Thursday, August 18, 2011

भ्रष्टाचार की लड़ाई को वैकल्पिक राजनीति से जोड़ना होगा

भ्रष्टाचार पर अन्ना हजारे के आंदोलन को अभूतपूर्व समर्थन मिल रहा है। सरकार और अन्ना आमने सामने आ गए हैं। उन्हें गिरफतार कर जेल भेज दिया है और उन्होंने जेल में ही अनषन जारी रखा है। इधर देश भर में उनके आंदोलन के समर्थन में रैली, धरना और मोमबत्ती जलाकर समर्थन दिया जा रहा है। सरकार सांसत में है।


जब भी अपने देश में कोई समुदाय या व्यक्ति अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ता है या व्यवस्था पर सवाल उठाता है तो सरकार उसकी बात सुनने के बजाय उसे दबाने की भरसक कोशिष करती है। हाल ही में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बाबा रामदेव ने दिल्ली में अपना आंदोलन शुरू किया था तो पुलिस ने आधी रात को पहुंचकर उन्हें बलपूर्वक वहां से खदेड़ दिया था। समर्थकों पर डंडे बरसाए गए थे। और अब अन्ना के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है।

इस सरकार की तरफ से ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है जिसमें हठधर्मिता और तानाशाही की बू आती है। डंडे का जोर दिखाया जा रहा है। हालांकि जन समर्थन को देखते हुए अब सरकार के रूख में नरमी आई है। जिस तरह से अन्ना को मीडिया का समर्थन मिल रहा है, वह स्वागत योग्य है। लेकिन जमीनी संघर्शों और जल, जंगल और जमीन की लड़ाईयों को उचित स्थान नहीं मिल पा रहा है।

देश के कई कोनों में इस समय जमीनी स्तर पर कई आंदोलन चल रहे हैं। उनका दमन करने की खबरें आती रहती हैं। उनके कार्यकर्ताओं पर मुकदमे और उन्हें जेल कर दी जाती है। वही रामदेव के साथ हुआ और वैसा ही अन्ना हजारे के साथ करने की तैयारी लग रही है। म्ुाुद्दे से हटकर उसे संसद और सिविल सोसायटी के बीच टकराव की तरह पेश किया जाता है।

अन्ना की मुहिम मौजू हैं, उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता। क्योंकि यह एक ऐसा मुद्दा है जो देश केा खोखला कर रहा है। ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार फैला हुआ है। क्या नेता और क्या अफसर सभी इसमें डूबे हुए हैं। इनका ठेकेदार, कंपनियों पूंजीपतियों, दलालों और माफियाओं के साथ गठजोड़ बन गया है। घोटाले पर घोटाले सामने आ रहे हैं। पहले कुछ लाख या करोड़ के घोटाले होते थे, अब लाख करोड़ तक पहुंच गए हैं।

ताजा मामला 2 जी स्पेक्टम घोटाले का है जिसकी राषि 1.74  लाख करोड़  है। इस मामले में ूर्व मं.त्री ए राजा जेल में हैं। इसी मामले में तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री की बेटी कोनीमोझी भी जेल में हैं। राष्ट्रमंडल घोटाले के आरोप में सुरेश कलमाडी जेल की हवा खा रहे हैं।

जानकारों का मानना है कि इन घपलों-घोटाला का दौर का गहरा संबंध उदारीकरण और वैष्वीकरण की नीतियों से है। वे मानते हैं कि वर्ष 1991 में जब से ये नीतियों देश में लागू हुई हैं। इसमें देशी-विदेशी कंपनियों की बड़ी भूमिका है।

सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के अलावा बाजार का भी भ्रष्टाचार बढा है। शिक्षा और चिकित्सा में बाजार की बेतहाशा लूट बढ़ी है। जो कानूनी रूप से तो वैध हो सकती हैं लेकिन जनता को लूटा जा रहा है। जैसे स्कूल या डॉक्टरों की अनाप-शनाप शुल्क वसूली। आजकल शिक्षा एक फलता-फूलता व्यापार है, इसमें आम लोगों की गाड़ी कमाई का पैसा लूटा जा रहा है। शायद इसे कानून बनाकर भी रोकना मुश्किल है। जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों को कंपनी और उद्योगों को सौंपा ाज रहा है। इसमें भी काफी भ्रष्टाचार हो रहा है।

