Thursday, March 4, 2010

फसल उत्पादन ही नहीं, एक जीवन पद्धति है खेती

पिछले दिनों मैं अपने एक मित्र के बुलावे पर उनके खेत गया। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखंड के डापका गांव में हम गए। खेत में चना की कटाई चल रही है। साथ में बेटा और एक अन्य मित्र भी थे।

सतपुड़ा की तलहटी में हरे-भरे खेत थे। चारों तरफ गेहूं, चना, मसूर, मटर और अरहर की फसलें थीं। सिंचाई की सुविधा नहर से थी। आजादी के बाद पहली पंचवर्षीय योजना में यहां एक नदी पर डोकरीखेडा बांध बनाया गया था, जिससे यहां खेतों की सिंचाई होती है। लेकिन इस बांध में भी पानी की कमी रहती है। अनियमित व कम वर्षा के कारण पिछले साल बांध सूखा था। लेकिन इस साल पर्याप्त पानी है। समीप के गांव झिरिया में एक स्टापडेम बनाकर इसमें पानी की नहर जोड दी गई है।

शाम का समय था। चने की खेत कटाई चल रही है। मित्र के माता-पिता दोनों मिलकर कटाई कर रहे थे। झुंड में पक्षी फसलों में दाने चुग रहे थे। मचान से मित्र के पिता पक्षियों को भगाने के लिए हुर्र-हुर्र चिल्ला रहे थे। सामने सतपुड़ा की लबी पर्वत श्रृंखला थी। मेढ पर बैल चर रहे थे।

हमारा होरा (भुने हुए हरे चने) खाने का कार्यक्रम था। मित्र और मैं बेर की सूखी टहनियां एकत्र कर रहे थे, जिससे चना भून सकें। मेढ पर लगे बेर पक कर झर गए थे। कहीं-कहीं बेर भी लगे थे। मैं टहनियां बीनने के साथ बेर भी तोड कर खा रहा था। उधर बेटा मटर के खेत में हरी फल्लियां तोड कर खाने लगा।

अब हमने चने को भूनने के लिए सूखी टहनियां एकत्र कर ली है। मित्र की मां ने हरे चने काटकर दे दिए हैं। टहनियों पर हरे चने बिछाए जा रहे हैं। आग सुलगाने के लिए सूखी पत्तियां एकत्र कर आग लगा दी गई। आग धू-धू कर जलने लगी है। चना की घेटियां (दाने) फूटने लगे हैं। भुने चनों की खुशबू हमारे नथुनों में भर रही थी। आग से चने जल न जाए, इसलिए मित्र ने उलटने-पलटने के लिए एक डंडा हाथ में ले रखा है। उससे वे आग में चना भून रहे हैं। पलाश की हरी टहनियों से आग बुझाई जा रही है।

अब होरा भुन गया है। हम सब उसे बीन-बीनकर खाने में लगे हैं। खेती-किसानी पर बात-चीत चल रही है। मित्र बता रहे थे हमने चना में किसी भी प्रकार की रासायनिक खाद नहीं डाली है। कीटनाशक का इस्तेमाल नहीं किया है। उन्होंने कहा कि अब तो कटाई भी कंबाईन हारवेस्टर से होने लगी है। लेकिन हम खेती का सब काम खुद ही करते हैं।

शाम ढल चुकी है। होरा (भुने चने) खत्म हो गए थे। कुछ बचाकर घर के लिए थैले में रख लिए। लौटने का समय हो गया है। हम घर लौटने लगे। गांव में आए। वहां हर घर के पीछे एक बाड़ी देखी। बाडी में बैंगन, सेमी, आलू और फलदार वृक्ष देखकर बहुत ही अच्छा लगा। हालांकि मैदानी क्षेत्रों में बाड ी अब नहंी के बराबर हैं। लोगों ने बाडी के स्थान पर मकान बना लिए हैं। जबकि जंगल पट्‌टी में बाडि यां अब भी देखी जा सकती है। बाडि यों से हरी सब्जियां मिलती हैं। हमारी ग्राम्य जीवनद्गौली की सबसे बडी विशेषता भी यही थी कि वह स्वावलंबी थी। खेती-बाडी भी स्वावलंबी थी। अब परावलंबी हो गई।

अब खेती में बीज से लेकर रासायनिक खाद, कीटनाशक, बिजली सब कुछ खरीदना पड ता है। टे्रक्टर से बुआई-जुताई, कंबाईन हारवेस्टर से कटाई होने लगी है। लागत बढ ती जा रही है। उपज घटती जा रही है। ज्यादा पानी, ज्यादा रासायनिक खाद, ज्यादा कीटनाशक आदि के कारण जमीन की उर्वरा द्यशक्ति घटती जा रही है। कुल मिलाकर सबका अन्नदाता किसान संकट में है।

लौटते समय मित्र ने ज्वार भी दिखाई। मसूर और ज्वार जैसी फसलें अब बहुत कम होने लगी हैं। अरहर का उत्पादन तो बहुत कम हो गया है। इस कारण इसके दाम आसमान छूने लगे हैं। पहले किसान भोजन की जरूरत के मुताबिक फसलचक्र को अपनाता था। अब उत्पादन और नगद पैसों से फसल का चुनाव होता है।

लेकिन असिंचित और कम सिंचाई में खाद्य सुरक्षा संभव है। यह सतपुडा की जंगल पट्‌टी के गांवों को देखकर कहा जा सकता है। लेकिन अब मौसम परिवर्तन होने लगा है। अगर बारिश बिल्कुल न हो तो असिंचित खेती भी संकट में हो जाती है। इन समस्याओं पर विचार करना जरूरी है।

कुल मिलाकर, आज डापका के खेत की सैर, होरा खाने का आनंद हमारी स्मृतियों के पन्नों में सदैव रहेगा। लेकिन मौसम परिवर्तन की मार से यह कब तक बचे रहेंगे, यह देखने वाली बात है।

3 comments:

  1. बढि़या लेख है। मैंने इसे अपने ब्‍लॉग खेत खलियान पर आपसे बिना पूछे डाल दिया है।
    http://khetkhaliyan.blogspot.com/2010/03/blog-post.html

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  2. धन्यवाद, आप मेरे ब्लोग से लेख ले सक्ते हैं। इसमे पूछ्ने की जरुरत नहीं है।

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  3. Rajendra Singh has also reinvented participatory democracy adn civic life in villages of Alwar and ares around it..... your blog reminds me of those villages.. there also most of the agriculture is organic. have you written any piece on Rajendra Singh

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