पर हाल ही में मिट्‌टी डाली गई है। जिस दिन हम वहां गए उस दिन सुबह हल्की बारिश हुई थी। इस कारण गाडी के चक्कों में मिट्‌टी चिपक रही थी और गाडी चलाना मुशिकल हो रहा था। 

गांव में घुसते ही पहला घर कलाबाई के मां-बाप का है। कलाबाई से यह मेरी दूसरी मुलाकात थी। दो दिन पहले वह अपने पति के साथ गनियारी जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र में जांच कराने के लिए आई थी लेकिन उस समय उसे रीढ  की हड्‌डी और पेट में असहनीय दर्द था। उससे बात करना मुशिकल हो रहा था। वह बैठ भी नहीं पा रही थी। 

कलाबाई की उम्र  22 वर्ष है। वजन करीब 35 किलो। वह 8 वीं तक पढी है। उसकी दो लडकिया हैं, एक है महेश्वरी (2 साल) और रीतू (4 माह)। बीमारी से पहले वह सभी तरह के काम कर सकती थी। घर के काम से लेकर बाहर मजदूरी करने जाती थी। उसके पति के मां-बाप नहीं होने के कारण घर में कोई दूसरा सहारा नहीं है। 

अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए उसे और पति को काम करना पडता था। वे दोनों मिलकर मानसून के मौसम में मिलकर 100-150 रू कमा लेते थे। लेकिन अब कलाबाई स्पाइन टी.बी. (टयूबर क्लोसिस) से पीडित है। हालांकि गांव में उसके परिवार के लोग कहते हैं कि उसे कोई बीमारी नहीं है। वह नाटक कर रही है।

टी़ बी. दो प्रकार की होती है। एक पल्मोनरी टी बी यानी फेफडे की और दूसरी नॉन पल्मोनरी टी. बी.। यानी शरीर के अन्य भागों में पायी जाने वाली टी. बी. जैसे त्वचा, पेट के हिस्से में, दिमाग व हडि्‌डयों में पायी जाने वाली टी. बी.। सबसे ज्यादा संक्रामक फेफडे वाली टी.बी. होती है। इसमें रोगी छींकता है या खांसता है, उसके माध्यम से टी. बी. का कीटाणु माइको बैक्टीरिया ट्‌यूबर क्लोसिस हवा में छोडता है। जिससे पास में बैठा व्यक्ति जैसे ही सांस लेता है, वह शरीर में प्रवेश कर जाता है।

जन स्वास्थ्य सहयोग के  प्रमुख डॉ. योगेश जैन का कहना है कि हमारे देश में 14 वर्ष की उम्र तक 70 प्रतिशत लोगों में टी.बी. का बैक्टीरिया प्रवेश कर जाते हैं। पर जरूरी नहीं है कि सब लोग टी.बी. की बीमारी से पीडित हों। इससे गरीब ही ज्यादा बीमार होते हैं। क्योंकि उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। कुपोषण होता है। कलाबाई भी उसी से पीडित है। उनका कहना है कि अगर कलाबाई के कुपोषित  शरीर पर 4 माह पहले बच्चे पैदा करने का बोझ न पडता तो वह टी. बी. की शिकार न होती।  

चिकित्सक टी. बी. होने का एक कारण कुपोषण को मानते हैं। इस इलाके में लोगों के भोजन में भात (चावल) प्रमुख होता है लेकिन उसके साथ दाल नहीं होती। जन स्वास्थ्य सहयोग के द्वारा 400 परिवारों में किए जा रहे अध्ययन के अनुसार  सिर्फ 16 प्रतिशत परिवार ही ऐसे हैं, जो सप्ताह भर दाल का स्वाद चख सकते है। 20 प्रतिशत परिवार सप्ताह में एक बार ही दाल जुटा पाते हैं। जबकि 9 प्रतिशत परिवारों को भात के साथ आलू, भाजी और खट्‌टा खाना पडता है।  यह माना जा चुका है कि कुपोषण के साथ गरीबी का गहरा संबंध है। भारत में प्रोटीन संबंधी कुपोषण है। इस अध्ययन में आधे परिवार 200 टीबी से पीडित थे। यह अध्ययन अभी जारी है। 
भारत में दालों की उपलब्धता भी कम होती जा रही है। ऐसा सांखयकीय आंकडे  भी बताते हैं। 1951 में देश में एक औसत व्यक्ति को खाने एक दिन में खाने के लिए 60.7 ग्राम दाल उपलब्ध थी जो 2007 में घटकर 35.5 ग्राम रह गई है। गरीबों में दाल की उपलब्धता कम है, यह उपयुक्त अध्ययन बताता है।

गांव में लोग भात (चावल) के सब्जी खाते हैं। अधिकांश सब्जी में आलू होता है। गरीब होने के कारण फल, अंडे या मांस भी उनके भोजन में नहीं होता। कलाबाई कहती है कि जब पैसा ही नइ हे, तो अंडा से कहां से लावो,।  

हालांकि वह इलाज के लिए देर से पहुंची। पहले वह बैगाई (झाड़-फूंक) करवाती रही। झोला छाप डॉक्टर (फर्जी डॉक्टर) से इलाज करवाती रही। जब पूरी तरह लाचार हो गई। खटिया पर पड  गई तब जन स्वास्थ्य सहयोग गनियारी पहुंची। अब गनियारी अस्पताल में  उसका इलाज पिछले 2 माह से चल रहा है।

चूंकि दवा का असर धीरे-धीरे होता है। इसलिए एक तो कलाबाई को अब तक दर्द से राहत नहीं मिल पाई है। उसे दोनों पैरों में दर्द होता है। वह चल नहीं पाती है। देर तक बैठ भी नहीं सकती। ज्यादा देर बैठे रहने में सांस लेने में दिक्कत होती है।  खडे होने से ही थोडी राहत मिलती है लेकिन ज्यादा देर खडे भी नहीं रह सकती। वह कहती है कि हडडी कोमल होवउ नइ करे, लकडी कस कडकत हे।

चिकित्सकों का कहना है कि टी.बी. मरीज को स्वस्थ होने के लिए पोषण की स्थिति ठीक होनी चाहिए। साथ ही परिवार और समाज का भी सहयोगात्मक रवैया होना चाहिए। मरीज को बहुत ज्यादा मानसिक परेशानी होगी तो उसकी हालत में सुधार जल्द नहीं हो पाएगा। कलाबाई को अपने बच्चों व अपने भविष्य के बारे में गहरी चिंता है। कभी-कभी उसका पति दूसरी शादी की बात भी करता है। 

कुल मिलाकर, बीमारी से वह तो खुद परेशान है ही, घर की माली हालत भी बिगडती जा रही है। पहले वह घर का, खेती-किसानी का, जंगल से तेंदूपत्ता तोडना, महुआ लाना आदि सब काम करती थी। वह बांस के बर्तन बनाती थी।  बैगा जनजाति के ये लोग बांस के बर्तन बनाते हैं। 

कलाबाई भी झउआ (टोकनी), खरेटा (बडी झाडू,) सूपा, पंखा, खुमरी (छातानुमा बांस से बनाई जाती है) आदि बनाती थी और इन्हें बेचकर जो पैसा मिलता था उससे घर का खर्च चलता था। बीमार होने के बाद वह यह काम नहीं कर सकती। सब काम छूट गया है। एक तो अब कोई कमाई का स्त्रोत भी नहीं है। दूसरी इलाज और जांच के लिए गनियारी और बिलासपुर आने-जाने में खर्च भी होता है। एम आर आई की जांच के कराने के लिए उसे दो-तीन बार बिलासपुर भेजा गया। पर वहां की मशीन खराब है।

इस कारण उसे यह चिंता खाए जा रही है कि आखिर वह ठीक होगी या नहीं? बच्चों का आगे क्या होगा? उसे क्या बीमारी है, इसके बारे में उसे ठीक से मालूम नहीं है। दूसरी तरफ पति तेजूराम भी पूरी तरह उसके साथ नहीं है। कभी-कभार वह शराब पीकर उसके साथ गाली-गलौच करता है। पूरी देखभाल की जिम्मेदारी कलाबाई के मां-बाप पर आ गई है। जबकि वे भी यह सोचकर परेशान है कि आखिर कलाबाई कब तक ठीक होगी ?

टी बी मरीजों के उपचार में लगे चिकित्सकों का मानना है कि कलाबाई पूरी तरह स्वस्थ हो जाएगी। बशर्ते ये कि टी.बी. की दवा पूरी अवधि 9 माह तक नियमित ले। उसे धीरज रखना चाहिए और दवा लेते रहना चाहिए। मैं कला के घर से लौटते समय सोच रहा था कि बैगा आदिम जनजाति है। कलाबाई भी बैगा है। छत्तीसगढ  सरकार ने बैगा विकास प्राधिकरण भी बनाया है। उसका बडा बजट है। क्या कलाबाई जैसे जरूरतमंद मरीजों को उससे मदद नहीं मिल सकती? बैगाओं के जीवन स्तर को सुधारा नहीं जा सकता? उनकी पोषण की स्थिति को नहीं सुधारा जा सकता? 