अब सवाल यह है कि भ्रष्टाचार कैसे खत्म होगा? इसके सामाजिक और आर्थिक की पड़ताल जरूरी है। छोटे और बड़े भ्रश्टाचार में अंतर करना जरूरी है। एक साधारण व्यक्ति के भ्रश्टाचार और सत्ता में बैठे लोगों के भ्रष्टाचार का अंतर करना जरूरी है। भ्रश्टाचार का एक आयाम उपभोक्तादी संस्कृति भी है, जिस पर सोचना जरूरी है। देश में अलग-अलग चल रहे छोटे-छोटे आंदोलनों को इससे जोड़ना पड़ेगा और सबसे जरूरी है कि इसके लिए जनता को जागरूक होना पड़ेगा।

यह सही है कि कुछ हद तक लोकपाल जैसे कानून से लगाम लगेगी पर पूरी तरह नहीं। धर्म, संस्कृति से अच्छाई का संदेश लोगों को मानव मूल्यों से संचालित करता है। गांधी के विचार हमारा मार्गदर्षन कर सकते हैं। यानी इस मामले में एक व्यापक दृष्टि जरूरी है तभी इस अभूतपूर्व चेतना से एक वैकल्पिक राजनीति बन सकती है, जो देश की जरूरत है।

Thursday, June 9, 2011

जंगल हमरा मायका, जंगल ही ससुराल

दुपहरी का समय था। भोजन करके लोग आराम कर रहे थे। हम गांव के अंतिम छोर पर स्थित घर में जाकर रुके। इस घर में महिलाओं के अलावा कोई पुरुष सदस्य नहीं था। बच्चे उघारे बदन खेल रहे थे। महिलाएं थक-हारकर खटिया पर आराम कर रही थी। वे सुबह महुआ बीनने गई थीं। यह दृष्य होषंगाबाद जिले में सोहागपुर विकासखंड कें वनग्राम ढाबा का है।


आदिवासी और जंगल एक दूसरे के पूरक हैं। उनमें परस्पर सहअस्तित्व है। 50 की उम्र पार कर चुकी सनिया बाई जंगल से निस्तार के बारे में कहती हैं कि जंगल ही हमारा जीवन है। हम जंगल से हैं और जंगल भी हमसे है। जंगल के बिना आदिवासी का जीवन वैसा ही है जैसा पानी के बिना मछली।

वे आगे कहती है कि जंगल के सहारे हमारी कई पीढियां बीत गईं। छुटपन से लेकर अब तक उनकी पूरी जिंदगी ही जंगल में ही बीती है। छोटे से ही जंगल में अपने मां-बाप के साथ जाने लगी थी। मायके के गांव खडपाबड में स्कूल तो था नहीं इसलिए शुरू से ही घर के काम में हाथ बंटाने लगी। मुझे उनकी बात सुनकर पिपरिया के युवा कवि का एक दोहा याद आ गया -जंगल हमरा मायका, जंगल ही ससुराल, जंगल भीगी आंख है, जंगल आंखें लाल।

आमतौर पर जब हम जंगल में रहने वाले आदिवासियों के विकास के बारे में बात करते हैं तो वह मौद्रिक चीजों के बारे में ही केंद्रित होती है। लेकिन जंगल से कई तरह की अमौद्रिक चीजें मिलती हैं, उन पर ध्यान नहीं जाता, जो रोजमर्रा की बड़ी जरूरतें पूरी करती हैं। ये सब उन्हें प्रचुर मात्रा में निःशुल्क उपलब्ध होती हैं। और अब इसे वन अधिकार कानून ने भी मान्यता दे दी है।

सनिया कहती हैं कि जंगल से पहले बहुत सी चीजें मिलती थीं। तवा बांध में बहुत सा जंगल डूब गया। इस कारण अब बहुत कम वनोपज मिलती है। पहले जंगल कोयला बनाने के लिए काटा गया। यहां से ट्रकों कोयला बाहर जाता था।

वह बताती है कि पहले हमें महुआ, गुल्ली, शहद, तेंदू, तेंदूपत्ता, अचार, मेनर, आंवला, रामबुहारी, पत्तल-दोने, भाभर घास, भमोड़ी (मशरूम) सब कुछ मिलता था। बांस और घर की मरम्मत करने के लिए लकड़ी मिलती थी। लेकिन अब इसमें कमी आई है।

