जब हमारी गाड़ी हरे-भरे जंगल के बीच से गुजर रही थी तो दूर-दूर तक खंबे की तरह खड़े पेड़ों को देखकर दिल उछल-उछल पड़ रहा था । चारों तरफ शांत वातावरण, ठंडी हवा, रंग-बिरंगे पक्षी और गाय-बैलों को टिटकारते चरवाहे।
होशगाबाद जिले में दक्षिण में पूर्व से पशिचम तक सतपुड़ा की लम्बवत की खूबसूरत पहाडि़यां हैं। देनवा में दूर-दूर तक नीला पानी। यानी जहां जहां तक नजरें जाती, पानी का संसार। उधर गहरे पानी में लहरें उठती दिखतीं और मेरे अंदर भी। यहां तवा बांध की ठेल थी।
हम सोहागपुर की जंगल पटटी के स्कूल देखने जा रहे थे। कल हम मटकुली के आसपास वनांचल में गए थे। यह दौरा एकलव्य संस्था के द्वारा सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के क्षेत्र के स्कूलों का जायजा लेने के लिए किया गया था। आज के दौरे में विकासखंड शिक्षा अधिकारी तिवारी जी भी थे। एकलव्य पिपरिया के गोपाल भार्इ और कमलेश भार्गव तो थे ही।
पहला स्कूल मगरिया का देखा। यहां एक स्वयंसेवी संस्था ने शेक्षणिक सामग्री और पाठयक्रम को सरल ढंग से पढ़ाने के लिए प्रोजेक्टर दिए हैं। खापा, घोघरी, पाठर्इ,टेकापार, उरदोन और सेहरा के स्कूलों का भ्रमण किया।
स्कूल में एक तो शिक्षकों की कमी दिखार्इ दी और जो हैं, वे अन्य कामों में संलग्न रहते हैं। कल सेमरी में कोर्इ शिक्षकों की बैठक थी जिसमें शिक्षक गए थे। जब शिक्षक नहीं है, या जो वे अतिथि शिक्षक हैं,क्या वे प्रशिक्षित हैं, यह सवाल है।
यह अत्यंत निर्धन इलाका है। यहां गोंड और कोरकू आदिवासी निवास करते हैं। देनवा नदी के किनारे गांव बसे हैं। इनमें से ज्यादातर तवा बांध से विस्थापित हैं। तवा और देनवा के संगम पर बांद्राभान में तवा बांध बना है।
यहां के षिक्षक ने बताया कि यहां के आदिवासी बहुत सीधे-सादे और मददगार हैं। पर हैं बहुत गरीब। गरीब महिलाएं मूढ़गटठा (जलाऊ लकड़ी) बेचकर बच्चों का पेट पालती हैं। उन्हें मूढगटठा के लिए दो दिन श्रम करना पड़ता है। एक दिन वे जंगल जाती हैं, सूखी लकडि़यां बीनती हैं और गटठा बनाकर रखकर आ जाती हैं।
फिर दूसरे दिन सुवह-सबेरे जंगल जाती हैं, उसे लेकर नजदीक के कस्बे सोहागपुर जाती हैं, बेचती है और उन पैसों से राशन व जरूरत की चीजें लाती हैं। मूढगटठा की कीमत 100 रू से लेकर 150 रू. तक होती है।
खापा में स्कूल देखने के बाद गांव घूमने निकल गए। वहां कुछ घरों के आंगन में धान की दावन (धान की बालियों से दाना निकालने के लिए बैलों को घुमाया जाता है) की जा रही थी, जो लंबे अरसे बाद मैंने देखी। बहुत अच्छा लगा। बचपन में अपने गांव में खूब देखते थे।
जब टेक्टर व हार्वेस्टर नहीं थे तब ऐसे ही सब खेती के काम हाथ से किए जाते थे। दावन से धान अलग और उसके ठंडल जिसे पुआल कहते थे, वो अलग। धान से दाने निकालकर उन्हें ओखली में कूटते हैं। सूपा में फटखते हैं जिससे दाना और उसका कोड़ा भूसा अलग किया जाता है। फिर मिटटी की हांडी में भात पकता था जिसकी खदबद सुनकर ही भूखे बच्चों की आंखें चमक जाती थी।
गोंड आदिवासियों के घरों में लकड़ी से बनी दीवारें भी देखीं। इसके पहले खेतों में बागड़ देखी जो लकड़ी के खंबों व कंटीले वृक्षों की टहनियों से बनी थी। क्योंकि यहां जंगली जानवर फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं।
