Saturday, February 13, 2010

सजीव खेती ही एकमात्र रास्ता है

"मैंने पहले रासायनिक खेती की और बाद में सजीव खेती। वर्ष 1994 तक मै रासायनिक खेती करता रहा। जिसमें मेरी जमीन की उर्वरक शक्ति गई, भूजल स्तर नीचे गया, देसी बीज खत्म हुए, फसलचक्र बदला और मजदूरों का रोजगार खत्म हुआ। लेकिन जब मेरा इस विनाशक खेती से मोहभंग हुआ और सजीव खेती अपनानी शुरू की तो मेरा जीवन ही बदल गया। इससे धीरे-धीरे भूमि की उर्वरक शक्ति बढ़ी, भूजल स्तर उपर आया और देसी बीज बचे और मजदूरों को रोजगार भी मिला। यानी सजीव खेती सिर्फ फसल उत्पादन की नहीं, समस्त जीव-जगत के पालन का विचार है। यह एक जीवन पद्धति है।" यह कहना है यवतमाल (महाराष्ट्र) जिले के किसान सुभाष शर्मा का।

हाल ही में इन्दौर में 7 से 9 फरवरी तक चले सजीव कृषि समाज मेला में बताया। इस मेले का उद्घाटन मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री ने किया था। मेले में देश के कई कोनों से आए कृषि वैज्ञानिक, शोधकर्ता, किसान शामिल हुए। इस मेले का आयोजन भारतीय सजीव कृषि समाज (ओ.एफ.ए.आई.), किसान कल्याण एवं कृषि विकास विभाग, मध्यप्रदेश शासन, मध्यप्रदेश विज्ञान-प्रौद्योगिकी परिषद और शासकीय कृषि महाविद्यालय ने मिलकर किया था। इसमें कृषि विशेषज्ञों के अलावा सीधे खेती करने वाले किसानों ने भी अपने अपने अनुभव साझा किए।

यहां महाराष्ट्र के यवतमाल के छोटी गूंजरी के सजीव खेती करने वाले किसान सुभाष शर्मा ने कहा कि रासायनिक खेती विनाश करने वाली है जबकि सजीव खेती से निर्माण होता है। उन्होंने कहा कि सजीव खेती अपनाने से जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ गई है। गाय के गोबर से जमीन में केंचुओं और जीवाणुओं की संख्या बढ़ी जिन्होंने खेत को उर्वर बनाया। हमने खेत में वनस्पति भी लगाईं जिसकी पत्तियां जैव खाद में बदलीं। पेड़ों में पक्षी आए जिन्होंने फसलों की इल्लियों को खाया। यानी कीट नियंत्रण किया। और उन्होंने जो विश्ष्टा किया उससे जमीन उर्वर हुई। इससे अगले साल फसल में ज्यादा फल्लियां लगी। ज्यादा उत्पादन हुआ।

इसी प्रकार जीवाणुओं के कारण बारिश का पानी खेत में रूकेगा और भूजल स्तर ऊपर आएगा। अगर हमारे पास खुद का बीज होगा तो उसे हम बारिश आने के पहले ही बो देते हैं। यह प्रयोग पिछले 10 साल में सिर्फ एक बार ही फेल हुआ जब बोनी खराब हुई, अन्यथा हर बार सफल रहा। अगर हम खेत में मल्ंिचग करते हैं तो तुअर में फल्लियां ज्यादा लगती हैं। उसकी पत्तियां जैव खाद बनाती हैं। जमीन क्रमशः सुधरती जाती है। इस प्रकार सजीव खेती से मुनाफा भी कमाया। और इसमें हमने मशीन से नहीं, मजदूरों से काम लिया। उनकी क्षमता और ईमानदारी पर भरोसा किया। परिणामस्वरूप मुनाफा क्रमशः बढ़ रहा है। मजदूरों को अब दीपावली पर बोनस भी दिया जाता है।
यह कहानी सिर्फ सुभाष जी की नहीं है, सजीव खेती की ओर अब बहुतेरे किसानों का रूझान बढ़ रहा है।

हमारी खेती का जो नुकसान हजारों वर्षों में नहीं हुआ, उतना हमने पिछले 40 वर्षों में कर लिया। अब हालत यह है कि लागत बढ़ती जा रही है, उपज कम होती जा रही है। हर साल रासायनिक खाद की खपत बढ़ती जा रही है। प्यासे बीजों को पानी पिलाने के लिए बेहिसाब भूजल उलीचा जा रहा है। बिजली संकट बढ़ रहा है। यानी कुल मिलाकर खेती खत्म हो रही है। घाटा का धंधा बन गई है। और भोजन-पानी भी जहरीला हो गया है।