कलाबाई की दोनों बेटियों को कभी इस स्थिति से न गुजरने पडे, क्या यह सुनिशचत हो सकता है? जन स्वास्थ्य सहयोग के एक चिकित्सक की टिप्पणी अविस्मरणीय है कि आखिर कलाबाई का क्या कसूर है, जो उसे टी बी हुई। क्या उसका गरीब होना तो नहीं? उन्होंने कहा टी. बी. कीटाणुओं से बढकर गरीबी की बीमारी है।

Tuesday, September 7, 2010

दम तोड़ रही हैं सतपुडा की नदियां

आमतौर पर जब कभी नदियों पर बात होती है तो ज्यादातर वह बड़ी नदियों पर केंद्रित होती है। लेकिन इन सदानीरा नदियों का पेट भरने वाली छोटी नदियों पर हमारा ध्यान नहीं जाता, जो आज अभूतपूर्व संकट से गुजर रही हैं। अगर हम नजर डालें तो पाएंगे कि कई छोटी-बडी नदियां या तो सूख चुकी हैं या फिर बरसाती नाले बनकर रह गई हैं। गांव-समाज के बीच से तालाब, कुंए और बाबडी जैसे परंपरागत पानी के स्रोत तो पहले से ही खत्म हो गए हैं। अब इन छोटी नदियों पर आए संकट से बडी नदियां तो प्रभावित हो ही रही हैं। जनजीवन के साथ पशु-पक्षी और वन्य- जीवों को भी परेशानी का सामना करना पड  रहा है।

देश-दुनिया में नदियों के किनारे ही सभ्यताएं पल्लवित-पुष्पित हुई है। जहां जल है, वहां जीवन है। लेकिन आज नदियां धीरे-धीरे दम तोड  रही हैं। नदियों का प्रवाह अवरूद्ध  हो रहा है। वर्षों पुरानी नदी संस्कृति खत्म रही है। उनमें पानी नहीं हैं,  पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखने वाली रेत नहीं है। सतपुडा अंचल की बारहमासी सदानीरा नदियां या तो सूख गई है या बारिश में ही  उनकी जलधारा प्रवाहित होती हैं, फिर टूट जाती है। उनके किनारे लगे हरे-भरे पेड  और उन पर रहने वाले पक्षी भी अब नजर नहीं आते। यानी पानी बिना सब सून।

मध्यप्रदेश में सतपुड़ा पहाड  और जंगल कई छोटे-बडे नदी-नालों का उद्‌गम स्थल है। पहाड  और जंगलों में पेड  पानी को जडों में संचित करके रखते हैं और  धीरे-धीरे वह पानी रिसकर नदियों में जलधाराओं के रूप में प्रवाहित होता है। और एक्वीफर के माध्यम से संचित पानी भूजल में संग्रहीत होता है।

जंगल कम हो रहे हैं। कुछ वर्षों से बारिश कम हो रही है या खन्ड बारिश हो रही है । बार-बार सूखा पड रहा है। इसके अलावा, नदियों के तट पर बडी तादाद में ट्‌यूबवेल खनन किए जा रहे हैं। डीजल पंप से सीधे पानी को खेतों में लिफट करके सिंचाई की जा रही है। स्टापडेम बनाकर पानी को उपर ही रोक लिया जाता है, जिससे जलधारा आगे नहीं बढ  पाती। उद्योगीकरण और शहरीकरण बढ  रहा है। ज्यादा पानी वाली फसलें लगाई जा रही हैं। बेहिसाब पानी इस्तेमाल किया जा रहा है।

सतपुडा की दुधी, मछवासा, आंजन, ओल, पलकमती और कोरनी जैसी नदियां धीरे-धीरे दम तोड  रही हैं। देनवा में अभी पानी नजर आता है लेकिन उसमें भी साल दर साल पानी कम होता जा रहा है। तवा और देनवा में भी पानी कम है। अमरकंटक से निकलकर इस इलाके से गुजरने वाली सबसे बडी नर्मदा भी इसी इलाके से गुजरती है। इनमें से ज्यादातर नदियां नर्मदा में मिलती हैं। इनके सूखने से नर्मदा भी प्रभावित हो रही है।

अगर हम मध्यप्रदेद्गा के पूर्वी छोर पर होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले विभक्त करने वाली दुधी नदी की बात करें, तो नदियों के संकट को समझा जा सकता है। यह नदी कुछ वर्ष पहले तक एक बारहमासी सदानीरा नदी थी। दुधी यानी दूध के समान। साफ और स्वच्छ। छिंदवाड़ा जिले में महादेव की पहाडियों से पातालकोट से दुधी निकलती है और सांडिया से ऊपर खैरा नामक स्थान में नर्मदा में आकर मिलती है। यह नर्मदा की सहायक नदी है। पर आज दुधी में एक बूंद भी पानी नहीं ढूंढने से नहीं मिलता। बारिश के दिनों में ही पानी रहता है और अप्रैल-मई माह तक आते-आते पानी की धार टूट जाती है और रेत ही रेत नजर आती है।

 जहां कभी पानी होने के कारण नदी में जनजीवन की चहल-पहल होती थी, पशु-पक्षी पानी पीते थे। बरौआ- कहार समुदाय के लोग इसकी रेत में डंगरवारी तरबूज-खरबूज की खेती करते थे। धोबी कपडे धोते थे, मछुआरे मछली पकड ते थे, केंवट समुदाय के लोग जूट के रेशों से रस्सी बनाते थे। वहां अब सन्नाटा पसरा रहता है। नदी संस्कृति खत्म हो गई है। अब लोग नदी के स्थान पर हैंडपंप और ट्‌यूबवेल पर आश्रित हो गए हैं, जिनकी अपनी सीमाएं हैं।

इसी जिले के पिपरिया कस्बे से गुजरने वाली मछवासा नदी भी सूख चुकी है। सोहागपुर की पलकमती कचरे से पट गई है। इन नदियों में जो पानी दिखता है, वह नदियों का नहीं, शहरों की गंदी नालियों का है। पलकमती से ही पूरे सोहागपुर का निस्तार होता था। सोहागपुर का रंगाई उद्योग और पानी की खेती दूर-दूर तक मशहूर थे। अब यह खेती अपनी अंतिम सांसें गिन रही है।


तवा और नर्मदा पर बांध बनाए गए हैं। उनसे सैकडों गांव विस्थापित हुए। जबसे बरगी बांध बना है तबसे तरबूज-खरबूज की खेती चौपट हो गई है। बरगी बांध १९९० में बन गया लेकिन उसकी नहरें आज तक नहीं बनी। इसलिए बांध में ज्यादा पानी रहता है तो छोड  दिया जाता है जिससे डंगरवारी बह जाती है। नर्मदा बांध बनने से उसमें मछलियां भी कम हो गई है।

हालांकि नर्मदा उसकी कई सहायक नदियों के सूखने के कारण वह बहुत कमजोर हो गई है। लेकिन हम इस सबसे नहीं चेत रहे हैं और पानी का बेहिसाब इस्तेमाल से पानी के स्रोतों को ही खत्म कर रहे है, जो शायद फिर पुनर्जीवित न हो सकें। अगर हमें बड़ी नदियों को बचाना है तो छोटी नदियों पर ध्यान देना होगा। छोटी नदियों का संरक्षण जरूरी है। अगर हम इन पर छोटे-छोटे स्टापडेम बनाकर जल संग्रह करें तो नदियां भी बचेंगी और खेती में भी सुधार संभव है।

Wednesday, May 12, 2010

मीडिया शिक्षा का अभिनव प्रयोग

दिव्या, जानकी, दीक्षा, मनीषा,रामकुमार, गोविंद आदि स्कूली बच्चे हाथ में पेन-कापीलिए साक्षात्कार ले रहे थे। डापका गांव के पूर्व सरपंच लक्ष्मण प्रसाद मेहरा और कोरकू  रानी रेवाबाई अपने ही गांव के बच्चों को नई भूमिका में देखकर भाव विह्वल हो गईं। बच्चे सवाल पर सवाल किए जा रहे थे और गांव के लोग उन्हें सुखद आश्चर्य से देख रहे थे। यहां चाहे घरों में काम करती महिलाएं हों या खेत जाने वाले किसान,  दूकान पर बैठे दुकानदार हों या स्कूल के शिक्षक सबसे बच्चों ने सबके साक्षात्कार लिए।  अलग-अलग टोलियों में विभक्त बच्चे पेशेवर पत्रकारों की तरह चर्चा कर रहे थे।