इसके अलावा बच्चों के लिए पोषण की चीजें निःशुल्क मिलती है। उन्होंने इसकी लंबी फेहरिस्त बनवाई-बेर, जामुन, अमरूद, मकोई, सीताफल, आम और कई तरह के फल-फूल सहज ही उपलब्ध हो जाते थे। और बहुत से अब भी मिलते हैं।

आदिवासी जंगल, पेड, पत्थर को देवता मानता है। उनका जीवन प्रकृति से बहुत करीब है। आदिवासी का जंगल के साथ मां-बेटे का रिश्ता है। वे जंगल से उतना ही लेते हैं जितनी उनको जरूरत है। सबसे कम प्राकृतिक संसाधनों में गुजर-बसर करने वाला है आदिवासी समुदाय।

लेकिन होशंगाबाद जिले में आदिवासी कई परियोजनाओं से विस्थापित हुए हैं। उन्हे अपने घरों से बेदखल होना पड़ा है। यहां 1970 में बने तवा बांध से 44 गांव और भारतीय फौज द्वारा गोला-बारूद के परीक्षण के लिए बनाई गई प्रूफरेंज के लिए 26 गांव विस्थापित किए गए। इसके बाद आर्डिनेंस फैक्टी में 9 गांवों के लोगों की जमीनें गईं। फिर 1981 में सतपुड़ा नेशनल पार्क में 2 गांवों की जमीनें गईं। कुल मिलाकर, 80 गांव विस्थापित हुए। जिन्हें नाममात्र का मुआवजा मिला। इससे जंगल भी नष्ट हुआ और लोगों का निस्तार भी प्रभावित हुआ।

अब वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए सतपुड़ा टाइगर रिजर्व बनाया गया है। इसमें पहले से संरक्षित तीन क्षेत्र ष्षामिल किए गए है- सतपुड़ा राश्टीय उद्यान, बोरी अभयारण्य और पचमढ़ी अभयारण्य। सतपुड़ा टाइगर रिजर्व का क्षेत्रफल करीब 1500 है। इसमें निस्तार के लिए कई तरह की पाबंदियां लगाई जा रही हैं। इसलिए भी वन अधिकार कानून के तहत अधिकार महत्वपूर्ण है।

अब पहली बार वन अधिकार कानून के तहत् आदिवासियों के अधिकारों को मान्यता मिल रही है। इससे आदिवासियों को उम्मीदें हैं। लेकिन इस कानून को ढंग से क्रियान्वयन नहीं किया जा रहा है।

आदिवासियों को वन अधिकार कानून के तहत जमीन के अधिकार के साथ सामुदायिक अधिकार भी दिया जाना है। इस कानून के अनुसार जंगल से निस्तार, लघु वनोपज का अधिकार और जंगल में अपने मवेशी चराने का अधिकार मिलेगा। इसके अलावा, पानी, सिंचाई, मछली एवं पानी की अन्य उपज का अधिकार भी मिलेगा।

सनिया बाई या उसकी जैसी अन्य महिलाओं को वन अधिकार कानून के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। लेकिन जमीन का अधिकार मिलने से वह खु्श थी। उसने हमें अधिकार पत्र भी दिखाया। पर सामुदायिक अधिकार का दावा गांव की तरफ से हुआ है या नहीं वह नहीं बता सकी।

ग्राम वन अधिकार समिति, मगरिया के अध्यक्ष व सरपंच अषोक कुमार कुमरे का कहना है कि सामुदायिक दावा की उन्हें जानकारी नहीं थी। उन्हें वन अधिकार कानून की प्रक्रिया की कोई जानकारी सरकारी स्तर पर नहीं दी गई और न ही कोई प्रशिक्षण दिया गया। उन्होंने कहा कि दावा फार्म इतना कठिन और जटिल था कि हमारे पल्ले ही नहीं पड़ा।

आदिवासी विकास, होशंगाबाद के सहायक आयुक्त के द्वारा जारी की गई जानकारी के अनुसार सामुदायिक दावों की संख्या मात्र 23 है। एक जिले के हिसाब से यह संख्या बहुत ही कम है। इसका साफ मतलब है कि सामुदायिक दावे जानकारी के अभाव में नहीं भरे गए हैं, जिन्हें भरवाए जाने चाहिए। क्योंकि जमीन के अधिकार के सामुदायिक अधिकार भी जरूरी है, जो कानून के अनुसार भी दिए जाने चाहिए।

