Saturday, November 28, 2009

स्कूल बिना पढ़ाई : शिक्षक दंपति की मेहनत रंग लाई

केरल में एक शिक्षक दंपति ऐसे हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को कभी स्कूल नहीं भेजा। बल्कि खुद ही बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की। आज उनके बच्चे पढ़ाई में किसी से पीछे नहीं हैं। बरसों पहले उन्होंने खुद सरकारी स्कूल से त्यागपत्र देकर खुद ही अपने बच्चों की पढ़ाई की जिम्मेदारी ली। पर घिसे-पिटे सरकारी स्कूलों की तरह नहीं बल्कि अपने नए और अनूठे तरीके से। आज उनके बच्चे किसी से कम नहीं हैं। बल्कि शिक्षा के अलावा और भी क्षेत्रों में उनकी प्रतिभा निखर रही है। उनका यह अनूठा आश्रमनुमा स्कूल पालक्कड़ जिले के चित्तूर में है। इस आवासीय स्कूल में 10 बच्चे पढ़ते हैं। स्कूल का नाम सारंग है।

इस स्कूल में बच्चे परीक्षा के लिए नहीं पढ़ते और न ही उन्हें पाठ्यक्रम पूरा करने का दबाव है। वे यहां हर तरह के दबाव से मुक्त हैं, आजाद हैं। वे सीखने के लिए पढ़ते हैं। मजे के लिए पढ़ते हैं। वे रोज अखबार पढ़ते हैं, उस पर चर्चा करते हैं। खेल-खेल में शिक्षा की शिक्षण पद्धति की बातें बहुत होती हैं, लेकिन केरल में इसे अमल में लाया जा रहा है। इस शिक्षक दंपति के बड़े बेटे गौतम को चार भाषाओं के जानकार हैं। वे वेब डिजाइनिंग से लेकर खेती-किसानी के कई काम करते हैं।
गौतम की तरह ही उनकी दोनों बहनें कन्नकी(14) और उन्नीआर्चा(12) भी इसी पद्धति से पढ़ाई कर रही हैं। कन्नकी की मूर्तिकला में रुचि है। जबकि उन्नीआर्चा वायलिन और मृदंग में अपनी प्रतिभा निखार रही हैं। दोनों मर्शल आर्ट, भोजन पकाना और कम्प्यूटर सीख रही हैं। उनके साथ और भी बच्चे सारंग स्कूल में पढ़ते हैं।कुछ समय पहले गौतम सारंग से हुई बातचीत के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं:-

0 आपके मां-बाप दोनों शिक्षक थे और आपको कभी स्कूल नहीं भेजा?
00 मेरे मां-बाप की सोच थी कि स्कूल में सिर्फ़ जानकारी मिलती है और उसका इस्तेमाल कैसे और किस उद्देशय के लिए करना है, इसे नहीं सिखाया जाता है। यह विवेक से आता है, समझ से आता है, संस्कृति से आता है। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की समस्या है कि वह हमें यह नहीं सिखा पा रही है।
0 जब आप एक दिन भी स्कूल नहीं गए तब आपने कैसे सीखा?
00 सभी बच्चों में सीखने की प्रक्रिया चलती रहती है उन्हें सिखाने की जरूरत नहीं है। उनमें कौशल रहता है लेकिन उसकी हमेशा उपेक्षा होती है। आप जानते हैं कि सीखने के लिए उचित वातावरण की जरूरत होती है। स्कूल में यह वातावरण नहीं मिलता।
0 आपको घर पर क्या यह वातावरण मिला?
00 मेरे मां-बाप दोनों शिक्षक थे। वे सदैव लिखते-पढ़ते रहते थे। घर में अखबार आता था। जब मां-पिताजी पढ़ते थे तो मैं भी उन्हें देखा करता था। मेरे माताजी-पिताजी कुछ लिखते थे तो एक-दूसरे को पढ़कर सुनाते थे। जैसे वे अपने किसी मित्र को पत्र लिखते थे तो पढ़ते थे। वह मैं भी सुनता था। यह बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि जैसा बड़े करते हैं उसी प्रकार से बच्चे करते हैं।
यानी मुझे लिखने-पढ़ने का वातावरण घर पर ही मिल रहा था। अक्षर, शब्द और उच्चारण का शुरू से ही परिचय मिल रहा था। मैं हमेशा अक्षरों के बीच में था। इस तरह मैंने 4 साल की उम्र में मलयालम सीखना शुरू कर दिया था। लेकिन मेरी बहन 12 साल की हो गई। उसकी पढ़ने में ज्यादा रूचि नहीं है, उसे दूसरी चीजों में है। यानी हर बच्चा अलग है।
0 आपकी विषय की समझ कैसे बनी?
00 मेरी शिक्षा अलग-अलग टुकड़ों में नहीं हुई। मैं हर कहीं, हर समय सीखता रहता था। जो भी हम देखते हैं, सुनते हैं, वह नई चीज होती है। जो महसूस करते हैं, उसे देखते हैं, सूंघते हैं, उसकी खुशबू लेते हैं, उससे नया अनुभव होता है। उससे हमारे मन में नए-नए सवाल उठते रहते हैं। बच्चों में जन्मजात खोजी प्रवृत्ति होती है।
वे हमेशा सवाल करते हैं। वे जानकारी के लिए हमेशा भूखे रहते है। एक उदाहरण से अपनी बात समझाता हूं। जैसे मैं अपनी बाइक में पेट्रोल भरवाने के लिए पेट्रोल पंप गया। वहां मैंने अलग-अलग जगह पर पेट्रोल और डीजल लिखा देखा। इससे हम अक्षर ज्ञान भी कर सकते हैं। पेटोल के बारे में और जानना चाहेंगे तो रसायन की बात हो जाएगी। और अगर हम पेट्रोल के पैसे देंगे तो गणित का ज्ञान हो सकता है।