यह दृश्य था मध्यप्रदेश में होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखंड के एक छोटे से गांव डापका का। यह गांव सतपुड़ा की घाटी की गोद में बसा है। यहां आदिवासी ज्यादा हैं। पिपरिया विकासखंड मुखयालय से यहां की दूरी लगभग १५ किलोमीटर है। यहां के बच्चे अखबार से ज्यादा परिचित नहीं हैं और न ही टेलीविजन पर समाचार सुनते हैं। गांव के लोगों की माली हालत अच्छी नहीं है। खेती-किसानी के अलावा वनोपज और जंगल से निस्तार होता है। कुछ लोग हम्माली के काम के लिए पिपरिया आते हैं।

इस गांव में हमने शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत एकलव्य संस्था के सहयोग से मीडिया कार्यशाला का आयोजन किया । स्कूली बच्चों के साथ मीडिया कार्यशाला का यह मेरा पहला प्रयोग था। इसके पहले मैं ग्रामीण पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ ऐसी कार्यशाला कर चुका हूं। कार्यशाला में माध्यमिक स्तर के ३५ बच्चे शामिल थे। यह कार्यशाला ७ मई से १० मई तक चली।

इस दौरान पहले दो दिनों में मीडिया के विभिन्न माध्यमों का बच्चों पर क्या असर होता है, खबर कैसे बनती है और उन्हें कैसे लिखा जाता है, इस पर चर्चा की गई।  संपादक के नाम पत्र और साक्षात्कार के लिए क्या-क्या तैयारी चाहिए, इस पर प्रकाश डाला गया और इसके अभ्यास किए गए। तीसरे दिन गांव का दौरा किया।   ग्रामीणों से कई मुद्‌दों पर बच्चों ने बातचीत की। जिसमें बिजली कटौती, पीने के पानी की समस्या, फसल की रखवाली, नरवाई (हारवेस्टर की कटाई के बाद गेहूं के ठंडलों में आग लगाई जाती है) से नुकसान, गांव का विकास कैसा होना चाहिए आदि मुद्‌दे शामिल थे। चौथे और अंतिम दिन इन मुद्‌दों पर चमत्कार, नजर, पहल, कोयल, हाथी, कबूतर, सोनपरी आदि दीवार अखबार तैयार किए गए।

बिजली कटौती से आटाचक्की नहीं चलती और आटा पिसाई नहीं हो पाती, यह बात समझी जा सकती है। लेकिन पड़ोसी के घर से आटा मांगकर रोटी बनाई जाती है, यह बहुत कम लोग जानते हैं। हमारे साथ आए कुछ शहरी मित्रों को यह जानकारी भी नई थी कि फसल को कैसे सुअरों से नुकसान होता है।  जबकि जंगल क्षेत्र में यह समस्या आम और विकट है। जंगली जानवर और खासतौर से सुअर उनकी गेहूं- चना की फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। इन सभी समस्याओं पर बच्चों ने न केवल इन पर समाचार बनाएं बल्कि सुअर की नकल उतार कर भी बताई। जिस दिन से यहां खेतों में गेहूं-चना का बीज बोया जाता है उसी दिन से रखवाली करनी पडती है। खेत में डेरा डालकर रहना पडता है। अन्यथा जंगली जानवर सुअर, हिरण आदि उनकी फसलों को चौपट कर देते हैं। यह वैसा ही है कि नजर हटी कि दुर्घटना घटी।


स्कूली बच्चों को मीडिया शिक्षा की जरूरत महसूस की जाती रही है।  मीडिया का उन पर कई तरह से असर देखा जा सकता है। नकारात्मक असर की  खबरें आती रहती हैं। उन पर सिनेमा, टेलीविजन, रेडिया और समाचार पत्रों का असर देखा जाता है। जिनमें से आक्रामक हिंसा, नकल, फैशान और उपभोक्ता संस्कृति की ओर रूझान प्रमुख है। लेकिन मीडिया का सकारात्मक असर भी हो सकता है। शॆक्षणिक और सृजनात्मक असर भी हो सकता है, इस पर कम ही ध्यान दिया जाता है। अपने अनुभव और अवलोकन को शब्दों में कैसे अभिव्यक्त कर सकते हैं यह कार्यशाला का एक उद्‌देशय था। एकलव्य के जुडे चंदन यादव ने लेखन को चित्र और कार्टून से जोड कर बच्चों को बताया। एकलव्य पिपरिया के गोपाल राठी, कमलेशा भार्गव और राकेशा कारपेंटर ने पूरी कार्यशाला का संयोजन किया और भोपाल से आईं दीपाली ने उपयोगी सुझाव दिए।

आम तौर पर मीडिया वन-वे दिखाई देता है। वह खबरें या कार्यक्रम देता है और हम उसे देखते हैं। चाहे फिल्मों हो, टेलीविजन हो, रेडियो हो और समाचार पत्र. हों, ये सभी माध्यम वन-वे ही हैं। इनमें दर्शाकों की भूमिका सिर्फ दर्शक तक है। जबकि चाहे मनोरंजन की बात हो या संवाद की, इनमें भागीदारी बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती थी। लेकिन बच्चों में यह दृ्‌ष्टि विकसित करना कि वे खबर के पीछे की खबर को जान सकें। उन पर बात कर सकें और उनमें आलोचनात्मक और विशलेषणात्मक क्षमता विकसित की जा सके। वे मीडिया की बारीकियां समझ सकें और उनमें लेखन कौशाल विकसित हो सके।

कार्यशाला में यह कोशिश की गई कि बच्चों से संवाद बनाया जाए और वे भी इस पूरी प्रक्रिया में शामिल हों और हम बहुत हद इसमें सफल भी हुए। आखिरी दिन यह कोशिश सफल हुई जब उन्होंने खुद अपनी-अपनी टोलियों में दीवार अखबार तैयार किए। अखबार के नाम रखने से लेकर संपादन तक की भूमिका उन्होंने निभाई। वे अपने-अपने काम में इतने मनोयोग और तन्मयता से लगे थे, उन्हें देखते ही बनता था। मैं यह सोच रहा था कि ऐसा माहौल स्कूलों में क्यों  नहीं बन सकता?

Thursday, April 15, 2010

बुनकरों की रोजी-रोटी का संकट

''मैंने हथकरघे पर कपड़ा बनाने का काम पिताजी से बचपन में सीखा और थोडा-बहुत अब भी करता हूं। लेकिन अब यह काम धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर है। इस बस्ती में पहले हर घर में हथकरघा (हैंडलूम) चलता था, अब सिर्फ एक-दो घरों में चलता है। हथकरघे बंद पडे हैं और उनमें धूल जमी हैं। लोग रोजगार की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं।'' यह कहना है मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर के एक बुनकर महेन्द्र कोस्टी का।

नरसिंहपुर जिला मुख्यालय है। यहां कोस्टी समुदाय के बुनकरों की बस्ती है। इस बस्ती में 20-25 परिवार हैं। अब यहां हथकरघों की खट-पट सुनाई नहीं पड ती है। कुछ समय पहले करतल ध्वनि की तरह आवाज गूंजा करती थी। गली-मोहल्लों में चहल-पहल होती थी। पुरुष हथकरघे पर बैठते थे और महिलाएं चरखा पर सूत की बाविन बनाती थी॥ जब बडे -बुजुर्ग काम से थोडा थक जाते थे तब बच्चे भी सीखने के लिहाज से हाथ आजमाया करते थे। जैसे बीस बरस पहले कैलाश ने अपने पिता के साथ करघा सीखा था। लेकिन आज वह फेरी लगाकर कपडा बेचता है क्योंकि करघा अब बंद हैं।

महेन्द्र कोस्टी कहते है कि यह घर बैठे का काम है और इसे करने में उन्हें बडा संतोष का अनुभव होता है। हाथ से होने वाली कताई-बुनाई हुनर व कौशल की मांग करती हैं, जिसमें वे दक्ष हैं। एक दिन में करीब 4-5 रजाईयों का कपडा तैयार कर लेते थे। लेकिन अब खाली हाथ हैं, काम नहीं है। सिर्फ ठंड के मौसम में करघे चलते हैं।

वे बताते है कि अब सूत महंगा हो गया। उसे जबलपुर और नागपुर से मंगाते है। और मशीनीकरण होने के कारण उनकी बुनी हुई रजाईयों की मांग कम हो गई। नई-नई डिजाईन का भी जमाना है। पावरलूम के कपड़ों से हम स्पर्धा नहीं कर सकते। इसलिए हमारी सरकार को मदद करनी चाहिए। हाल ही उन्होंने रेशम विभाग की मदद से साडियों बनाने का काम शुरू किया है, लेकिन उसमें भी सिर्फ मजदूरी ही मिलती है। अब नरसिंहपुर की तरह सिवनी, मंडला, छिंदवाडा, लोधीखेडा, सौसर आदि कई जगहों के बुनकरों की रोजगार की समस्या पैदा हो गई है।