(यह लेख विष्व पर्यावरण दिवस के मौके पर सर्वोदय प्रेस सर्विस, इंन्दौर से 27 मई  को जारी हो चुका है)

Thursday, April 21, 2011

ग्रामीण कार्यकर्ताओं की लेखन कार्यशाला


 जब कभी मै लेखन या मीडिया कार्यशाला करता हूं तब इस सवाल से सामना होता है कि लेखन कैसे शुरू करें? यह सवाल मौजूं है। पर जब मैं कहता हूं कि लिखना लिखने से आता है। जैसे बोलने से बोलना आता है, चलने से चलना आता है या पढ़ने से पढ़ना आता है। तो कई बार यह सीधी बात समझ नहीं आती। सिद्धांतत इसे मान भी लिया जाए तो भी बात आगे नहीं बढ़ पाती। लेखन शुरू नहीं हो पाता।


10 से 12 मार्च तक उज्जैन में लेखन कार्यशाला हुई। इस कार्यशाला में यह सवाल एक कैथोलिक सिस्टर ने किया। मैंने पूछा आखिर लेखन शुरू करने में क्या दिक्कत आती है? जवाब आया- अच्छे शब्द नहीं मिलते। अगर अच्छे शब्द से उनका मतलब उत्कृष्ट और मानक हिन्दी के शब्दों से है तो माफ कीजिए इससे बचना जरूरी है। लिखने के लिए जरूरी है जैसा हम सोचते हैं, वैसा लिखें, शब्दजाल में न फंसे।

लेखन करने से पहले जानकारी चाहिए। जैसे रोटी बनाने के लिए आटा चाहिए। या किसी चिड़िया को घोंसला बनाने के लिए घास के छोटे-छोटे तिनके चाहिए। इसी प्रकार हमें पाठक की जिज्ञासाओं को ध्यान में रखकर जानकारी जुटाना चाहिए। क्या,कब, कहां, कौन, क्यों और कैसे जैसे सवालों के जवाब चाहिए। जिसे पत्रकारिता की भाशा में 5 डब्ल्यू और एक एच कहा जाता है। इसके लिए हमेशा कापी-पेन साथ में हो और कोई नई जानकारी मिले तो तत्काल नोट करना चाहिए।

कई बार हम लिखने के लिए बैठते हैं और एक लाइन लिखते हैं। फिर उसे काटते हैं। यह अभ्यास चलता रहता है। थक-हार कर हम एक तरफ कलम-कागज समेटकर रख देते हैं। सोचते हैं कि यह हमारे वश का काम नहीं। है। अगर जानकारी हो तो सरल शब्दों में अपनी बात लिखें तो शायद यह दिक्कत नहीं आएगी। मैंने ऐसे कई प्रतिभागियों को देखा है कि अगर उन्हें सिरा पकड़ में आ जाए तो वे एक बार शुरू होते हैं तो लिखते ही जाते हैं। जैसे कोई महिला सब्जी काटने बैठती है तो फिर काटती ही जाती है। फिर रूकती नहीं। लेखन भी मु्श्किल नहीं। बशर्ते उनके पास कहने को कुछ हो। अनुभव या जानकारी हो।

काल्पनिक या अमूर्त ढंग से न लिखकर किसी वास्तविक घटना पर लिखना अच्छा रहता है। आंखों देखा हाल, डायरी या विवरणात्मक ढंग से किसी घटना को लिखा जा सकता है। इसी प्रकार बहुत सारे मुद्दो पर न लिखकर किसी एक मुद्दे पर उसके अलग-अलग पहलुओं पर लिखना चाहिए। कभी-कभी हम लिखते समय ही गलत-सही का विचार कर उसमें काटा-पीटी करने लगते हैं। इससे बचें तो ठीक रहेगा। एक बार लिखने के बाद यह काम बाद में इत्मीनान से किया जा सकता है।

इस कार्यशाला में 20 प्रतिभागी थे जिसमें अधिकांश गैर सरकारी संस्था कृपा वेलफेयर सोसायटी के कार्यक्रम संयोजक व ग्रामीण कार्यकर्ता थे। हमने इन दिनों में संपादक के नाम पत्र, खबरें बनाना, केस स्टडी, समूह चर्चा के आधार पर रिपोर्ट बनाने का अभ्यास किया। इसके साथ ही फील्ड विजिट भी की।