जंगली सुअर, हिरण, चीतल, सांभर, नीलगाय और बंदर फसलों को चौपट करते हैं। इसलिए खेतों में बागड़ बनार्इ जाती है। मचान बनाए जाते हैं, जिस पर बैठकर खेती की रखवाली की जाती है। जंगलों से भोजन की तलाश में ये जानवर खेतों और मैदानी क्षेत्रों की ओर आ जाते हैं। किसान परेशान हैं।
खेतों में बक्खर चलाते किसान और उनके संग देती महिलाएं भी दिखी। खेती में महिलाओं का योगदान महत्वपूर्ण है। वे बीज भंडारण से लेकर निंदार्इ, गुडार्इ, फसल कटार्इ जैसे कर्इ काम करती हैं।
गांव के कुछ स्कूलों में शैक्षणिक सामग्री की कमी तो थी ही, कहीं टाटपटटी की व्यवस्था भी नहीं थी। एक स्कूल में तो एक संकरे कमरे में लगा था, जिसमें सभी प्राथमिक कक्षा के बच्चे एक साथ बैठे थे। बाहर दरी पर आंगनबाड़ी लगी थी जिसमें तीन चार छोटी बचिचयां बैठी थी।
अब शा म हो गर्इ थी। जंगल में संध्या के पहले लोग घरों को लौट आते हैं। जंगल में जानवरों का भय तो रहता ही है। हमारी गाड़ी अब उची-नीची सड़क से पक्की सड़क पर आ गर्इ थी। आते ही फर्राटेदार एक पीली गाड़ी दिखी जो शायद पर्यटन के लिए मढर्इ जा रही थी। जंगली जानवरों और प्राकृतिक सौंदर्य देखने।
सोहागपुर के नजदीक लालिमा लिए सूरज डूबने को हो रहा था। सामने से साइकिलों से स्कूली लड़कियों की टोली दिखार्इ दी जिसे देख बहुत ही अच्छा लगा। यह बदलाव का प्रतीक तो है ही, लड़कियों की आजादी का प्रतीक भी है।
एक समय ऐसा था कि लड़कियों का घर से निकलना मुशिकल था। अब वे स्कूल जा रही हैं। कालेज जा रही हैं। सरकार की लड़कियों को साइकिल देने की योजना की जितनी तारीफ की जाए उतनी कम है। घर आते आते मेरे मन में एक तरफ तो अपूर्व प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर क्षेत्र के भ्रमण का आनंद था, वहीं दूसरी तरफ वहां के लोगों की सिथति, अभाव और कष्ट देखकर वह आनंद कम हो गया लगता है।
होशगाबाद जिले में दक्षिण में पूर्व से पशिचम तक सतपुड़ा की लम्बवत की खूबसूरत पहाडि़यां हैं। देनवा में दूर-दूर तक नीला पानी। यानी जहां जहां तक नजरें जाती, पानी का संसार। उधर गहरे पानी में लहरें उठती दिखतीं और मेरे अंदर भी। यहां तवा बांध की ठेल थी।
हम सोहागपुर की जंगल पटटी के स्कूल देखने जा रहे थे। कल हम मटकुली के आसपास वनांचल में गए थे। यह दौरा एकलव्य संस्था के द्वारा सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के क्षेत्र के स्कूलों का जायजा लेने के लिए किया गया था। आज के दौरे में विकासखंड शिक्षा अधिकारी तिवारी जी भी थे। एकलव्य पिपरिया के गोपाल भार्इ और कमलेश भार्गव तो थे ही।
पहला स्कूल मगरिया का देखा। यहां एक स्वयंसेवी संस्था ने शेक्षणिक सामग्री और पाठयक्रम को सरल ढंग से पढ़ाने के लिए प्रोजेक्टर दिए हैं। खापा, घोघरी, पाठर्इ,टेकापार, उरदोन और सेहरा के स्कूलों का भ्रमण किया।
स्कूल में एक तो शिक्षकों की कमी दिखार्इ दी और जो हैं, वे अन्य कामों में संलग्न रहते हैं। कल सेमरी में कोर्इ शिक्षकों की बैठक थी जिसमें शिक्षक गए थे। जब शिक्षक नहीं है, या जो वे अतिथि शिक्षक हैं,क्या वे प्रशिक्षित हैं, यह सवाल है।