यह काम स्वावलंबी हो सके, पूरी तरह बुनकरों के हाथ में हो, इसलिए सूत के लिए मिलों पर निर्भरता नहीं होनी चाहिए, यह गांधी जी की भी सोच थी। उन्होने यह समझ लिया था हाथ की बुनाई की आर्थिक सफलता के लिए जरूरी है कि कताई भी हाथ से ही हो।

हमने नगद फसलों से प्रेरित होकर खेती में फसलचक्र को बदल लिया है। अब स्थानीय स्तर पर कपास उपलब्ध नहीं है। हालांकि यहां के आसपास की जमीन नर्मदा कछार होने के कारण बहुत ही उपजाऊ है, जिसमें कपास की खेती संभव है। इसलिए बुनकरों को अब सूत सस्ते में उपलब्ध हो सके, यह प्रयास करना चाहिए। अन्यथा सूत महंगा होने मात्र से बुनकरों की कमर टूट जाती है। यद्यपि यहां सहकारिता का पुराना अनुभव ठीक नहीं है। लेकिन वह भी एक अच्छा विकल्प हो सकता है।

हमारे देश में खेती के अलावा छोटे-छोटे परंपरागत ग्रामो द्योग व लघु कुटीर उद्योग धंधे हुआ करते थे जिनसे लोगों को रोजगार मिलता था। इन काम-धंधों का खत्म करने का सिलसिला अंग्रेजों के जमाने से ही शुरू हो गया था, जो अब भी जारी है। उन्होंने हमारे किसानों व बुनकरों की कमर तोड ने के बहुत प्रयास किए। आजादी के बाद हमने बडे-बडे उद्योग लगाने पर जोर दिया और उन्हें बढावा देने के लिए सब्सिडी भी दी गई। उन्हें आधुनिक भारत के मंदिर कहा गया। लेकिन छोटे घरेलू उद्योगों पर ध्यान नहीं दिया गया बल्कि उनकी उपेक्षा की और खत्म होने के लिए छोड दिया जिससे बेरोजगारी बढती चली जा रही है।

अर्थशास्त्री और समाजवादी विचारक श्री सुनील कहते है कि केवल खेती से ही देश के लोगों की जीविका नहीं चल सकती। खेती के पूरक के रूप में छोटे-मोटे काम धंधे भी जरूरी है। लेकिन हमने औद्योगिकीकरण के चलते बड़े उद्योगों को बढावा दिया है और छोटे उद्योगों को खत्म किया है। इससे इन उद्योगों का बाजार में कब्जा हो गया और उन्हें इन छोटे उद्योगों में लगे लोगों का सस्ता श्रम भी उपलब्ध हो गया।

बुनकरों की तरह लोहार, बढई, बंशकार, तेली, रंगरेज, मोची, भड भूजे आदि कई घरेलू काम-धंधे थे। धीरे-धीरे वे या तो खत्म हो गए, या फिर खत्म होने की कगार पर हैं। इस कारण बडी संखया में लोग बेरोजगार हो रहे हैं और उनकी रोजी-रोटी का संकट बढ ता जा रहा है।

जबकि गांधीजी का दावा था कि ''चरखा सर्वाधिक सस्ता, सहज, सस्ते और व्यावहारिक ढंग से हमारे आर्थिक क्लेश की समस्या का समाघान कर सकता है। यह राष्ट्र की समृद्धि का और इसलिए , स्वतंत्रता का प्रतीक है। वह वाणिज्यिक युद्ध का नहीं, अपितु वाणिज्यिक शांति का प्रतीक है।''

मशीनीकरण भी एक कारण है, जिससे लोग बडी संखया में बेरोजगार हो रहे हैं। हैंडलूम की जगह पावरलूम ने ले ली है। इसी प्रकार खेती में मशीनीकरण से बडे पैमाने में लोगों को खेती से अलग होना पड रहा है। खेत की जुताई से लेकर कटाई तक मशीनीकरण से काम होने लगा है जिससे लोगों को खेती में काम नहीं मिल पा रहा है। वहीं दूसरी ओर हरित क्रांति का भी संकट स्पष्ट रूप से सामने आ गया है। और हरित क्रांति वाले कई राज्यों में किसान अपनी जान दे रहे हैं।

देश के जाने-माने पत्रकार भारत डोगरा का मानना है कि आज दुनिया में जब जलवायु परिवर्तन एक चिंता का विषय का बना हुआ है, तब अनियंत्रित मशीनीकरण पर पुनर्विचार करना चाहिए। क्योंकि इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जलवायु बदलाव का संकट बढने का खतरा बढ गया है। इसलिए अब हथकरघा जैसे कामों को फिर से खडा करने की जरूरत है।

Saturday, March 20, 2010

क्या नर्मदा की निर्मल चादर मैली होगी?

मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के सांईखेड़ा विकासखंड में एन.टी.पी.सी. के कोयला बिजलीघर लगने की खबर से गांववासी आंदोलित हैं। वे अपने घर-जमीन बचाने के लिए महात्मा गांधी की राह पर चलकर सत्याग्रह कर रहे हैं। धरना, प्रदर्शन और संकल्प का सिलसिला चल रहा है। वे प्रशासन के आला अफसरों से लेकर मुख्यमंत्री तक से मिल चुके हैं लेकिन अब तक उन्हें कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं मिला है।

इधर उन्होंने आंदोलन तेज करते हुए पिछले दिनों नर्मदा जल में खडे होकर संकल्प ले लिया है कि जान देंगे पर जमीन नहीं। गांववासियों की एकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पंचायत चुनाव का उन्होंने पूर्ण रूप से बहिष्कार किया और इन गांवों में एक भी वोट नहीं पडा।

नर्मदा और दूधी नदी के संगम पर बनने वाला यह सुपर कोयला बिजलीघर 2640 मेगावाट बिजली बनाएगा। इसमें 9 गांव की जमीन उपजाऊ जमीन ली जाने वाली है। तूमडा, महेशवर, संसारखेडा, मेहरागांव, झिकौली और निमावर ग्राम पंचायतों के 9 गांवों की जमीन जाएगी। इसके अलावा बरौआ, नोरिया, केंवट जैसे मछुआरा समुदाय के लोग भी प्रभावित होंगे। इन समुदायों का बरगी बांध बनने से पहले ही डंगरबाडी (तरबूज-खरबूज की खेती) का धंधा चौपट हो गया है। बरगी बांध से समय-असमय पानी छोडा जाता है, इस कारण तरबूज-खरबूज की खेती नहीं हो पा रही है।

तूमड़ा निवासी दयाद्गांकर खेमरिया कहते हैं कि यह सबसे उपजाऊ जमीन है। फसलों के रूप में सोना उगलती है। हम इसमें सभी फसलें लेते हैं। पहले यहां कपास और मूंगफली की खेती होती थी। वर्तमान में यहां की तुअर प्रसिद्ध है। यह नर्मदा कछार की जमीन है। सोयाबीन, गेहूं, गन्ना सब कुछ होता है। उन्होंने कहा कि हालांकि गांव नहीं हटाए जा रहे हैं लेकिन जब जमीन नहीं रहेगी, तो हम क्या करेंगे? यहां के पूर्व सरपंच छत्रपाल ने कहा कि हम किसी भी कीमत पर एन. टी. पी.सी. का संयंत्र नहीं लगने देंगे। इसका पूरी ताकत से विरोध किया जाएगा।

इस तरह नर्मदा पर करीब एक दर्जन बिजलीघर बनने वाले हैं। बडे-बडे बांध बनने के बाद नर्मदा पर यह दूसरा सबसे बडा संकट है। बरगी बांध, इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर, महेश्वर और सरदार सरोवर जैसे बांध बनाए जा चुके हैं। इससे नर्मदा के किनारे बसे गांवों और मंदिरों के रूप में हमारी बरसों पुरानी सभ्यता व संस्कृति खत्म हो रही है। नर्मदा की परिक्रमा की परंपरा बहुत पुरानी है। नर्मदा किनारे कई परकम्मावासी मिल जाएंगे। यहां कई पुरातत्वीय महत्व के स्थल भी मिले हैं।

बिजलीघर के विरोध करने के लिए बनी किसान मजदूर संघर्ष समिति तूमडा ने नर्मदा मां से भी अपने ऊपर आए इस संकट में गुहार लगाई है। इसमें कहा गया है कि '' हे मां, तेरी असीम कृपा से इस इलाके में जो नेमत बरसती थी, उससे यहां के रहवासियों को वंचित किया जा रहा है। मां ! जिस जमीन को तू हर साल अपने आंचल में समेट कर नया उर्वर जीवन देती रही है, बिजलीघर लग जाने के बाद, तेरी यही नियामत राख के पहाडों से बांझ हो जाएगी।''