उज्जैन के पास कोल्हूखेड़ी गांव गए, जो जहां सपेरा समुदाय के लोग रहते हैं। घुमतू समुदाय के लोग पहले इधर-उधर जा-जाकर अपना पेट पालते थे। लेकिन अब कोल्हूखेड़ी में स्थाई बस गए हैं। हालांकि अब इनका परंपरागत काम यानी सांप पकड़ना और उसे लेकर भीख मांगना बहुत कम हो गया है। ये अब मजदूरी का काम भी करते हैं।

तीन समूहों में विभक्त हमारे प्रतिभागियों ने यहां बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों से साक्षात्कार लिए। और इसके आधार पर वापस कक्षा में आकर दीवार अखबार तैयार किए। जिसका हर समूह ने प्रस्तुतिकरण किया। इस अवसर पर संस्था के संचालक फादर सुनील उज्जाई ने दीवार अखबार पर टिप्पणी की और सबका आभार माना।

Tuesday, March 22, 2011

कुदरती खेती का एक अनूठा प्रयोग

एशियन कॉलेज औफ जर्नालिज्म के छात्र-छात्राएं
पिछले दिनों मैं होशंगाबाद के राजू टाइटस फार्म गया, जहां वे पिछले 25 बरस से कुदरती खेती कर रहे हैं। मध्यप्रदेश में होशंगाबाद-भोपाल रोड़ पर स्थित टाइटस फार्म की शहर से दूरी करीब 3 किलोमीटर है।

मेरे साथ चैन्नई के मशहूर एशियन कॉलेज औफ जर्नालिज्म के प्रतिभाशाली छात्र-छात्राएं भी थे। राजू भाई ने द्वार पर हमारा स्वागत इस सवाल के साथ किया कि क्या आपने पीपली लाइव देखी है। वे बोले- आज हर किसान नत्था बन गया है। इन दिनों मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्या के समाचार लगातार आ रहे हैं।

कुछ कदम चलते ही हम गेहूं के खेत में पहुंच गए। हवा के साथ गेहूं के हरे पौधे लहलहा रहे थे। हम एक पेड़ की छाया तले खड़े होकर राजू भाई का अनुभव सुन रहे थे। कुछ अचरज की बात यह थी कि खेत में फलदार और अन्य जंगली पेड़ थे जिनके नीचे गेहूं की फसल थी। आम तौर पर खेतों में पेड़ नहीं होते हैं। लेकिन यहां अमरूद, नीबू और बबूल के पेड़ों के नीचे गेहूं की फसल थी। अमरूद के फलों से लदे पेड़ देखकर सुखद आश्चर्य हो रहा था।



राजू टाइटस
वे बताते हैं कि पेड़ों के कारण खेतों में गहराई तक जड़ों का जाल बुना रहता है। और इससे भी जमीन ताकतवर बनती जाती है। अनाज और फसलों के पौधे पेड़ों की छाया तले अच्छे होते हैं। छाया का असर जमीन के उपजाऊ होने पर निर्भर करता है। चूंकि हमारी जमीन की उर्वरता और ताकत अधिक है, इसलिए पेड़ों की छाया का फसल पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता।

आधुनिक खेती या रासायनिक खेती प्रकृति के खिलाफ है। रासायनिक खादों व कीटनाशको से हमारी खेतों की मिट्टी की उर्वरता खत्म हो रही है। मिट्टी में मौजूद जीवाणु और जैव तत्त्व मर रहे हैं। जबकि कुदरती खेती,, प्रकृति के साथ होती है। यद्यपि प्राकृतिक खेती की शुरूआत जापान के कृपि वैज्ञानिक फुकुओवा ने की है। लेकिन हमारे यहां भी ऐसी खेती होती रही है। मंडला के बैगा आदिवासी बिना जुताई की खेती करते हैं जिसे झूम खेती कहते हैं।

यहां बिना जुताई (नो टिलिग) और बिना रासायनिक खाद के यह कुदरती खेती की जा रही है। बीजों को मिट्टी की गोली बनाकर बिखेर दिया जाता है और वे उग आते हैं। यह सिर्फ खेती की एक पद्धति भर नहीं है बल्कि जीवनशैली है। यहां का अनाज और फल जैविक हैं और पानी और हवा शुद्ध है। यहा कुआं है, जिसमें पर्याप्त पानी है।