0 आपने कितनी भाषाएं सीखी और कैसे?
00 मैंने मलयालम, इरूला (आदिवासी भाषा), अंग्रेजी, तमिल और हिंदी आदि भाषाएं सीखी हैं। मेरा सीखने का तरीका है पहले सुनना, फिर बोलना, फिर पढ़ना, फिर लिखना और अंत में व्याकरण सीखना। यह हो सकता है हम सीखने में कई बार गलतियां करते हैं, लेकिन मैं इन्हें सुधारने के लिए हमेशा तैयार रहता हूं। अगर हम शुरू से ही यही सोचेंगे कि मुझसे व्याकरण की गलतियां हो जाएंगी तो सीखने की प्रक्रिया आगे कैसे बढ़ेगी?

0 तमिल कैसे सीखी?
00 तमिलनाडु हमारा पड़ोसी राज्य है। मुझे फोटोग्राफी का शौक है। मैं वहां कैमरे से खीची गई फोटो धुलवाने जाया करता था। तमिल भाषा से मुझे प्यार हो गया। मैं उसे सीखने की कोशिश करने लगा। कुछ समय में लिखना-पढ़ना तो सीख गया पर अर्थ नहीं समझ पाता था। जब थोड़ा बड़ा हुआ तो पूरा सीखने के लिए मैंने फिर कोशिश की। रेडियो सुनता था, तमिल फिल्म देखता था। इस तरह तमिल सीख गया।

0 और आपने क्या-क्या सीखा?
00 बहुत लंबी सूची हो सकती है। जैसे इलेक्ट्रानिक्स, वेब डिजाइनिंग, फोटोग्राफी, सिनेमेटोग्राफी, भारत नाट्यम, कर्नाटक संगीत, टाइपिंग, कपड़ा बुनना, केरल मार्शल आर्ट, कुकिंग और जैविक खेती, पशुपालन आदि। बैंगलौर की एक विज्ञापन एजेंसी के साथ एक विज्ञापन बनाने में मदद की। सहायक कैमरामेन का काम किया। इसके अलावा, मलयालम की दो-तीन फिल्मों में सहायक सिनेमेटोग्राफी का काम किया।
हमारे घर में छोटा पुस्तकालय है। उसमें तरह-तरह की किताबें हैं। मेरे मां-पिताजी और अब मेरे भी अलग-अलग क्षेत्र में काम करने वाले मित्र हैं। कई बार मैं उनके साथ उनके काम में सहयोग करते-करते सीखा। यात्राएं करता हूं। जो काम सीखना है उससे जुड़ता हूं। मैं हमेशा सीखता रहता हूं। इस तरह हमारे आसपास ही ज्ञान का भंडार है। अब इंटरनेट से भी हम सीख सकते हैं।

0 यानी आपने काम के साथ सीखा है?
00 जी हां! सीखने की प्रक्रिया यहीं है। आप पुस्तकों से सीखें या सीधे फील्ड में जाकर या लोगों से बातकर, यही प्रक्रिया सीखने की है।