करीब 5 हजार आबादी वाले तूमड़ा गांव की दीवारों पर एन.टी.पी.सी. के विरोध में नारे लिखे गए हैं। चौराहे पर एकत्र होकर दिन भर बिजलीघर ही चर्चा के केन्द्र में है। लोग बेचैन और परेशान हैं। आंदोलन कर रहे हैं। अब तक कोई अनिद्गचय का वातावरण बना हुआ है। दयाशंकर खेमरिया कहते हैं ''हमें प्यास लगी है, पानी चाहिए, वे हमें संतरा की गोली देते हैं। स्पष्ट कुछ नहीं कहा जाता, संयंत्र यहीं लगेगा या और कहीं। ''

समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री सुनील ने कहा कि नर्मदा बरगी बांध बनने से नर्मदा में तरबूज-खरबूज की बाडियों का धंधा चौपट हो गया। अब बिजलीघरों की राखड और कारखानों के प्रदूषण से मछली खतम हो जाएगी। उन्होंने कहा कि इनसे नदियां, जमीन, जंगल, जैव विविधता नहीं बचेगी। और नर्मदा जो बडे बांध बनने के कारण पहले से ही तालाब और नाला में बदल गई है, अब गटर में तब्दील हो जाएगी।

करीब 25 सालों से किसान-आदिवासियों के हक और इज्जत की लडाई लडने वाले श्री सुनील सवाल उठाते हैं कि क्या नर्मदा की स्थिति यमुना और गंगा जैसी नहीं होगी ? क्या नर्मदा का पानी आचमन करने लायक, नहाने लायक और मवेशियों के पीने लायक भी रह जाएगा ? लाखों किसान व गांववासी तो सीधे उजडेंगे ही, इस नदी पर आश्रित करो्डों लोगों की जिंदगी व रोजी-रोटी भी क्या बर्बाद नहीं हो जाएगी ? यह कैसा विकास है ?

इस क्षेत्र में सक्रिय समाजवादी जनपरिषद से जुडे गोपाल राठी व श्रीगोपाल गांगूडा ने कहा कि है कि इससे नर्मदा बहुत ही पवित्र नदी है। इससे लोगों की भावनाएं जुडी हुई हैं, इसे प्रदूषित होने से बचाया जाना जरूरी हैं।

पर्यावरणीय मुद्‌दों पर सतत लेखन करने वाले पत्रकार भारत डोगरा का कहना है कि यह ग्लोबल वार्मिग के संदर्भ में भी देखना चाहिए। थर्मल पावर से जो जिन कार्बन गैसों का उत्सर्जन होगा, उसका असर तापमान पर भी पडेगा। यह दुनिया का सबसे चिंता का विषय है। इसलिए हमें ऊर्जा के दूसरे विकल्पों पर विचार करना चाहिए।

(लेखक विकास संबंधी मुद्‌दों पर लिखते हैं)

Tuesday, March 16, 2010

नर्मदा का अनूठा सौंदर्य क्या बच पाएगा?

सुबह का समय है। मैं महेश्वर के नर्मदा तट पर घूम रहा हूं। सूर्योदय हो रहा है। सूरज का गोला धीरे-धीरे ऊपर आ रहा है और नर्मदा में उसकी तेज सुनहरी किरणें चमक रही हैं। घाट पर चहल-पहल है। कल सोमवती अमावस्या है। स्नान करने के लिए गांवों से हर-हर नर्मदे का जयकारा लगाते हुए श्रद्धालु आ रहे हैं जिसमें महिलाएं भी बड़ी संखया में शामिल हैं। मैं यहां एक कार्यशाला के सिलसिले में तीन दिनी प्रवास पर आया हूं।

मध्यप्रदेश के खरगोन जिले में महेश्वर स्थित है। इसे देवी अहिल्या बाई की नगरी भी कहा जाता है। वे मल्हारराव होल्कर की पुत्रवधू थीं जिन्होंने अपने पति की मृत्युपरांत शासन की बागडोर संभाली। उनका जन्म ३१ अगस्त १७२५ में हुआ और निधन १३ अगस्त १७९५ को। उन्होंने करीब २८ साल द्गाासन किया। मालवा की राजधानी महेश्वर ही हुआ करती थी।

अहिल्या बाई होल्कर ने अपने शासन काल में कई उल्लेखनीय कार्य किए जिसमें से एक है यहां का हेंडलूम उद्योग। महेश्वर की साड़ियां बहुत ही प्रसिद्ध हैं। जब सभी जगह पावरलूम छा गया है उस समय यहां हेंडलूम से काफी लोगों को रोजगार उपलब्ध है। और यहां की साडियों की बाजार में काफी मांग है। जब कभी महिलाओं की योग्यता की बात आती है तब देवी अहिल्या जैसी महिलाओं की याद की जानी चाहिए जिन्होंने अपने कुद्गाल प्रशासन और न्याय से जनता का दिल का जीत लिया। इस कारण उन्हें देवी की उपाधि दी गई।

एक नर्मदा भक्त तंबूरे की तान और खडताल के साथ भजन गा रहा था। कबीर का भजन। कबीर की तरह फक्कड और मस्तमौला उसका अंदाज था। मैं वहंस वहीं बैठ गया। ऐसे भक्त जो निस्वार्थ भाव से नर्मदा की महिमा का बखान करते हैं, उनका समर्पण देखते ही बनता है। नर्मदा मैया तो जीवनदायिनी और सबकी पालनहार है।

नर्मदा में हल्की हवा के साथ लहरें उठती हैं, गिरती हैं। जैसे पानी के अंदर बैठा कोई बच्चा उन्हें हिला-डुला रहा हो। हमारे हृदय में भी इसी तरह सांस ऊपर-नीचे होती है। एक गहरी शान्ति का अनुभव हो रहा है। सोच रहा था कि इस विराट तट पर कितना शांत और आकर्षक लगती है नर्मदा। इसके कई रूप हैं।

पिछले दिनों जब मैं जबलपुर के पास भेड़ाघाट गया था। वहां धुंआधार पर नर्मदा का एक अलग ही छटा है। मैय्या की धार ऊपर से गिर रही थी। और नीचे से फुहारे छूट रहे थे। खाई में पानी नीचे जाकर गेंद की तरह टप्पा खाकर ऊपर आ रहा था। बहुत की मनमोहक है नर्मदा। बरमान की सतधारा में वह सात धाराओं में बंटकर बेहद खूबसूरत लगती है।

यहां तट पर विराट और भव्य किला है जिसकी कारीगरी देखते ही बनती है। हम इसे देखने गए। इसकी दीवारों और मेहराबों में अलग-अलग आकृतियां उकेरी गई हैं। कई सीढियां चढ कर हम देवी अहिल्या के निवास व मंदिर गए। आरती का समय था। आरती में शामिल हो प्रसाद ग्रहण किया। यह सब देखकर राजाओं के पुराने वैभव व शासन की तो याद आती ही है। उनके द्वारा किए गए अच्छे कामों को भी जानने का मौका मिलता है।

लेकिन अब नर्मदा संकट में है। जगह-जगह इस पर बांध बनाए जा रहे हैं। महेद्गवर में भी बांध बन रहा है। नर्मदा बचाओ आंदोलन लंबे अरसे से संघर्षरत है। पर्यावरणविद्‌ व प्रखयात समाज सेविका मेधा पाटकर कहती हैं यह विकास नहीं, विनाश है। ऊर्जा के कई और विकल्प हैं, उन पर विचार करना चाहिए। मैं सोच रहा था क्या भविष्य में सौंदर्य की नदी नर्मदा बच पाएगी? क्या जीवनदायिनी नर्मदा सदानीरा बनी रहेगी ?