रासायनिक खेती का दुष्प्रभावों का उन्हे प्रत्यक्ष अनुभव है। वे खुद पहले रासायनिक खेती करते थे। पर उसमें लगातार हो रहे घाटे और मिट्टी की उर्वरता कम होने के कारण उसे छोड़ दिया। लेकिन उन्होंने फुकुओवा की किताब एक तिनके से क्रांति को पढ़कर फिर खेती की ओर रूख किया और तबसे अब तक कुदरती खेती कर रहे हैं।

बिना जुताई के खेती मुश्किल है, ऐसा लगना स्वाभाविक है। जब पहली बार मैंने सुना था तब मुझे भी वि्श्वास नहीं हुआ था। लेकिन देखने के बाद सभी शंकाएं निर्मूल हो गई। दरअसल, इस पर्यावरणीय पद्धति में मिट्टी की उर्वरता उत्तरोतर बढ़ती जाती है। जबकि रासायनिक खेती में यह क्रम्शः घटती जाती है। और एक स्थिति के बाद उसमें कुछ भी नहीं उपजता। वह बंजर हो जाती है।

करीब 12 एकड़ के फार्म में सिर्फ 1 एकड़ में खेती की जा रही है और बाकी 11 एकड़ में सुबबूल (आस्टेलियन अगेसिया) का जंगल है। सुबबूल एक चारे की प्रजाति है। आगे नाले को पार कर हम जंगल में पहुंच चुके थे। यहां कुछ मजदूर महिलाएं लकड़ी सिर पर रखकर ले जा रही थी जबकि कुछ पुरु्श पेड़ों से टहनियों की कटाई-छंटाई कर रहे थे।

राजू भाई बताते हैं कि हम खेती को भोजन की जरूरत के हिसाब से करते हैं, बाजार के हिसाब से नहीं। हमारी जरूरत एक एकड़ से ही पूरी हो जाती है। यहां से हमंे अनाज, फल और सब्जियां मिलती हैं, जो हमारे परिवार की जरूरत पूरी कर देते हैं। जाड़े मे गेहूं, गर्मी मे ंमक्का व मूंग और बारि्श में धान की फसल ली जाती है।

सुबबूल के जंगल से हमें मवे्शियों का चारा और लकड़ियां मिल जाती हैं। लकड़ियों का टाल है, जहां से जलाऊ लकड़ी बिकती हैं, जो हमारी आय का मुख्य स्त्रोत है। उनके मुताबिक वे एक एकड़ जंगल से हर वर्ष करीब ढाई लाख रू की लकड़ी बेच लेते हैं।

आमतौर पर किसान अपने खेतों से अतिरिक्त पानी को नालियों से बाहर निकाल देते हैं लेकिन यर्हां ऐसा नहीं किया जाता। वे कहते हैं कि हम खेतों को ग्रीन कवर करके रखते हैं। बारि्श में कितना ही पानी गिरे, वह खेत के बाहर नहीं जाता। खेतों में जो खरपतवार, ग्रीन कवर या पेड़ होते हैं, वे पानी को सोखते हैं। इससे एक ओर हमारे खेतों में नमी बनी रहती है। दूसरी ओर वह पानी वाष्पीकृत होकर बादल बनता है और बारि्श में पुन् बरसता है।

इन खेतों में पुआल, नरवाई, चारा, तिनका व छोटी-छोटी टहनियों को पड़ा रहने देते हैं, जो सड़कर जैव खाद बनाती हैं। खेत में तमाम छोटी-बड़ी वनस्पतियों के साथ जैव विविधताएं आती -जाती रहती हैं। और हर मौसम में जमीन ताकतवर होती जाती है। इस जमीन में पौधे भी स्वस्थ और ताकतवर होते हैं जिन्हें जल्द बीमारी नहीं घेरती।

यहां जमीन को हमे्शा ढककर रखा जाता है। यह ढकाव हरा या सूखा किसी भी तरह से हो, इससे फर्क नहीं पड़ता। इस ढकाव के नीचे अनगिनत जीवाणु, केंचुए और कीड़े-मकोड़े रहते हैं। और उनके ऊपर-नीचे आते-जाते रहने से जमीन पोली और हवादार व उपजाऊ बनती है।