Saturday, November 21, 2009

कम कीमत में बेहतर इलाज की मिसाल है जन स्वास्थ्य सहयोग

अंग्रेजी के टी आकार के बरामदा में लोगों की भीड़ जमा है। सुबह के आठ बजे हैं। इन लोगों मे कई पिछली रात ही यहां पहुंच गए थे। जंगल के दूरदराज के गांवों के ये लोग यहां इलाज कराने के लिए आए हैं। डाक्टर को दिखाने के लिए यहां लाइन में लगना पड़ता है। नंबर लगाने के लिए बरामदे की पट्टी पर अपना गमछा या रस्सी बांध देते हैं। सबको डाक्टर का इंतजार है। यह आम दृ’य है छत्तीसगढ़। के बिलासपुर जिले के एक छोटे से कस्बे गनियारी का। गनियारी बिलासपुर से दक्षणि में 20 किलोमीटर दूर स्थित है।

अब डाक्टरों की गाड़ी आ गई है और बिना देर किए प्रारंभ हो जाता है मरीजों को देखने का सिलसिला। यहां सबसे पहले मरीजों की बात सुनी जाती है फिर जांच की जाती है और बाद में उपचार। डाक्टर पूछते हैं- क्या बीमारी है? जबाव आता है- खांसी। कब से है- बहुत दिनों से । क्या इलाज कराया- दुकान से दवा लेकर खाता रहा। बाद में मुझे डाक्टर ने बताया इस मरीज को टी। बी. है। इसे लापरवाही कहना भी जल्दबाजी होगी क्योंकि इसकी वजहें हैं। लोगों की अपनी कई समस्याएं हैं। वे गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, कुपोषण जैसी कई समस्याओं से चौतरफा घिरे हुए हैं।

इस गैर सरकारी जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र की स्थापना 1999 में हुई। देश की मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं की हालत से चिंतित दिल्ली के कुछ डाक्टरों ने इसकी शुरूआत की। इससे पहले उन्होंने देश भर में घूमकर ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा किया जहां वे अपनी सेवाएं दे सके। और अंतत: देश के गरीब इलाकों मे एक छत्तीसगढ के एक छोटे कस्बे में उन्होंने काम प्रारंभ किया। देश के सबसे चोटी के अस्पताल आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस (एम्स) से निकले युवा डाक्टरों ने यहां गरीबों के लिए स्वास्थ्य का अनूठा अस्पताल बनाया है। उनका यह काम पिछले करीब 10 सालों से चल रहा है। अपने पेशे में गहरी निष्ठा वाले यह चिकित्सक स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई नए प्रयोग कर रहे हैं।

कम कीमत में बेहतर इलाज किया जाता है। इस केन्द्र का उद्देशय है कि ग्रामीण समुदाय को सशक्त कर बीमारियों की रोकथाम और इलाज करना। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों की स्वास्थ्य समस्याओं का अध्ययन करना, उनकी पहचान करना और कम कीमत में उचित इलाज करना। इस केन्द्र की उपयोगिया का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2000 में बिना किसी उद्घाटन के ओ।पी.डी. शुरू हुई और मात्र 3 महीने के अंदर ही यहां प्रतिदिन आने वाले मरीजों की संख्या 250 तक पहुंच गई।

गनियारी में जन स्वास्थ्य का प्रमुख केंद्र स्थित है। यहां 15 बिस्तर का अस्पताल है। आपरेशन थियेटर है जो सप्ताह में तीन दिन चलता है। यहां 12 पूर्णकालिक डाक्टर हैं। यहां के जांच कक्ष में सभी तरह की जांच की जाती है। 80 प्रिशक्षति कर्मचारियों का स्टाफ है। दूरदराज के और गंभीर मरीजों के लिए एम्बुलेंस की सुविधा उपलब्ध है। यहां करीब 11 सौ गांवों के लोग इलाज कराने आते हैं। इसके अतिरिक्त यहां स्वयंसेवी संस्थाओं और संगठनों से जुड़े इच्छुक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को भी प्रिशक्षति किया जाता है।

सामुदायिक कार्यक्रम के प्रमुख डा। योगेश जैन कहते हैं कि हमारे काम की सीमा है, सरकार ही इस काम को बेहतर ढंग से कर सकती है। लोगों को पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं है। बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि यह प्रयोग अंधेरे में उम्मीद बंधाता है जो सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।

यह रपट दो वर्ष पहले बनाई गयी थी पर आज भी गनियारी में जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र संचालित किया जा रहा है। रपट के कुछ अंश प्रस्तुत हैं।