महेश्वर की और भी छाया चित्र देखे यहाँ क्लिक करे
(यह लेख 17 मार्च 2010 छत्तीसगढ़ मै प्रकाशित )

Thursday, March 4, 2010

फसल उत्पादन ही नहीं, एक जीवन पद्धति है खेती

पिछले दिनों मैं अपने एक मित्र के बुलावे पर उनके खेत गया। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखंड के डापका गांव में हम गए। खेत में चना की कटाई चल रही है। साथ में बेटा और एक अन्य मित्र भी थे।

सतपुड़ा की तलहटी में हरे-भरे खेत थे। चारों तरफ गेहूं, चना, मसूर, मटर और अरहर की फसलें थीं। सिंचाई की सुविधा नहर से थी। आजादी के बाद पहली पंचवर्षीय योजना में यहां एक नदी पर डोकरीखेडा बांध बनाया गया था, जिससे यहां खेतों की सिंचाई होती है। लेकिन इस बांध में भी पानी की कमी रहती है। अनियमित व कम वर्षा के कारण पिछले साल बांध सूखा था। लेकिन इस साल पर्याप्त पानी है। समीप के गांव झिरिया में एक स्टापडेम बनाकर इसमें पानी की नहर जोड दी गई है।

शाम का समय था। चने की खेत कटाई चल रही है। मित्र के माता-पिता दोनों मिलकर कटाई कर रहे थे। झुंड में पक्षी फसलों में दाने चुग रहे थे। मचान से मित्र के पिता पक्षियों को भगाने के लिए हुर्र-हुर्र चिल्ला रहे थे। सामने सतपुड़ा की लबी पर्वत श्रृंखला थी। मेढ पर बैल चर रहे थे।

हमारा होरा (भुने हुए हरे चने) खाने का कार्यक्रम था। मित्र और मैं बेर की सूखी टहनियां एकत्र कर रहे थे, जिससे चना भून सकें। मेढ पर लगे बेर पक कर झर गए थे। कहीं-कहीं बेर भी लगे थे। मैं टहनियां बीनने के साथ बेर भी तोड कर खा रहा था। उधर बेटा मटर के खेत में हरी फल्लियां तोड कर खाने लगा।

अब हमने चने को भूनने के लिए सूखी टहनियां एकत्र कर ली है। मित्र की मां ने हरे चने काटकर दे दिए हैं। टहनियों पर हरे चने बिछाए जा रहे हैं। आग सुलगाने के लिए सूखी पत्तियां एकत्र कर आग लगा दी गई। आग धू-धू कर जलने लगी है। चना की घेटियां (दाने) फूटने लगे हैं। भुने चनों की खुशबू हमारे नथुनों में भर रही थी। आग से चने जल न जाए, इसलिए मित्र ने उलटने-पलटने के लिए एक डंडा हाथ में ले रखा है। उससे वे आग में चना भून रहे हैं। पलाश की हरी टहनियों से आग बुझाई जा रही है।

अब होरा भुन गया है। हम सब उसे बीन-बीनकर खाने में लगे हैं। खेती-किसानी पर बात-चीत चल रही है। मित्र बता रहे थे हमने चना में किसी भी प्रकार की रासायनिक खाद नहीं डाली है। कीटनाशक का इस्तेमाल नहीं किया है। उन्होंने कहा कि अब तो कटाई भी कंबाईन हारवेस्टर से होने लगी है। लेकिन हम खेती का सब काम खुद ही करते हैं।

शाम ढल चुकी है। होरा (भुने चने) खत्म हो गए थे। कुछ बचाकर घर के लिए थैले में रख लिए। लौटने का समय हो गया है। हम घर लौटने लगे। गांव में आए। वहां हर घर के पीछे एक बाड़ी देखी। बाडी में बैंगन, सेमी, आलू और फलदार वृक्ष देखकर बहुत ही अच्छा लगा। हालांकि मैदानी क्षेत्रों में बाड ी अब नहंी के बराबर हैं। लोगों ने बाडी के स्थान पर मकान बना लिए हैं। जबकि जंगल पट्‌टी में बाडि यां अब भी देखी जा सकती है। बाडि यों से हरी सब्जियां मिलती हैं। हमारी ग्राम्य जीवनद्गौली की सबसे बडी विशेषता भी यही थी कि वह स्वावलंबी थी। खेती-बाडी भी स्वावलंबी थी। अब परावलंबी हो गई।

अब खेती में बीज से लेकर रासायनिक खाद, कीटनाशक, बिजली सब कुछ खरीदना पड ता है। टे्रक्टर से बुआई-जुताई, कंबाईन हारवेस्टर से कटाई होने लगी है। लागत बढ ती जा रही है। उपज घटती जा रही है। ज्यादा पानी, ज्यादा रासायनिक खाद, ज्यादा कीटनाशक आदि के कारण जमीन की उर्वरा द्यशक्ति घटती जा रही है। कुल मिलाकर सबका अन्नदाता किसान संकट में है।

लौटते समय मित्र ने ज्वार भी दिखाई। मसूर और ज्वार जैसी फसलें अब बहुत कम होने लगी हैं। अरहर का उत्पादन तो बहुत कम हो गया है। इस कारण इसके दाम आसमान छूने लगे हैं। पहले किसान भोजन की जरूरत के मुताबिक फसलचक्र को अपनाता था। अब उत्पादन और नगद पैसों से फसल का चुनाव होता है।

लेकिन असिंचित और कम सिंचाई में खाद्य सुरक्षा संभव है। यह सतपुडा की जंगल पट्‌टी के गांवों को देखकर कहा जा सकता है। लेकिन अब मौसम परिवर्तन होने लगा है। अगर बारिश बिल्कुल न हो तो असिंचित खेती भी संकट में हो जाती है। इन समस्याओं पर विचार करना जरूरी है।

कुल मिलाकर, आज डापका के खेत की सैर, होरा खाने का आनंद हमारी स्मृतियों के पन्नों में सदैव रहेगा। लेकिन मौसम परिवर्तन की मार से यह कब तक बचे रहेंगे, यह देखने वाली बात है।

Saturday, February 13, 2010

सजीव खेती ही एकमात्र रास्ता है

"मैंने पहले रासायनिक खेती की और बाद में सजीव खेती। वर्ष 1994 तक मै रासायनिक खेती करता रहा। जिसमें मेरी जमीन की उर्वरक शक्ति गई, भूजल स्तर नीचे गया, देसी बीज खत्म हुए, फसलचक्र बदला और मजदूरों का रोजगार खत्म हुआ। लेकिन जब मेरा इस विनाशक खेती से मोहभंग हुआ और सजीव खेती अपनानी शुरू की तो मेरा जीवन ही बदल गया। इससे धीरे-धीरे भूमि की उर्वरक शक्ति बढ़ी, भूजल स्तर उपर आया और देसी बीज बचे और मजदूरों को रोजगार भी मिला। यानी सजीव खेती सिर्फ फसल उत्पादन की नहीं, समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। यह एक जीवन पद्धति है।" यह कहना है यवतमाल (महाराष्ट्र) जिले के किसान सुभाष शर्मा का।

हाल ही में इन्दौर में 7 से 9 फरवरी तक चले सजीव कृषि समाज मेला में बताया। इस मेले का उद्घाटन मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री ने किया था। मेले में देश के कई कोनों से आए कृषि वैज्ञानिक, शोधकर्ता, किसान शामिल हुए। इस मेले का आयोजन भारतीय सजीव कृषि समाज (ओ.एफ.ए.आई.), किसान कल्याण एवं कृषि विकास विभाग, मध्यप्रदेश शासन, मध्यप्रदेश विज्ञान-प्रौद्योगिकी परिषद और शासकीय कृषि महाविद्यालय ने मिलकर किया था। इसमें कृषि विशेषज्ञों के अलावा सीधे खेती करने वाले किसानों ने भी अपने अपने अनुभव साझा किए।

यहां महाराष्ट्र के यवतमाल के छोटी गूंजरी के सजीव खेती करने वाले किसान सुभाष शर्मा ने कहा कि रासायनिक खेती विनाश करने वाली है जबकि सजीव खेती से निर्माण होता है। उन्होंने कहा कि सजीव खेती अपनाने से जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ गई है। गाय के गोबर से जमीन में केंचुओं और जीवाणुओं की संख्या बढ़ी जिन्होंने खेत को उर्वर बनाया। हमने खेत में वनस्पति भी लगाईं जिसकी पत्तियां जैव खाद में बदलीं। पेड़ों में पक्षी आए जिन्होंने फसलों की इल्लियों को खाया। यानी कीट नियंत्रण किया। और उन्होंने जो विश्ष्टा किया उससे जमीन उर्वर हुई। इससे अगले साल फसल में ज्यादा फल्लियां लगी। ज्यादा उत्पादन हुआ।

इसी प्रकार जीवाणुओं के कारण बारिश का पानी खेत में रूकेगा और भूजल स्तर ऊपर आएगा। अगर हमारे पास खुद का बीज होगा तो उसे हम बारिश आने के पहले ही बो देते हैं। यह प्रयोग पिछले 10 साल में सिर्फ एक बार ही फेल हुआ जब बोनी खराब हुई, अन्यथा हर बार सफल रहा। अगर हम खेत में मल्ंिचग करते हैं तो तुअर में फल्लियां ज्यादा लगती हैं। उसकी पत्तियां जैव खाद बनाती हैं। जमीन क्रमशः सुधरती जाती है। इस प्रकार सजीव खेती से मुनाफा भी कमाया। और इसमें हमने मशीन से नहीं, मजदूरों से काम लिया। उनकी क्षमता और ईमानदारी पर भरोसा किया। परिणामस्वरूप मुनाफा क्रमशः बढ़ रहा है। मजदूरों को अब दीपावली पर बोनस भी दिया जाता है।
यह कहानी सिर्फ सुभाष जी की नहीं है, सजीव खेती की ओर अब बहुतेरे किसानों का रूझान बढ़ रहा है।