जमीन जुताई से भू-क्षरण होता है। जब जमीन की जुताई की जाती है और उसमें पानी दिया जाता है तो खेत में कीचड़ हो जाती है। बारि्श होती है तो पानी नीचे नहीं जा पाता और तेजी से बहता है। पानी के साथ खेत की उपजाऊ मिट्टी बह जाती है। इस तरह हम मिट्टी की उपजाऊ परत को बर्बाद कर रहे हैं और भूजल का पुनर्भरण भी नहीं कर पा रहे हैं। साल दर साल भूजल नीचे चला जा रहा है।

कृपि वैज्ञानिक फुकुओवा
कुदरती खेती एक जीवन पद्धति है। इसमें मानव की भूख मिटाने के साथ समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। यह पूरी तरह अहिंसक खेती भी है। इससे मिट्टी-पानी का संरक्षण भी होता हैं। इसे ऋषि खेती इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि ऋषि मुनि कंद-मूल, फल और दूध को भोजन के रूप में ग्रहण करते थे। बहुत कम जमीन पर मोटे अनाजों को उपजाते थे। वे धरती को अपनी मां के समान मानते थे। उससे उतना ही लेते थे, जितनी जरूरत होती थी। सब कुछ निचोड़ने की नीयत नहीं होती थी। इस सबके मद्देनजर कुदरती खेती भी एक रास्ता है। कुदरती का यह प्रयोग सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।

Saturday, January 22, 2011

गांव की खबरों से जुड़ते बच्चे

इस वर्ष खाली रह गया तालाब, यह शीर्षक था एक दीवार अखबार का, जो सतपुड़ा पर्वतीय क्षेत्र के एक छोटे से गांव के स्कूली बच्चों ने तैयार किया था। रंग-बिरंगी स्याही से हस्तलिखित अखबारों को जब मैंने देखा तो देखता ही रह गया। हरे-भरे खेत, जंगल, मोर, शेर, नदी, नहर और तालाब के सुंदर चित्रों ने मन मोह लिया। यह दीवार अखबार बच्चों ने तीन दिनी कार्यशाला के बाद बनाए थे।


2 से 4 दिसंबर तक चली मीडिया कार्यशाला के आखिरी दिन बच्चों की टोलियों ने 9 दीवार अखबार बनाए। इसके पहले उन्होंने अपने आसपास के मुद्दों की पहचान और लेखन की बारीकियों को जानने की कोशिश की। मेरी स्कूली बच्चों के साथ यह दूसरी कार्यशाला थी। ग्रामीण पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए कार्यशालाओं का पूर्व अनुभव था।

बच्चों ने खबर बनाने से लेकर संपादन तक सभी काम खुद किए। संपादक के नाम चिट्ठी और साक्षात्कार की सावधानियों को समझा। कार्यशाला में 6 वीं से लेकर 8 वीं तक के करीब 40 बच्चों ने भाग लिया। यह कार्यशाला मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में पिपरिया के पास समनापुर में हुई। यह कार्यशाला एकलव्य संस्था के सहयोग से की गई।

दूसरे दिन बच्चों की टोलियों ने गांव और खेत-खलिहान में जाकर ग्रामीणों से साक्षात्कार लिए। अपने ही बच्चों को नई भूमिका में देखकर ग्रामीणों को सुखद आश्चर्य हुआ। खेती-किसानी, जंगली जानवर, गांव के परंपरागत रोजगार, पशुपालन, बिजली-सड़क की दैनंदिन समस्याएं आदि विषयों पर जानकारी एकत्र की। एक टोली को गांव की कुछ महिलाओं के सवालों का भी सामना करना पड़ा, जो किसी पत्रकार के लिए आम बात है। लेकिन इन बच्चों के लिए यह नई और परेशानी की बात थी।

आम तौर पर स्कूलों मंे छुट्टी के लिए आवेदन पत्र और पत्र लेखन भी याद करवाया जाता है। लेकिन यहां बच्चों ने अपने मन से गांव की समस्याओं पर संपादक के नाम पत्र लिखे। यद्यपि उनकी भाषा में अनगढ़पन और अशुद्धियां थी लेकिन उनमें नयापन था। एक सपाट और सीधी सादी बात थी। उन्होंने बारिश से होने वाली अड़चनों और लड़कियों के लिए जरूरी हाईस्कूल की मांग को अपनी लेखनी का विषय बनाया। राहड (अरहर) दाल के कम उत्पादन के कारण गिनाए।

