Friday, November 10, 2017

वैचारिक जड़ता के खिलाफ पृथ्वी मंथन

भारत में वैश्वीकरण के असर पर पर्यावरणविद् आशीष कोठारी और असीम श्रीवास्तव की नई किताब आई है- पृथ्वी मंथन। यह किताब बताती है भारत में वैश्वीकरण से क्या हो रहा है, कहां हो रहा है और इसका देश के बड़े तबके पर क्या असर हो रहा है। और जबसे यह  प्रक्रिया चली है तबसे अब तक जो विकास हो रहा है, जिस गति से हो रहा है, उसका सामाजिक और पर्यावरणीय क्या कीमत चुकाई जा रही है।

लेखकद्व देश के प्रमुख पर्यावरणविद् हैं। आशीष कोठारी, पर्यावरणविद् होने के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता भी रहे हैं। लेखकद्व ने वैश्वीकरण को एक विदेशी अर्थशास्त्री के हवाले से वैश्वीकरण पर लिखा है कि आप एक ऐसे पिल्ले की कल्पना कीजिए जिसे एक खास तरह की खुराक खिलाई जा रही है। इस खुराक की वजह से उसके शरीर की बढ़त इस तरह विकृत हो जाती है कि उसकी एक टांग तो बहुत तेजी से बढ़ती है और बाकी तीन टांगें छोटी-बड़ी रह जाती हैं। इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक लोग इससे वंचित रह जाते हैं और कुछ ही लोगों को इसका फायदा होता है।

आर्थिक सुधार और वैश्वीकरण के नाम पर न केवल वे वंचित रह जाते हैं बल्कि तेज विकास दर के नाम पर उन्हें अपने ही घर-बार, जल, जंगल, जमीनों को भी छीना जा रहा है। बड़ी बड़ी परियोजनाओं के लिए गांवों को उजाड़ा जा रहा है। विशेष आर्थिक क्षेत्रो( स्पेशल इकोनामिक जोन- सेज) हो या कोई और योजना। खेती की जमीन ली जा रही है। जमीन के बदले जो मुआवजा मिल रहा है, वह नई पीढ़ी के जरिए बाजार में चला जाता है। किसान खाली हाथ रह जाता है। गांव ही नहीं विस्थापन की यह प्रक्रिया शहरों में भी चल रही है।

किताब में बताया गया है कि निवेश के नाम पर जो वित्तीय पूंजी भारत में आई उससे भारत में नई उत्पादन क्षमता और रोजगारों में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई उल्टे यहां के बाजारों से रिटर्न जरूर कमा लिया। और इस वित्तीय पूंजी जो शेयर बाजारों में लगी है, वह अगर वह निवेशकों को लाभदायक न लगे तो पलक झपकते ही लौट जाएगी। जो शुरूआत में कहा गया था कि सुधारों से भारतीय अर्थव्यवस्था, यहां के बाजार मजबूत होंगे, रोजगारों बढ़ेंगे वह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सका है। उद्योगपतियों की संख्या भी बढ़ी, उनका कारोबार भी बढ़ा, मुनाफा भी बढ़ा पर रोजगार सृजन नहीं हुए।

किताब में बताया गया है कि सभी क्षेत्रों में रोजगार कम हुआ है। कृषि क्षेत्र में भी मशीनीकरण व उद्योगीकरण के कारण रोजगार कम हुआ है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1983 से 2005 के बीच खेती में सक्रिय श्रम शक्ति 68 प्रतिशत से घटकर 56 प्रतिशत रह गई है। कृषि की स्थिति लगातार कमजोर होती गई है। इस बात के प्रमाणस्वरूप कई आंकड़े पेश जा सकते हैं। किसानों की आत्महत्याएं रुक नहीं रही हैं।