हमारी खेती का जो नुकसान हजारों वर्षों में नहीं हुआ, उतना हमने पिछले 40 वर्षों में कर लिया। अब हालत यह है कि लागत बढ़ती जा रही है, उपज कम होती जा रही है। हर साल रासायनिक खाद की खपत बढ़ती जा रही है। प्यासे बीजों को पानी पिलाने के लिए बेहिसाब भूजल उलीचा जा रहा है। बिजली संकट बढ़ रहा है। यानी कुल मिलाकर खेती खत्म हो रही है। घाटा का धंधा बन गई है। और भोजन-पानी भी जहरीला हो गया है।

इधर हरित क्रांति की असफलता के समाधान के रूप में जैव तकनीक को सामने लाया जा रहा है, जो हरित क्रांति से भी ज्यादा खतरनाक है। हाल ही बीटी बैंगन का मामला सामने आया है, जिसका काफी विरोध हो रहा है। हमारे यहां बैंगन की हजारों किस्में हैं, फिर जीन परिवर्तित बीटी बैंगन को क्यों लाया जा रहा है, जिसके सुरक्षित होने पर वैज्ञानिकों में मतैक्य है। हालांकि फिलहाल, बीटी बैंगन को व्यावसायिक अनुमति नहीं दी गई है, लेकिन भविश्य में इस पर रोक लगी रहेगी, इस पर अब भी रहस्य बना हुआ है। यह तकनीक मानव स्वास्थ्य और पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित नहंी है, यह सवाल उठाया जा रहा है।

इसलिए हमें सजीव खेती की ओर बढ़ना चाहिए। मिट्टी -पानी के संरक्षण करना चाहिए। देसी बीज, हल-बक्खर और गोबर
खाद की खेती की ओर बढ़ना चाहिए। कम पानी वाले देसी बीज और जमीन की उर्वरक शक्ति बढ़ाकर कम्पोस्ट खाद के प्रयोग, हरी खाद के माध्यम से किसान असिंचित खेती या सीमित सिंचाई के माध्यम से अच्छा उत्पादन कर सकते हैं। यह सभी दृष्टि से सुरक्षित भी है। पर्यावरणविद् व प्रख्यात लेखक क्लाड अल्वारिस का कहना है कि सभी परंपरागत कृषि पद्धतियों को किसानों ने ही विकसित किया है, वैज्ञानिकों ने नहीं। इसलिए परंपरागत कृषि ज्ञान, पद्धतियों व जैविक खेती की ओर बढ़ना जरूरी है।

इस कार्यक्रम के संयोजक डा. भारतेन्दु प्रकाश का कहना है कि हमें कृश्षि को जैविक व प्राकृतिक स्वरूप की ओर परंपरागत ज्ञान तथा संसाधनों के संरक्षणात्मक शोध का आधार लेकर लौटाना होगा। किसानों को आत्मनिर्भरता, परस्पर सहयोग तथा शोषणकारी बाजार से मुक्ति के लिए गंभीरता से कार्य करना होगा।

Friday, February 12, 2010

खेती की अनूठी परंपरागत पद्धति है बारहनाजा

बारहनाजा
पिछले दिनों इंदौर के सजीव कृषि मेले में उत्तराखंड के देसी बीजों का स्टाल लगा हुआ है। इन बीजों को मैंने अपने हाथ में लेकर देखा तो देखते ही रह गया। देर तक रंग-बिरंगे बीजों के सौंदर्य को निहारते रहा। धान, राजमा, मंडुवा (कोदा), मारसा (रामदाना), झंगोरा, गेहूं, लोबिया, भट्ट, राजमा और दलहन-तिलहन की कई प्रजातियां छोटी पालीथीन में चमक रही थीं। इन्हें बरसों से बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े विजय जडधारी लेकर आए थे।

चिपको आंदोलन से निकले विजय जड़धारी पिछले कई बरसों से बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े हुए हैं। सत्तर के दषक में यहां पेड़ों को कटने से बचाने के लिए अनूठा चिपको आंदोलन हुआ था जिसमें ग्रामीणों ने पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने के लिए देश-दुनिया में मिसाल पेश की थी। इस आंदोलन में महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। यह आंदोलन देश-दुनिया में प्रेरणा का स्त्रोत बना।

विजय जड़धारी इसी आंदोलन से जुड़े हुए थे। चूंकि वे गांव में रहते हैं इसलिए उन्होंने बहुत जल्द ही रासायनिक खेती के खतरे को भांप लिया और खेती बचाने के लिए देसी बीजों की परंपरागत खेती को पुनर्जीवित किया। उन्होंने कहा कि रासायनिक खेती की शुरूआत में कृषि विभाग के लोग मुफ्त में बीज किट दिया करते थे। उसमें रासायनिक खाद भी होता था। उससे उपज तो बढी, लेकिन बढ़ने के बाद क्रमशः धीरे-धीरे कम होती गई। जब हमने देसी बीजों की तलाश की तो हमें नहीं मिले। लेकिन हमारी देसी बीजों की तलाश जारी रही। अंततः हमें ऐसे किसान मिले जो मिलवां या मिश्रित खेती करते थे। बारहनाजा यानी बारह तरह के अनाज एक साथ बोते थे।

बारहनाजा में बारह अनाज ही हों, यह जरूरी नहीं। इसमें ज्यादा भी हो सकते हैं। दरअसल, बारहनाजा भोजन की सुरक्षा व पोषण के लिए तो उपयोगी है ही। साथ में खेती और पशुपालन के रिष्ते को भी मजबूत बनाता है। फसलों के अवषेष जो ठंडल, चारा व भूसा के रूप में बचते हैं, वे पशुओं के आहार बनते हैं। गाय-बैल के गोबर से ही भूमि की उर्वर शक्ति बढ़ती है।

यहां बारहनाजा में कौन-कौन से अनाज बोते हैं, यह जानना भी उचित होगा। कोदा (मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुट्टू, ), जोन्याला (ज्वार ), मक्का, राजमा, गहथ (कुलथ ), भटट, रैयास, उड़द, सुंटा, रगडवास, गुरूंया, तोर, मूंग, भंजगीर, तिल, जख्या, सण, काखड़ी आदि।

बारहनाजा का एक फसलचक्र है। यहां की लगभग 13 प्रतिशत भूमि सिंचित है और 87 प्रतिशत असिंचित। सिंचित भूमि में ज्यादा विविधता नहीं है। जबकि असिंचित भूमि में विविधतायुक्त बारहनाजा दलहन, तिलहन आदि की विविधतापूर्ण खेती होती है। इसमें मिट्टी बचाने का भी जतन होता है। इसलिए फसल कटाई के बाद वे खेत को पड़ती छोड़ देते हैं। जमीन को पुराने स्वरूप में लाने की कोशिश की जाती थी। अब तो एक वर्ष में तीन-तीन चार फसलें ली जा रही हैं। मिट्टी-पानी का बेहिसाब दोहन किया जा रहा है।

विजय जडधारी
इसी प्रकार की मिश्रित फसलें मध्यप्रदेश के सूखा क्षेत्रों में प्रचलित हैं। हो्शंगाबाद की जंगल पट्टी में बिर्रा या उसका संशोधित रूप उतेरा प्रचलित है। इसमें किसान मक्का, उड़द, अरहर, सोयाबीन, ज्वार आदि लगाते हैं। एक साथ फसल बोने की पद्धति को उतेरा कहा जाता है। खेती के इस संकट के दौर में सतपुड़ा जंगल के सूखे और असिंचित इलाके में खा़द्य सुरक्षा को बनाए रखने की उतेरा पद्धति प्रचलित है। इसे गजरा के नाम से भी जाना जाता है। इसमें चार-पांच फसलों को एक साथ बोया जाता है। इसका एक संशोधित रूप बिर्रा ( गेहू-चना दोनों मिलवां ) है जिसकी रोटी बुजुर्ग अब भी खाना पसंद करते है।

उतेरा में एक साथ बोने वाले अनाज जैसे धान, ज्चार, कोदो, राहर और तिल्ली। उतेरा पद्धति के बारे में किसानों की सोच यह है कि अगर एक फसल मार खा जाती है तो उसकी पूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है। जबकि नकदी फसल में कीट या रोग लगने से या प्राकृतिक आपदा आने से पूरी फसल नष्ट हो जाती है जिससे किसानों को भारी नुकसान होता है। उतेरा की खास बात यह भी है कि इसमें मिट्टी का उपजाऊपन खत्म नहीं होता। कई फसलें एक साथ बोने से पोषक तत्वों का चक्र बराबर बना रहता है। अनाज के साथ फलियोंवाली फसलें बोने से नत्रजन आधारित बाहरी निवेषों की जरूरत कम पड़ती है। फसलों के डंठल तथा पुआल उन मवेशियों को खिलाने के काम आते हैं जो जैव खाद पैदा करते है। इस प्रकार मनुष्यों को खेती से अनाज, पशुओं को भोजन और मिट्टी का उपजाऊपन भी उतेरा अक्षुण्ण है।

यानी हमें टिकाऊ खेती की ओर बढ़ना होगा। पर्यावरण और मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। मेढबंदी व भू तथा जल संरक्षण के उपाय करने होंगे। हमारी खेती में मानव की भूख मिटाने के साथ पर्यावरण संरक्षण व समस्त जीव-जगत के पालन का विचार भी था। जो बेतहाशा रासायनिक खादों के साथ गुम होता जा रहा है। इसलिए हमें टिकाऊ खेती को अपनाने की जरूरत है। बीज बचाओ आंदोलन का यह प्रयास सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।
(लेखक विकासात्मक मुद्दो पर लिखते है)

18 फरवरी,2010, जनसत्ता नयी दिल्ली मै प्रकाशित.
12 मई, 2010, द पायोनिएर दिल्ली  में प्रकाशित.