इधर हरित क्रांति की असफलता के समाधान के रूप में जैव तकनीक को सामने लाया जा रहा है, जो हरित क्रांति से भी ज्यादा खतरनाक है। हाल ही बीटी बैंगन का मामला सामने आया है, जिसका काफी विरोध हो रहा है। हमारे यहां बैंगन की हजारों किस्में हैं, फिर जीन परिवर्तित बीटी बैंगन को क्यों लाया जा रहा है, जिसके सुरक्षित होने पर वैज्ञानिकों में मतैक्य है। हालांकि फिलहाल, बीटी बैंगन को व्यावसायिक अनुमति नहीं दी गई है, लेकिन भविश्य में इस पर रोक लगी रहेगी, इस पर अब भी रहस्य बना हुआ है। यह तकनीक मानव स्वास्थ्य और पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित नहंी है, यह सवाल उठाया जा रहा है।

इसलिए हमें सजीव खेती की ओर बढ़ना चाहिए। मिट्टी -पानी के संरक्षण करना चाहिए। देसी बीज, हल-बक्खर और गोबर
खाद की खेती की ओर बढ़ना चाहिए। कम पानी वाले देसी बीज और जमीन की उर्वरक शक्ति बढ़ाकर कम्पोस्ट खाद के प्रयोग, हरी खाद के माध्यम से किसान असिंचित खेती या सीमित सिंचाई के माध्यम से अच्छा उत्पादन कर सकते हैं। यह सभी दृष्टि से सुरक्षित भी है। पर्यावरणविद् व प्रख्यात लेखक क्लाड अल्वारिस का कहना है कि सभी परंपरागत कृषि पद्धतियों को किसानों ने ही विकसित किया है, वैज्ञानिकों ने नहीं। इसलिए परंपरागत कृषि ज्ञान, पद्धतियों व जैविक खेती की ओर बढ़ना जरूरी है।

इस कार्यक्रम के संयोजक डा. भारतेन्दु प्रकाश का कहना है कि हमें कृश्षि को जैविक व प्राकृतिक स्वरूप की ओर परंपरागत ज्ञान तथा संसाधनों के संरक्षणात्मक शोध का आधार लेकर लौटाना होगा। किसानों को आत्मनिर्भरता, परस्पर सहयोग तथा शोषणकारी बाजार से मुक्ति के लिए गंभीरता से कार्य करना होगा।

Friday, February 12, 2010

खेती की अनूठी परंपरागत पद्धति है बारहनाजा

बारहनाजा
पिछले दिनों इंदौर के सजीव कृषि मेले में उत्तराखंड के देसी बीजों का स्टाल लगा हुआ है। इन बीजों को मैंने अपने हाथ में लेकर देखा तो देखते ही रह गया। देर तक रंग-बिरंगे बीजों के सौंदर्य को निहारते रहा। धान, राजमा, मंडुवा (कोदा), मारसा (रामदाना), झंगोरा, गेहूं, लोबिया, भट्ट, राजमा और दलहन-तिलहन की कई प्रजातियां छोटी पालीथीन में चमक रही थीं। इन्हें बरसों से बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े विजय जडधारी लेकर आए थे।

चिपको आंदोलन से निकले विजय जड़धारी पिछले कई बरसों से बीज बचाओ आंदोलन से जुड़े हुए हैं। सत्तर के दषक में यहां पेड़ों को कटने से बचाने के लिए अनूठा चिपको आंदोलन हुआ था जिसमें ग्रामीणों ने पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने के लिए देश-दुनिया में मिसाल पेश की थी। इस आंदोलन में महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। यह आंदोलन देश-दुनिया में प्रेरणा का स्त्रोत बना।

विजय जड़धारी इसी आंदोलन से जुड़े हुए थे। चूंकि वे गांव में रहते हैं इसलिए उन्होंने बहुत जल्द ही रासायनिक खेती के खतरे को भांप लिया और खेती बचाने के लिए देसी बीजों की परंपरागत खेती को पुनर्जीवित किया। उन्होंने कहा कि रासायनिक खेती की शुरूआत में कृषि विभाग के लोग मुफ्त में बीज किट दिया करते थे। उसमें रासायनिक खाद भी होता था। उससे उपज तो बढी, लेकिन बढ़ने के बाद क्रमशः धीरे-धीरे कम होती गई। जब हमने देसी बीजों की तलाश की तो हमें नहीं मिले। लेकिन हमारी देसी बीजों की तलाश जारी रही। अंततः हमें ऐसे किसान मिले जो मिलवां या मिश्रित खेती करते थे। बारहनाजा यानी बारह तरह के अनाज एक साथ बोते थे।