एक आंकड़ा बताता है कि 1993-94 और 2004-05 के बीच बेरोजगारी में जबर्दस्त इजाफा हुआ है। एनएसएस के आंकड़े बताते हैं कि वार्षिक रोजगार वृद्धि दर 1983 से 1993 के बीच 2.34 प्रतिशत थी जो 1993-94 से 1999-2000 के बीच गिरकर मात्र 0.86 रह गई थी जबकि श्रमशक्ति वार्षिक 2 प्रतिशत से भी ज्यादा दर से बढ़ रही थी।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया में प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तेजी से हो रहा है। खनन तेजी से किया गया। विलासिता की वस्तुओं के लिए संसाधनों का दोहन बढ़ा पर इससे पर्यावरण का बड़ा नुकसान हुआ, जैव-विविधता नष्ट हुई और स्थानीय समुदायों की स्थायी आजीविका छीनी गई। उपभोक्तावाद के नाम पर कचरा संस्कृति बढ़ी जिससे जीवन दुश्वार हुआ। आयात-निर्यात खोलने से विदेशी सामानों से बाजार पट गए, खनिजों आदि का निर्यात बढ़ा, जिसके लिए भारी पर्यावरणीय कीमत चुकाई गई। इसके लिए सारे नियम ताक पर रखे गए।

क्या इस प्रक्रिया से गरीबी कम हुई। 2007-08  के सरकारी आर्थिक सर्वेक्षण में दावा किया गया है कि कुल आबादी में गरीबों का अनुपात 1993-94 में 36 प्रतिशत था जो 2004-05 में 27.5 प्रतिशत रह गया था। लेकिन सेनगुप्ता कमेटी के मुताबिक भारत के 77 प्रतिशत लोग प्रतिदिन 20 रूपए या उससे भी कम खर्चा कर पाते हैं।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमित भादुड़ी के हवाले से वैश्वीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट तरीके से बताया गया है कि विकास दर में इजाफे और  बढ़ती असमानता की प्रक्रियाएं समानांतर चलने लगती हैं। अमीरों के लिए चीजें तैयार करने के वास्ते बड़े-बड़े निगमों की जरूरत होती है और इस प्रक्रिया में वे गरीब देशों के ऐसे तबके को मोटी-मोटी तनख्वाह वाले रोजगार मुहैया कराते हैं जो उनके बढ़ते बाजार के उपभोक्ता बनेंगे। यह कारपोरेट संपदा रचने की एक विनाशकारी प्रक्रिया बन जाती है जिसमें दक्षिण से लेकर वाम तक एक नई राजनीतिक साझेदारी उभरने लगती है। 

औद्योगिकीकरण के जरिए प्रगति इस रास्ते की पहचान बन जाती है। मध्यवर्ग के जनमत निर्माता और मीडियाकर्मी एकजुट हो जाते हैं और केवल कभीकभार ही बेदखल किए गए लोगों की जायज मुआवजे की हल्की फुल्की आवाजें उठाते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि औद्योगिकीकरण के नाम पर होनेवाले जबर्दस्त विस्थापन और तबाही के हालात में सम्मानजनक वैकल्पिक रोजगार कैसे पैदा किए जाएं।

यह किताब मौजूदा अर्थव्यवस्था का तथ्यात्मक विश्लेषण ही नहीं करती बल्कि विकल्पों पर रोशनी भी डालती है। भोर की किरणें नामक भाग में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसमें बताया गया कि विकल्पों की कमी नहीं है। ओडिशा के डोंगरिया कौंध आदिवासियों ने नियमगिरी पहाड़ी को लेकर अपनी लड़ाई जीत ली है। स्थानीयकरण जो वैश्वीकरण का विलोम है। इस मान्यता पर आधारित है कि जो लोग संसाधनों के सबसे निकट रहते आए हैं उन्हीं के पास उन संसाधनों को संभालने का सबसे ज्यादा अधिकार होना चाहिए। प्राकृतिक स्वराज की अवधारणा के मूल्यों को विस्तार से बताया गया है। और भी कई उदाहरण हैं जो प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण करते हुए, पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाते हुए और आजीविका को सुरक्षित रखते हुए विकास किया जा सकता है। मुझे यह किताब पढ़ते हुए समाजवादी चिंतक किशन पटनायक की किताब विकल्पहीन नहीं है दुनिया की याद आई। बहरहाल, यह किताब ऐसे समय आई है जब विकास की चकाचौंध में विचार का संकट भी है। यह किताब वैचारिक जड़ता के खिलाफ भी है। 204 पृष्ठों की यह महत्वपूर्ण किताब राजकमल से वर्ष 2016 में प्रकाशित है।

(यह लेख सप्रेस से जारी हो चुका है)

  

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