Saturday, January 30, 2010

जैव तकनीक से जुड़े हैं कई खतरे

इन दिनों बी.टी. बैंगन का मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ है। जन सुनवाईयां आयोजित की जा रही हैं। विरोध हो रहा है। अब इस विषय पर विचार करना जरूरी हो गया है कि मानव स्वास्थ्य से जुड़े गंभीर मसले पर विशेषज्ञ समितियां क्यों मंजूरी दे रही हैं। हालांकि अभी सरकार ने इसे पूरी तरह झंडी नहीं दी है।

बी.टी. बैगन पर चर्चा करने से पहले यह जानना उचित होगा कि आखिर जैव तकनीक है क्या? जेनेटिक इंजीनियरिंग या जैव तकनीक एक नई तकनीक है जिसके द्वारा एक प्रजाति के जीन को दूसरी प्रजाति मं प्रवेश कराना संभव होता हे। इससे एक प्रजाति के गुण दूसरी प्रजाति में आ जाते हैं। इसमें बेसिलस थुरूंजेनेसिस नामक बैक्टीरिया के क्राई 1 एसी (Cry1Ac) एक जीन को बैगन की कोशिका में प्रवेश कराया जाता है। यह जीन पौधे में, उसकी कोशिका में एक विशेष प्रकार का जहर पैदा करता है। इस जीन में कीट मारने की क्षमता होती है।

मानव स्वास्थ्य से जुड़े इस मुद्दे पर जल्दबाजी में निर्णय लेना उचित नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों ने इस पर आपत्ति जताई है। सुप्रीम कोर्ट ने वैज्ञानिक डा. पुष्प भार्गव को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल समिति (जीईएसी) के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया। डा. भार्गव ने इसे अनैतिक व गंभीर गलती बताया है। डा. भार्गव ने कहा है कि अब तक बीटी बैंगन के लिए जरूरी परीक्षण पूरे नहीं किए गए हैं। फिर इसे तत्काल मंजूरी देने का क्या औचित्य है?

यहां बीटी कपास का उदाहरण देना उचित होगा। इसी तकनीक से तैयार बीटी कपास के चरने से पूर्व में आंध्रप्रदेश में भेड़, बकरी मरने की खबरें आई थीं। मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ क्षेत्र में बीटी कपास चुनने वाले और जिनिंग मिलों में काम करने वाले मजदूरों को एलर्जी की शिकायत हुई है। कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ में बीटी राइस के साथ बीटी बैंगन का मुद्दा का भी सामने आया था जिसका काफी विरोध हुआ था।

अमरीका में बेयर नाम की कंपनी ने जीन परिवर्तित लिबर्टी लिंक राइस का परीक्षण किया। कुछ समय तक इसकी जानकारी दबी-छुपी रही। लेकिन जब उजागर हुई तो अमरीका के चावल निर्यात पर इसका असर पड़ा। यूरोपीय संघ ने अमरीकी चावल को आयात करने से इंकार कर दिया। अमरीका की धान की खेती जैव प्रदूषित हो गई। इसके चलते अमरीका को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। इसी प्रकार दुनिया के कई देशों ने अपने यहां जी एम फसलों पर रोक लगाई है।

एक और उदाहरण लें तो लातिनी अमरीका के चार-पांच देशों ने आलू फसल की विविधता उत्पत्ति केन्द्र को जैव प्रदूषण से बचाने के लिए अपने यहां रोक लगाई। यहां आलू की कई किस्में हैं। ऐसे सुरक्षा उपाय इसलिए जरूरी है क्योंकि इससे खाद्य सुरक्षा व खेती की अर्थव्यवस्था खतरे में पड़ सकती है। मक्का के उत्पत्ति केन्द्र मेक्सिको के आदिवासी क्षेत्रों के जी. एम. मक्का से जैव प्रदूषण का मामला कई वर्षों से अन्तरराष्ट्रीय मुद्दा बना हुआ है। यह प्रदूषण अमरीकी कंपनियों द्वारा प्रचारित किए गए जी.एम. (जेनिटीकली मोडीफाइड) मक्का से ही हुआ है।

जैव तकनीक आज देष और दुनिया में फ़लता-फ़ूलता व्यापार है। जैव तकनीक का आधार मुख्य रूप से जैव विविधता है। अगर जलवायु की दृष्टि से देखें तो यह विविधता गर्म जलवायु वाले देशों में पाई जाती है। और आर्थिक दृष्टि से देखें तो गरीब देषों में जैव विविधता का भंडार है। एक अनुमान के अनुसार हमारे यहां बैंगन की सैकड़ों किस्में हैं फिर यह नई किस्म क्यों? अगर हमारी जैव विविधता प्रदूषित हो गई तो इन्हीं कंपनियों का बीजों के व्यवसाय पर एकाधिकार हो जाएगा।

कुछ वर्षों पहले टर्मिनेटर टेक्नोलाॅजी का अमरीका में पेटेंट हो चुका है जिसके जरिए ऐसे बीज तैयार किए जा सकते हैं जो अगले साल उग ही न सकें। यानी पौधा-बीज-पौधा का चक्र ही खत्म हो जाए। हर साल किसान बड़ी-बड़ी कंपनियों पर निर्भर हो जाए, ऐसी कोशिशे की जा रही हैं। ऐसी स्थिति में बहुराश्टीय कंपनियों का खाद्य उत्पादन व वितरण में एकतरफा नियंत्रण हो जाएगा और ये कंपनियां बीज व रसायन का मनमाना दाम वसूल सकेगी।

आजकल कई वैज्ञानिक जैव तकनीक के विभिन्न रूपों को तैयार करने में जुटे हैं। इसके माध्यम से विभिन्न जीवों में आनुवांशिक गुण या एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचने वाले गुण जीन के रूप में प्रकट होते हैं व जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए एक जीव के कुछ विशेष जीनों को दूसरे जीव में पहुंचाया जा सकता है। इस तरह जीवन का एक नया रूप ही तैयार किया जा सकता है। अब तो पशु के किसी जीन को पौधे में, मनुष्य के किसी जीन को पशु में प्रवे्श करवाने के प्रयास हो रहे हैं। इससे जैव तकनीक पर कई सवाल खड़े किए जा रहे हैं।

इसके अलावा, जैव तकनीक से कई और खतरे जुड़े हुए हैं। यदि नए जीवाणुओं को वातावरण में छोड़ने से पहले उनेक संभावित-दुष्परिणामों की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो इससे विनाश भी हो सकता है। जैव तकनीक से प्राप्त खाद्य पदार्थों को उपलब्ध कराने से पहले यह देखा जा रहा है कि इनके खाने से लोगों के स्वास्थ्य पर कोई विपरीत प्रभाव तो नहीं पड़ेगा? विदेशों में जीएम खाद्य पदार्थो पर लेबल लगाने की मुहिम चलाई जा रही है जिससे पता चल सके कि यह जीएम खाद्य है या नहीं?

इसके अलावा, जैव तकनीक के तार उदारीकरण और भूमंडलीकरण से भी जुड़े हुए हैं। इसलिए यह मुद्दा और भी गंभीर है। विश्व व्यापार संगठन बनने से पहले भारत में बीज व्यवसाय में विदेशी कंपनियों को आने की इजाजत नहीं थी। बीजों के आदान-प्रदान किसानों के हाथ में था लेकिन अब स्थिति बदल गई।

बैंगन गरीबों की सब्जी है। आम तौर पर इसकी खेती गरीब ही करते हैं और खाते भी वे ही हैं। इसकी खेती बरसों से होती रही है। मध्यप्रदेश के कहार और बरौआ जाति के लोग इसकी खेती करते आ रहे हैं। वे नदियों के कछार व रेत में इसकी खेती करते हैं। लेकिन अगर बीटी बैंगन को हरी झंडी मिल गई तो उनकी थाली से बैंगन की सब्जी भी छिन जाएगी।

(लेखक विकासात्मक मुद्दो पर लिखते है)