Friday, November 10, 2017

रावल जी की याद

समाजवादी चिंतक और जन आंदोलनों के वरिष्ठ साथी ओमप्रकाश रावल जी की कल पुण्यतिथि है। 23 बरस बीत उनका निधन हुए, लेकिन उनकी स्मृति सदैव बनी रहती है।

लंबी कद काठी, सफेद कुर्ता पायजामा, चेहरे पर मोटी फ्रेम का चश्मा और स्मित मुस्कान उनकी पहचान थी। पुरानी लूना से शहर में कार्यक्रमों में इधर उधर जाना। बिल्कुल बिना तामझाम और दिखावे के, सहज।

सोचता हूं उन पर लिखूं, फिर यह भी कि क्या? दोहराऊ कि वे एक इंदौर के परसरामपुरिया स्कूल के प्राचार्च थे, जेपी और लोहिया से प्रभावित होकर मास्टरी छोड़ दी, मीसा में जेल गए, विधानसभा चुनाव में जीत गए, शिक्षामंत्री भी बने, लेकिन जल्द ही समझ गए कि व्यवस्था में एक व्यक्ति की सीमाएं हैं। मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और मुख्यधारा की राजनीति से नाता तोड़ जन संगठनों और जन आंदोलनों से जुड़ गए।

रावल जी से मेरा परिचय 1988 में हुआ जब मैं इन्दौर में पढ़ने गया था। नईदुनिया में काम करता था। मैंने उनसे हास्टल में एडमिशन की सिफारिश चाही, उन्होंने और उनकी पत्नी कृष्णा रावल जी ने मुझे अपने घर ही रख लिया। बोले यही रहकर पढ़ो।

मैं रावल जी ( ओमप्रकाश रावल) के साथ बैठकर अखबार पढ़ता था। किताबें पढ़ता था। देश-दुनिया की घटनाओं पर बात होती थी। बड़े बांध और पर्यावरण पर उन दिनों उनकी खास नजर रहती थी।

रावल जी का जब मुख्यधारा की राजनीति से मोहभंग हुआ तो वे और सक्रिय हो गए। एक नई वैकल्पिक शक्ति को खड़ा करने के लिए। वे छोटे-छोटे संगठनों और आंदोलन को ताकत और समर्थन देने के लिए तत्पर रहने लगे। चाहे वह नर्मदा बचाओ आंदोलन की बड़े बांधों के खिलाफ लड़ाई हो या फिर भोपाल गैस पीड़ित संगठन की, चाहे वह छत्तीसगढ़ के खदान मजदूरों की लड़ाई हो या फिर होशंगाबाद व झाबुआ के आदिवासियों की, वे वहां जाते और उन मुद्दों पर लिखते।

जब मैं आज के समाजवादियों के कई संस्करण देखता हूं तो मुझे रावल जी की याद आ जाती है। उनकी सादगी, ईमानदारी और गरीबों के प्रति गहरी संवेदना की मिसालें याद आ जाती हैं। उनका घर जन संगठनों व आंदोलनकारियों का अड्डा हुआ करता था। वहां मेधा पाटकर, किशन पटनायक, स्वामी अग्निवेश से लेकर कई सामाजिक कार्यकर्ता आते थे, ठहरते थे और कई मुद्दों पर बातें चलती रहती थीं।

इन्दौर में गुरूजी (मशहूर चित्रकार विष्णु चिंचालकर ), महेन्द्र भाई ( सर्वोदय प्रेस सर्विस के सम्पादक), राहुल बारपुते ( नईदुनिया के सम्पादक) जैसी हस्तियां थी जो जन सरोकारों से जुड़े मुद्दों पर गहरी रूचि लेते थे और सामाजिक कार्यकर्ताओं की चिंता करते थे और उनकी मदद करते थे। उनकी पीठ पर हाथ रखते थे। चिन्मय मिश्र, तपन भट्टाचार्य, सुभाष रानाडे और बसंत शित्रे आदि इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। रावल जी जैसी हस्तियों को न केवल याद रखने की जरूरत है बल्कि आज उनके विचार और व्यक्तित्व से कुछ सीखकर आगे काम करने की जरूरत है। 
( यह लेख मैंने इस साल फरवरी (2017) में उनकी पुण्यतिथि पर लिखा था)

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