बारहनाजा में बारह अनाज ही हों, यह जरूरी नहीं। इसमें ज्यादा भी हो सकते हैं। दरअसल, बारहनाजा भोजन की सुरक्षा व पोषण के लिए तो उपयोगी है ही। साथ में खेती और पशुपालन के रिष्ते को भी मजबूत बनाता है। फसलों के अवषेष जो ठंडल, चारा व भूसा के रूप में बचते हैं, वे पशुओं के आहार बनते हैं। गाय-बैल के गोबर से ही भूमि की उर्वर शक्ति बढ़ती है।

यहां बारहनाजा में कौन-कौन से अनाज बोते हैं, यह जानना भी उचित होगा। कोदा (मंडुवा), मारसा (रामदाना), ओगल (कुट्टू, ), जोन्याला (ज्वार ), मक्का, राजमा, गहथ (कुलथ ), भटट, रैयास, उड़द, सुंटा, रगडवास, गुरूंया, तोर, मूंग, भंजगीर, तिल, जख्या, सण, काखड़ी आदि।

बारहनाजा का एक फसलचक्र है। यहां की लगभग 13 प्रतिशत भूमि सिंचित है और 87 प्रतिशत असिंचित। सिंचित भूमि में ज्यादा विविधता नहीं है। जबकि असिंचित भूमि में विविधतायुक्त बारहनाजा दलहन, तिलहन आदि की विविधतापूर्ण खेती होती है। इसमें मिट्टी बचाने का भी जतन होता है। इसलिए फसल कटाई के बाद वे खेत को पड़ती छोड़ देते हैं। जमीन को पुराने स्वरूप में लाने की कोशिश की जाती थी। अब तो एक वर्ष में तीन-तीन चार फसलें ली जा रही हैं। मिट्टी-पानी का बेहिसाब दोहन किया जा रहा है।

विजय जडधारी
इसी प्रकार की मिश्रित फसलें मध्यप्रदेश के सूखा क्षेत्रों में प्रचलित हैं। हो्शंगाबाद की जंगल पट्टी में बिर्रा या उसका संशोधित रूप उतेरा प्रचलित है। इसमें किसान मक्का, उड़द, अरहर, सोयाबीन, ज्वार आदि लगाते हैं। एक साथ फसल बोने की पद्धति को उतेरा कहा जाता है। खेती के इस संकट के दौर में सतपुड़ा जंगल के सूखे और असिंचित इलाके में खा़द्य सुरक्षा को बनाए रखने की उतेरा पद्धति प्रचलित है। इसे गजरा के नाम से भी जाना जाता है। इसमें चार-पांच फसलों को एक साथ बोया जाता है। इसका एक संशोधित रूप बिर्रा ( गेहू-चना दोनों मिलवां ) है जिसकी रोटी बुजुर्ग अब भी खाना पसंद करते है।

उतेरा में एक साथ बोने वाले अनाज जैसे धान, ज्चार, कोदो, राहर और तिल्ली। उतेरा पद्धति के बारे में किसानों की सोच यह है कि अगर एक फसल मार खा जाती है तो उसकी पूर्ति दूसरी फसल से हो जाती है। जबकि नकदी फसल में कीट या रोग लगने से या प्राकृतिक आपदा आने से पूरी फसल नष्ट हो जाती है जिससे किसानों को भारी नुकसान होता है। उतेरा की खास बात यह भी है कि इसमें मिट्टी का उपजाऊपन खत्म नहीं होता। कई फसलें एक साथ बोने से पोषक तत्वों का चक्र बराबर बना रहता है। अनाज के साथ फलियोंवाली फसलें बोने से नत्रजन आधारित बाहरी निवेषों की जरूरत कम पड़ती है। फसलों के डंठल तथा पुआल उन मवेशियों को खिलाने के काम आते हैं जो जैव खाद पैदा करते है। इस प्रकार मनुष्यों को खेती से अनाज, पशुओं को भोजन और मिट्टी का उपजाऊपन भी उतेरा अक्षुण्ण है।

यानी हमें टिकाऊ खेती की ओर बढ़ना होगा। पर्यावरण और मिट्टी-पानी का संरक्षण करना होगा। मेढबंदी व भू तथा जल संरक्षण के उपाय करने होंगे। हमारी खेती में मानव की भूख मिटाने के साथ पर्यावरण संरक्षण व समस्त जीव-जगत के पालन का विचार भी था। जो बेतहाशा रासायनिक खादों के साथ गुम होता जा रहा है। इसलिए हमें टिकाऊ खेती को अपनाने की जरूरत है। बीज बचाओ आंदोलन का यह प्रयास सराहनीय होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है।
(लेखक विकासात्मक मुद्दो पर लिखते है)

18 फरवरी,2010, जनसत्ता नयी दिल्ली मै प्रकाशित.
12 मई, 2010, द पायोनिएर दिल्ली  में प्रकाशित.