Wednesday, May 12, 2010

मीडिया शिक्षा का अभिनव प्रयोग

दिव्या, जानकी, दीक्षा, मनीषा,रामकुमार, गोविंद आदि स्कूली बच्चे हाथ में पेन-कापीलिए साक्षात्कार ले रहे थे। डापका गांव के पूर्व सरपंच लक्ष्मण प्रसाद मेहरा और कोरकू  रानी रेवाबाई अपने ही गांव के बच्चों को नई भूमिका में देखकर भाव विह्वल हो गईं। बच्चे सवाल पर सवाल किए जा रहे थे और गांव के लोग उन्हें सुखद आश्चर्य से देख रहे थे। यहां चाहे घरों में काम करती महिलाएं हों या खेत जाने वाले किसान,  दूकान पर बैठे दुकानदार हों या स्कूल के शिक्षक सबसे बच्चों ने सबके साक्षात्कार लिए।  अलग-अलग टोलियों में विभक्त बच्चे पेशेवर पत्रकारों की तरह चर्चा कर रहे थे।

यह दृश्य था मध्यप्रदेश में होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखंड के एक छोटे से गांव डापका का। यह गांव सतपुड़ा की घाटी की गोद में बसा है। यहां आदिवासी ज्यादा हैं। पिपरिया विकासखंड मुखयालय से यहां की दूरी लगभग १५ किलोमीटर है। यहां के बच्चे अखबार से ज्यादा परिचित नहीं हैं और न ही टेलीविजन पर समाचार सुनते हैं। गांव के लोगों की माली हालत अच्छी नहीं है। खेती-किसानी के अलावा वनोपज और जंगल से निस्तार होता है। कुछ लोग हम्माली के काम के लिए पिपरिया आते हैं।

इस गांव में हमने शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत एकलव्य संस्था के सहयोग से मीडिया कार्यशाला का आयोजन किया । स्कूली बच्चों के साथ मीडिया कार्यशाला का यह मेरा पहला प्रयोग था। इसके पहले मैं ग्रामीण पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ ऐसी कार्यशाला कर चुका हूं। कार्यशाला में माध्यमिक स्तर के ३५ बच्चे शामिल थे। यह कार्यशाला ७ मई से १० मई तक चली।

इस दौरान पहले दो दिनों में मीडिया के विभिन्न माध्यमों का बच्चों पर क्या असर होता है, खबर कैसे बनती है और उन्हें कैसे लिखा जाता है, इस पर चर्चा की गई।  संपादक के नाम पत्र और साक्षात्कार के लिए क्या-क्या तैयारी चाहिए, इस पर प्रकाश डाला गया और इसके अभ्यास किए गए। तीसरे दिन गांव का दौरा किया।   ग्रामीणों से कई मुद्‌दों पर बच्चों ने बातचीत की। जिसमें बिजली कटौती, पीने के पानी की समस्या, फसल की रखवाली, नरवाई (हारवेस्टर की कटाई के बाद गेहूं के ठंडलों में आग लगाई जाती है) से नुकसान, गांव का विकास कैसा होना चाहिए आदि मुद्‌दे शामिल थे। चौथे और अंतिम दिन इन मुद्‌दों पर चमत्कार, नजर, पहल, कोयल, हाथी, कबूतर, सोनपरी आदि दीवार अखबार तैयार किए गए।

बिजली कटौती से आटाचक्की नहीं चलती और आटा पिसाई नहीं हो पाती, यह बात समझी जा सकती है। लेकिन पड़ोसी के घर से आटा मांगकर रोटी बनाई जाती है, यह बहुत कम लोग जानते हैं। हमारे साथ आए कुछ शहरी मित्रों को यह जानकारी भी नई थी कि फसल को कैसे सुअरों से नुकसान होता है।  जबकि जंगल क्षेत्र में यह समस्या आम और विकट है। जंगली जानवर और खासतौर से सुअर उनकी गेहूं- चना की फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं। इन सभी समस्याओं पर बच्चों ने न केवल इन पर समाचार बनाएं बल्कि सुअर की नकल उतार कर भी बताई। जिस दिन से यहां खेतों में गेहूं-चना का बीज बोया जाता है उसी दिन से रखवाली करनी पडती है। खेत में डेरा डालकर रहना पडता है। अन्यथा जंगली जानवर सुअर, हिरण आदि उनकी फसलों को चौपट कर देते हैं। यह वैसा ही है कि नजर हटी कि दुर्घटना घटी।


स्कूली बच्चों को मीडिया शिक्षा की जरूरत महसूस की जाती रही है।  मीडिया का उन पर कई तरह से असर देखा जा सकता है। नकारात्मक असर की  खबरें आती रहती हैं। उन पर सिनेमा, टेलीविजन, रेडिया और समाचार पत्रों का असर देखा जाता है। जिनमें से आक्रामक हिंसा, नकल, फैशान और उपभोक्ता संस्कृति की ओर रूझान प्रमुख है। लेकिन मीडिया का सकारात्मक असर भी हो सकता है। शॆक्षणिक और सृजनात्मक असर भी हो सकता है, इस पर कम ही ध्यान दिया जाता है। अपने अनुभव और अवलोकन को शब्दों में कैसे अभिव्यक्त कर सकते हैं यह कार्यशाला का एक उद्‌देशय था। एकलव्य के जुडे चंदन यादव ने लेखन को चित्र और कार्टून से जोड कर बच्चों को बताया। एकलव्य पिपरिया के गोपाल राठी, कमलेशा भार्गव और राकेशा कारपेंटर ने पूरी कार्यशाला का संयोजन किया और भोपाल से आईं दीपाली ने उपयोगी सुझाव दिए।

आम तौर पर मीडिया वन-वे दिखाई देता है। वह खबरें या कार्यक्रम देता है और हम उसे देखते हैं। चाहे फिल्मों हो, टेलीविजन हो, रेडियो हो और समाचार पत्र. हों, ये सभी माध्यम वन-वे ही हैं। इनमें दर्शाकों की भूमिका सिर्फ दर्शक तक है। जबकि चाहे मनोरंजन की बात हो या संवाद की, इनमें भागीदारी बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती थी। लेकिन बच्चों में यह दृ्‌ष्टि विकसित करना कि वे खबर के पीछे की खबर को जान सकें। उन पर बात कर सकें और उनमें आलोचनात्मक और विशलेषणात्मक क्षमता विकसित की जा सके। वे मीडिया की बारीकियां समझ सकें और उनमें लेखन कौशाल विकसित हो सके।

कार्यशाला में यह कोशिश की गई कि बच्चों से संवाद बनाया जाए और वे भी इस पूरी प्रक्रिया में शामिल हों और हम बहुत हद इसमें सफल भी हुए। आखिरी दिन यह कोशिश सफल हुई जब उन्होंने खुद अपनी-अपनी टोलियों में दीवार अखबार तैयार किए। अखबार के नाम रखने से लेकर संपादन तक की भूमिका उन्होंने निभाई। वे अपने-अपने काम में इतने मनोयोग और तन्मयता से लगे थे, उन्हें देखते ही बनता था। मैं यह सोच रहा था कि ऐसा माहौल स्कूलों में क्यों  नहीं बन सकता?