यह अत्यंत निर्धन इलाका है। यहां गोंड और कोरकू आदिवासी निवास करते हैं। देनवा नदी के किनारे गांव बसे हैं। इनमें से ज्यादातर तवा बांध से विस्थापित हैं। तवा और देनवा के संगम पर बांद्राभान में तवा बांध बना है।
यहां के षिक्षक ने बताया कि यहां के आदिवासी बहुत सीधे-सादे और मददगार हैं। पर हैं बहुत गरीब। गरीब महिलाएं मूढ़गटठा (जलाऊ लकड़ी) बेचकर बच्चों का पेट पालती हैं। उन्हें मूढगटठा के लिए दो दिन श्रम करना पड़ता है। एक दिन वे जंगल जाती हैं, सूखी लकडि़यां बीनती हैं और गटठा बनाकर रखकर आ जाती हैं।
फिर दूसरे दिन सुवह-सबेरे जंगल जाती हैं, उसे लेकर नजदीक के कस्बे सोहागपुर जाती हैं, बेचती है और उन पैसों से राशन व जरूरत की चीजें लाती हैं। मूढगटठा की कीमत 100 रू से लेकर 150 रू. तक होती है।
खापा में स्कूल देखने के बाद गांव घूमने निकल गए। वहां कुछ घरों के आंगन में धान की दावन (धान की बालियों से दाना निकालने के लिए बैलों को घुमाया जाता है) की जा रही थी, जो लंबे अरसे बाद मैंने देखी। बहुत अच्छा लगा। बचपन में अपने गांव में खूब देखते थे।
जब टेक्टर व हार्वेस्टर नहीं थे तब ऐसे ही सब खेती के काम हाथ से किए जाते थे। दावन से धान अलग और उसके ठंडल जिसे पुआल कहते थे, वो अलग। धान से दाने निकालकर उन्हें ओखली में कूटते हैं। सूपा में फटखते हैं जिससे दाना और उसका कोड़ा भूसा अलग किया जाता है। फिर मिटटी की हांडी में भात पकता था जिसकी खदबद सुनकर ही भूखे बच्चों की आंखें चमक जाती थी।
गोंड आदिवासियों के घरों में लकड़ी से बनी दीवारें भी देखीं। इसके पहले खेतों में बागड़ देखी जो लकड़ी के खंबों व कंटीले वृक्षों की टहनियों से बनी थी। क्योंकि यहां जंगली जानवर फसलों को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं।
जंगली सुअर, हिरण, चीतल, सांभर, नीलगाय और बंदर फसलों को चौपट करते हैं। इसलिए खेतों में बागड़ बनार्इ जाती है। मचान बनाए जाते हैं, जिस पर बैठकर खेती की रखवाली की जाती है। जंगलों से भोजन की तलाश में ये जानवर खेतों और मैदानी क्षेत्रों की ओर आ जाते हैं। किसान परेशान हैं।
खेतों में बक्खर चलाते किसान और उनके संग देती महिलाएं भी दिखी। खेती में महिलाओं का योगदान महत्वपूर्ण है। वे बीज भंडारण से लेकर निंदार्इ, गुडार्इ, फसल कटार्इ जैसे कर्इ काम करती हैं।
गांव के कुछ स्कूलों में शैक्षणिक सामग्री की कमी तो थी ही, कहीं टाटपटटी की व्यवस्था भी नहीं थी। एक स्कूल में तो एक संकरे कमरे में लगा था, जिसमें सभी प्राथमिक कक्षा के बच्चे एक साथ बैठे थे। बाहर दरी पर आंगनबाड़ी लगी थी जिसमें तीन चार छोटी बचिचयां बैठी थी।
अब शा म हो गर्इ थी। जंगल में संध्या के पहले लोग घरों को लौट आते हैं। जंगल में जानवरों का भय तो रहता ही है। हमारी गाड़ी अब उची-नीची सड़क से पक्की सड़क पर आ गर्इ थी। आते ही फर्राटेदार एक पीली गाड़ी दिखी जो शायद पर्यटन के लिए मढर्इ जा रही थी। जंगली जानवरों और प्राकृतिक सौंदर्य देखने।
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