अगर हम भाषागत त्रुटियों को नजरअंदाज कर दें तो इन बच्चों की सोच और कल्पनाओं का दायरा बड़ा है। गांव से लेकर देश-दुनिया की समस्याओं को उन्होंने अपनी खबरों में जगह दी। अपने स्कूल के खेल मैदान के गड्ढे से लेकर बारिश कम होने जैसी खबरों को प्रमुखता दी। खेल मैदान की स्थानीय समस्या है तो बारिश कम होने का संबंध मौसम परिवर्तन से जोड़ा जा सकता है, जो दुनिया में चिंता का कारण बना हुआ है। दालों के महंगे दामों की चर्चा हो रही है। यह पूरा इलाका दालों के लिए प्रसिद्ध है। नर्मदा कछार की उपजाऊ मिट्टी में पैदा हुई तुअर की दालें मशहूर हैं। यहां बच्चों ने राहड (अरहर )में इल्ली और नगदी फसलों के कारण उसके रकबे में कमी की खबर को प्रमुखता दी।

जंगली सुअरों से फसलों का नुकसान, यह केवल एक गांव की नहीं बल्कि पूरे सतपुड़ा पर्वतीय क्षेत्र की समस्या है। शेर बचाने के लिए तो देश में काफी चिंता जताई जा रही है लेकिन जंगली जानवरों खासकर सुअरों से किसानों की फसलों को बचाने के लिए कोई आवाज नहीं है। जबकि इन क्षेत्रों में बहुत ही मामूली और गरीब किसान हैं। प्रकृति के नजदीक रहने वाले आदिवासी हैं, जो बहुत ही कम संसाधनों में अपना गुजारा करते हैं। लेकिन उनके जंगल से निस्तार पर कई तरह की रोक है।

स्कूली शिक्षा से बाहर देश के बहुत ही कम भाग्यवान बच्चे हैं जिन्हें जानने-सीखने का मौका मिलता है। मौजूदा शिक्षा सिर्फ परीक्षा में कंठस्थ करके उगल देने पर जोर देती है। ठूंस-ठूंस कर ज्ञान की घुट्टी पिलाने से बच्चे शिक्षा से जुड़ते नहीं है, उससे दूर छिटकते हैं। इसमें सोचने-समझने का मौका नहीं मिलता। अपने आसपास के परिवेश से जुड़ना और सीखना। नई-नई चीजों को देखना, उनका अहसास करना और अपने शब्दों में व्यक्त करना, यह भी शिक्षा का एक माध्यम है, ऐसी कोशिश करना फालतू माना जाता है। लेकिन वास्तव में यह भी शिक्षा का एक माध्यम है। इसका एक आयाम है किसी भी चीज को समग्रता में देखना। समाचार बनाने में खबर के सभी पहलुओं को शामिल किया जाता है, जिससे बच्चे किसी खबर के सभी पहलुओं से परिचित हो

छोटी उम्र में ही बच्चे बहुत कुछ सीखते-समझते हैं, यह सर्वज्ञात है। लेकिन यही कीमती समय उनका नीरस और उबाऊ शिक्षा में चले जाते हैं। अगर इस अवधि में उन्हें हम आसपास के वातावरण से जानने-सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। प्रकृति को गुरू मानकर उससे सीखा जाए, और इनसे सीखकर उन्हें शब्दों में ढाला जाए तो बेहतर शिक्षा मिल पाएगी। शिक्षा का एक और एक माध्यम है स्कूली पाठ्यक्रम के अलावा कई तरह की किताबें। किताबों की सैर करना और उनमें गोतें लगाना, शिक्षाप्रद और आनंददायी होता है।

इसी प्रकार, लेखन एक रचनात्मक काम है। उससे बच्चों का भाषाई और लेखन कौशल विकसित होता है, जो शिक्षा का भी एक महत्वपूर्ण आयाम है। जिन बच्चों ने इस कार्यशाला में भाग लिया, उनकी भाषा और वाक्य विन्यास कमजोर था। इसके बावजूद उन्होंने खड़ी बोली में लिखा और जहां उन्हें वे शब्द नहीं मिले, स्थानीय बोली में वाक्य बनाएं। यही कार्यशाला की विशेषता थी। अगर इस तरह की गतिविधियां स्कूलों में और स्कूल के बाहर निरंतर की जाएं तो मौजूदा शिक्षा की स्थिति में सुधार होगा। और शिक्षा के प्रति बच्चों का उनका नजरिया भी बदलेगा। उन्हें पढ़ने में रूचि होगी और मजा भी आएगा।